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डायरी के पन्नों से..."शेष है..."

सन्  2017 जाने को है, महज़ कुछ घंटे ही शेष हैं और मेरे द्वारा आज प्रस्तुत की जा

डायरी के पन्नों से ..."हर पत्थर से ठोकर खाई"

यह रचना भी मेरे प्रथम वर्ष, टी.डी.सी. (महाराजा कॉलेज, जयपुर) में अध्ययन (किशोरावस्था व यौवन की वयसंधि ) के समय  की है...प्रस्तुत है बंधुओं- 'हर पत्थर से ठोकर खाई'!       *********

अनुशासन की अनुशासनहीनता

      स्मरण है मुझे श्रीमती इन्दिरा गांधी के समय का आपातकाल! कई विपक्षी नेताओं को जेलों में ठूंस दिया गया था, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सीमित कर दी गई थी; यहाँ तक कि टार्गेट के दबाव के चलते गैरशादीशुदा युवकों की

अंध-भक्ति

         अच्छा है कि वह एक पूर्व न्यायाधीश हैं, अभी तक अगर पद पर होते और वहाँ होते, जहाँ आसा राम का इंसाफ होना है, तब तो आसा राम की बल्ले-बल्ले हो जाती। मैं बात कर रहा हूँ राजस्थान के पूर्व न्यायाधीश

डायरी के पन्नों से ..."प्यार अधूरा रह जाएगा"

     कृपया कोष्टक में अंकित आलेख को अवश्य पढ़ें।     दिल में जब तक तड़पन पैदा न हो, प्यार का रंग कुछ फीका-फीका ही रहता है। कई महानुभावों ने इसे महसूसा होगा। तड़पन का कुछ ऐसा ही भाव आप देखेंगे प्यार की मनुहार वाली मेरी इस कविता में - "प्यार अधूरा रह जाएगा  ..."      (महाराजा कॉलेज, जयपुर में प्रथम वर्ष के अध्ययन के दौरान हमारी वार्षिक पत्रिका 'प्रज्ञा' में यह कविता प्रकाशित हुई थी। कविता के आवश्यक तत्व 'मात्राओं की समानता' का पूर्णतः अनुपालन मैंने इस कविता में किया था। मेरी इस कविता में मुखड़ा मिलाने वाली चार पंक्तियों में प्रत्येक में 16 तथा अन्य पंक्तियों में हर विषम संख्या वाली पंक्ति में 16 मात्राएँ व हर सम संख्या वाली पंक्ति में 14 मात्राएँ आप पाएँगे। आज भी कुछ अच्छे कवियों द्वारा इस मात्रा-धर्म को निभाया जाता है, किन्तु अतुकांत कविताओं का दौर चलने के बाद कुछ ही कवि इस ओर ध्यान देते हैं। मैं भी अब इतना ध्यान मात्राओं के मामले में नहीं रख पाता... हाँ, रिदम का ध्यान यथासम्भव रखता हूँ।)         

डायरी के पन्नों से ...'दो मुक्तक'

प्रिय मित्रों, प्रस्तुत हैं दो मुक्तक ... 

डायरी के पन्नों से ..."लो चाँद उगा..."

       वृन्दावन लाल वर्मा का प्रसिद्ध उपन्यास 'मृगनयनी' मैंने तब पढ़ा था जब मैं पांचवीं कक्षा का विद्यार्थी था। कितना मैं उस उम्र में उस उपन्यास को समझ पाया था, मुझे स्मरण नहीं, लेकिन यह अवश्य ध्यान में है कि मुझे बहुत आनंद आया था पढ़कर। नट-नटनियों की पृष्ठभूमि पर आधारित इस उपन्यास की कुछ घटनायें मेरी स्मृति में आज भी हैं।               इसके बाद सातवीं कक्षा में आने पर मैंने जय शंकर प्रसाद की कालजयी कृति 'कामायनी' को पढ़ा- 'हिमगिरि के उतुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छांह, एक पुरुष भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय-प्रवाह।' - इस पुस्तक की वह प्रारम्भिक पंक्तियाँ थीं जो मेरे मन-मानस में कविता घोल गईं। हिंदी का ठीक-ठाक ज्ञान होने के बावज़ूद भी इस काव्य की भाषा-शैली व भावात्मक सृजनशीलता मुझे उस समय बहुत कठिन लगी थी और यही कारण था कि मैं उसे आधा-अधूरा ही पढ़ सका।       नवीं कक्षा की पढ़ाई पूरी होने तक मैंने उपन्यास-सम्राट मुन्शी प्रेमचंद के उपन्यास 'रंगभूमि', 'कर्मभूमि' तथा 'कायाकल्प' पढ़ डाले थे।       जीवन में मैंने क्या पाया और क्या खोया, इसका उ

डायरी के पन्नों से ..."मन की व्यथा"

मेरे अध्ययन-काल की एक और कविता ...प्रस्तुत है मित्रों- "मन की व्यथा" :-

डायरी के पन्नों से ..."भूतपूर्व मिनिस्टर"

दि. 19-12-1969 को लिखी गई मेरी इस कविता में मैंने पहले 'सोनिया' की जगह 'गप्पा' (निजलिंगप्पा) तथा 'मोदी' की जगह 'इंदिरा' लिखा था, बस मात्र इतना ही परिवर्तन समय के हिसाब से किया है, शेष कविता

'झाँसी की रानी'- "कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान"

         स्वाधीनता-संग्राम से सम्बद्ध यह रचना बहुत लुभाती है मुझे। मैं नहीं समझता कि झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई की वीरता विषयक इससे अधिक अच्छी कविता किसी और कवि/कवयित्री द्वारा लिखी जा सकती थी। तो मित्रों, आपकी सुषुप्त यादों और संवेदनाओं को

अपने तरीके से ...

     18 वर्षीया स्कूली लड़की एक पार्टी में अपनी दोस्त के साथ जाती है। पार्टी के दौरान एक बदमाश नशेड़ी लड़का उसे जबरन डांस के लिए प्रोपोज़ करता है, लेकिन लड़की इन्कार कर देती है। उसके रवैये से परेशान लड़की पार्टी छोड़कर अपने घर जाने के लिए बाहर निकल आती है। वह लड़का भी बाहर निकल कर अपने तीन साथियों के साथ लड़की को वहीं दबोच लेता है और चारों मिल कर उसे कार में डाल कर ले जाते हैं। चारों कार में ही उसका रेप करते हैं और बीच राह एक गंदे नाले में फेंक कर चले जाते हैं।  लड़की का पिता उसी दिन विदेश गया होता है अतः लड़की की माँ  (सौतेली, लेकिन अच्छी) देवकी लड़की को खोजने के लिए पुलिस का सहारा लेती है। लड़की को जख़्मी हालत में बरामद कर अस्पताल के ICU में भर्ती कराया जाता है। सूचना पर लड़की का पिता भी विदेश से लौट आता है। कुछ समय में लड़की स्वस्थ हो जाती है और उधर पुलिस लड़कों को गिरफ्तार कर कोर्ट में पेश करती है। जैसा कि कई मामलों में होता है, कुछ समय बाद अदालत पुख्ता सबूत न होना मानकर चारों अपराधियों को रिहा कर देती है।      कहानी आगे चलती है और क़ानून और न्याय से निराश देवकी अपने पति की गैर जानकारी में उन चारो

डायरी के पन्नों से ... "नील सरोवर"

       एक और प्रस्तुति मित्रों...              पलकों की छाया में सुन्दर,             आँखों का यह नील सरोवर।     इन नयनों से जाने कितने,  दीवानों  ने  प्यार  किया।  देवलोक  से आने  वाली,  परियों ने अभिसार किया।  कुछ गर्व से, कुछ शर्म से,  छा जाती लाली मुख पर।                 "पलकों की..."                                                   सांझ  हुई जब  दीप जले,               वीराने  भी  चमक  उठे।              दम भर को लौ टिकी नहीं               कुछ ऊपर जब नयन उठे।               पलकें उठ, झुक जाती हैं,               कुछ कह  देने को तत्पर।                              "पलकों की..." जब भी पलकें उठ जाती हैं, वक्त  वहीं  रुक  जाता  है। हँस  उठती  हैं  दीवारें  भी, ज़र्रा   ज़र्रा   मुस्काता  है। किन्तु  प्रलय भी हो जाता, देखें  जब  तिरछी  होकर।                 "पलकों की..."                              पलकों की  कोरों से शायद,                बादल  ने  श्यामलता  पाई।                शायद इनको निरख-निरख,                फूलों   में 

चलचित्र 'पद्मावती' का दूषित कथानक- एक समीक्षा

        प्राप्त जानकारी के अनुसार चलचित्र 'पद्मावती' में दर्शाए गये नराधम सुल्तान अल्लाउद्दीन और प्रातःस्मरणीया रानी पद्मिनी (पद्मावती) के अन्तरंग दृश्यों को कुत्सित विचारधारा वाले कुछ व्यक्ति यह कह कर समर्थन दे रहे हैं कि वह सभी दृश्य चलचित्र में अल्लाउद्दीन की कल्पना में होना दर्शाया गया है न कि हकीकत में।      यह भी कहा जा रहा है कि पद्मिनी या पद्मावती की कहानी पूरी तरह से काल्पनिक है, इस तरह की रानी का कोई वजूद होना इतिहास में प्रामाणिक नहीं है।      इस सम्बन्ध में मेरा तर्क

'कौन बनेगा करोड़पति'

'कौन बनेगा करोड़पति'       जी हाँ, मैं अमिताभ बच्चन जी के हाल ही समाप्त हुए शो 'कौन बनेगा करोड़पति' के विषय में अपने कुछ विचार रखने जा रहा हूँ। इस बार के शो को मैं पिछले लगभग एक माह से देख रहा था।      मित्रों, आपने भी सब नहीं तो, कुछ एपिसोड तो देखे ही होंगे। वैसे तो इस महानायक या इस लोकप्रिय शो के विषय में कुछ भी कहना सूर्य को दीपक दिखाने के सामान है, पर मेरा भी अपना स्वतन्त्र व्यक्तित्व है सो कुछ कहने का

नोटबंदी की वर्ष-गाँठ

नोटबंदी की वर्ष-गाँठ - अन्वेषण व समीक्षा :-     तीन बिन्दु- 1) कितना काला धन सरकार के पास आया ? आया भी

डायरी के पन्नों से ... 'नई रचना'

पेश हैं मेरी दो नई रचनायें मेरे दोस्तों...  बेवफ़ा तेरी बेवफ़ाई  का,                                 कब तुझसे हमने शिकवा किया है, उम्मीदेवफ़ा में जिए जायेंगे क़यामत तक,                                 गर ज़िन्दगी ने हमें धोखा न दिया।                          -------------         आरज़ू हो तुम, मेरी चाहत हो, दिल का इक अरमान हो तुम।         ज़र्रा  नहीं  हो, सितारा नहीं  हो,  मेरे लिए, मेरी जां हो तुम। 

अहंकार क्यों झलकने लगता है?

     सन् 2016 में रियो  डि जेनेरियो में  ग्रीष्मकालीन   ओलम्पिक में  बैडमिंटन के फाइनल में  अपने जीवट खेल के बावजूद भी स्पेन की  कैरोलिना मैरिन से हारने के बाद भारतीय स्टार खिलाड़ी पी.वी.सिन्धु ने 

आप 'पन्ना धाय' को जानते हैं...?

      'पन्ना धाय' राजस्थान में ही नहीं, सम्पूर्ण भारत में गर्व और श्रद्धा से लिया जाने वाला वह नाम है जिसके समकक्ष विश्व में कोई भी नाम बौना हो जाता है जब चर्चा होती है स्वामिभक्ति व त्याग की।       पन्ना धाय, एक माता, जिसने राजद्रोही बनवीर के सम्मुख अपने स्वामी-पुत्र (राजकुमार उदय सिंह) की रक्षा हेतु अपने ही पुत्र को मरने के लिए प्रस्तुत कर दिया। ऐसा उदहारण विश्व में न कभी इससे पहले देखा गया है और सम्भवतः न ही कभी देखा जा सकेगा। भारतीय इतिहास को जानने वाले महानुभाव इस पवित्र नाम से अपरिचित नहीं हो सकते, अतः मेरा यह आलेख 'पन्ना धाय' से अनभिज्ञ जिज्ञासु व्यक्तियों के लिए केवल पठनीय ही नहीं होगा, अपितु वह उस महान अलौकिक आत्मा का परिचय पाकर स्वयं को धन्य भी समझेंगे।       यहाँ, मेरे शहर उदयपुर में गोवर्धन सागर तलैया किनारे  सन् 1914 में निर्मित एक भवन में पन्ना धाय की गाथा कहती स्थायी प्रदर्शनी स्थापित की गई है। इस प्रकोष्ठ में पन्ना धाय से सम्बंधित एक डॉक्यूमेंट्री मूवी भी प्रदर्शित की जाती है। कल मैंने वहाँ जाकर पन्ना धाय को पुनः जानने का प्रयास किया, जबकि उस देवी की

डायरी के पन्नों से ..."नदी और किनारा"

मन में गुँथी वैचारिक श्रृंखला ही कभी-कभी शब्दों में ढ़ल कर कविता का रूप ले लेती है - मेरे कॉलेज के दिनों की उपज है यह कविता भी ...सम्भवतः आप में से भी कुछ लोगों ने जीया होगा इन क्षणों को!

डायरी के पन्नों से ..."उसकी दीपावली"

कविता की अन्तिम दो पंक्तियों में निहित भाव के लिए समस्त कवि-बन्धुओं से क्षमायाचना के साथ प्रस्तुत है मेरी डायरी के पन्नों से एक और अध्ययनकालीन रचना - "उसकी दीपावली"                                                                  

कल फिर बलात्कार हुआ...

       कल ही की तो बात है। कल प्रातः मैं अपने घर के अहाते में बैठा चाय की सिप लेता हुआ अखबार की ख़बरें टटोल रहा था कि अचानक वह हादसा हो गया।           एक तीखी चुभन मैंने अपने पाँव के टखने पर महसूस की। देखने पर मैंने पाया कि एक डरावना, मटमैला काला मच्छर मेरे पाँव की चमड़ी में अपना डंक गड़ाए बैठा था। मेरी इच्छा और सहमति के बिना हो रहे इस बलात्कार को देखकर मेरा खून खौल उठा और मैंने निशाना साधकर उस पर अपने दायें हाथ के पंजे से प्रहार कर दिया। बचकर उड़ने का प्रयास करने के बावज़ूद वह बच नहीं सका और घायल हो कर नीचे गिर पड़ा।          इस घटनाक्रम के दौरान दूसरे हाथ में पकड़े चाय के  कप से कुछ बूँदें अखबार के पृष्ठ पर गिरीं। आम वक्त होता तो  उन अदद अमृत-बूंदों के व्यर्थ नष्ट होने का शोक मनाता, लेकिन उस समय मेरे लिए अधिक महत्वपूर्ण था धरती पर गिरे उस आततायी को पकड़ना। मैंने चाय का कप टेबल पर रखकर उस घायल दुष्ट को पकड़ कर उठाया और बाएं हाथ की हथेली पर रखा। मेरी निगाहों में उसके प्रति घृणा और क्रोध था पर फिर भी मेरे मन के विवेक ने कहा कि कानून हाथ में लेना ठीक नहीं है। फिर विवेक ने ही इसका प्रत

डायरी के पन्नों से ..."कविता मैं कैसे लिखूं"

       डॉ. प्रियंका (हैदराबाद) के साथ हुए हादसे के बाद आज दि. 5-12-2019 को मैंने चार नवरचित पंक्तियाँ मेरी इस पूर्व -प्रकाशित कविता में और जोड़ी हैं।...    दामिनी का बस में बलात्कार और फिर निर्मम हत्या, मासूम प्रद्युम्न की विद्या के मंदिर (विद्यालय ) में क्रूरतापूर्ण हत्या, धर्मांध और भोले-भाले लोगों को अपने जाल में फंसाकर व्यभिचार का नंगा तांडव करने वाले 'राम-रहीम' जैसे बाबा ...और ऐसे अनाचारों के प्रति धृतराष्ट्रीय नज़रिया रखने वाले, अपने राजनैतिक स्वार्थ के चलते इन्हें पोषित करने वाले, राजनेताओं को जब मैं देखता हूँ तो मन अपने-आप से पूछता है- जिसे देवभूमि कहा जाता था, क्या यही वह राम और कृष्ण की धरती है?     ...इस सबसे प्रेरित हैं मेरे यह उद्गार..."कविता मैं कैसे लिखूं"       दामिनी  की चीख अभी  भी, गूंजती  हवाओं  में, प्रद्युम्न  की मासूम  तड़पन, कौंधती  निगाहों में, नींद में  कुछ  चैन पाऊं, वो  ख्वाब नहीं  मिलते, कविता  मैं  कैसे  लिखूं, अलफ़ाज़ नहीं  मिलते। डॉक्टर को अपवित्र किया,जला दिया हैवानों ने, हर बस्ती को नर्क बनाया,कुछ पागल शैतानों ने।  लहू

डायरी के पन्नों से ..."पांच सूत्री कार्यक्रम"

     विषय भी पुराना है, सन्दर्भ भी पुराना है और मेरी यह व्यंग्य-रचना भी पुरानी है- स्व. श्री संजय गांधी (स्व. श्रीमती इन्दिरा गांधी के पुत्र ) के समय की....लेकिन आज भी लोगों में कहीं-न-कहीं वही सोच काम करती है।                        

डायरी के पन्नों से..."प्यार तुझे सिखला दूंगा"

मानवीय संवेदनाओं से जुड़े हुए रसों में से ही कोई एक रस शब्दों का आकार लेकर कविता को जन्म देता है। मेरी इस रचना ने भी कुछ ऐसे ही जन्म लिया था।             खामोशी में रहने वाले, घुट-घुट आहें भरने वाले, नफरत सबसे करने वाले, प्यार तुझे सिखला दूँगा। क्यों चाह तुझे है नफरत की, कब तूने खुद को जाना है? तू क्या है, तुझमें क्या है, तुझको मैंने पहचाना है होठों पर उल्लास बहुत है. आँखों में विश्वास बहुत है, तेरे दिल में प्यार बहुत ह यह भी मैं दिखला दूँगा।। ‘‘ख़ामोशी में … ‘’ गर थोड़ा सहस तुझमें है, दुनिया जो चाहे कहने दे, पलकों की कोरों से अपनी, यों जीवन-रस ना बहने दे। देख, अभी तुझको जीना है, कभी-कभी विष भी पीना है, दुनिया में फिर भी रहना है, गम तेरे अपना लूँगा।। “ख़ामोशी में … ” तुझसे कब चाहा है मैंने, जीवन का मृदुहास मुझे दे बस यही चाहता मैं तुझसे, तू अपना विश्वास मुझे दे। दिल के ज़ख्मों में पीर भरे, कुछ भाव गहन-गंभीर भरे, आँखों में थोड़ा नीर भरे, मैं खुद को बहला लूँगा।। “ख़ामोशी में … ” *********

डायरी के पन्नों से ... "एक रात..."

जो किशोरवय युवा अभी यौवनावस्था से गुज़र रहे हैं वह इसी काल को जीते हुए और जो इस अवस्था से आगे निकल चुके हैं वह तथा जो बहुत आगे निकल चुके हैं वह भी, कुछ क्षणों के लिए उस काल को जीने का प्रयास करें जिस काल को मैंने इस प्रस्तुत की जा रही कविता में जीया था।…     कक्षा-प्रतिनिधि का चुनाव होने वाला था। रीजनल कॉलेज, अजमेर में प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया था मैंने उन दिनों। कक्षा के सहपाठी लड़कों से तो मित्रता (अच्छी पहचान ) लगभग हो चुकी थी, लेकिन लड़कियों से उतना घुलना-मिलना नहीं हो पाया था तब तक। अब चुनाव जीतने के लिए उनके वोट भी तो चाहिए थे, अतः उनकी नज़रों में आने के लिए थोड़ी तुकबंदी कर डाली। दोस्तों के ठहाकों के बीच एक खाली पीरियड में मैंने कक्षा में यह कविता सुना दी। किरण नाम की दो लड़कियों सहित कुल 12 लड़कियां थीं कक्षा में और उन सभी का नाम आप देखेंगे मेरी इस तुकबंदी वाली कविता में (अंडरलाइन वाले शब्द )। ... और मैं चुनाव जीत गया था।                     

डायरी के पन्नों से ..."महक उठेगा ज़र्रा-ज़र्रा"

मेरा अध्ययन-काल मेरी कविताओं का स्वर्णिम काल था। मेरी उस समय की रचनाओं में से ही एक कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ - "महक उठेगा ज़र्रा-ज़र्रा..."

फिर अवसर नहीं मिलने वाला...

     कठिन परिश्रम और लम्बी प्रतीक्षा के बाद यदि कोई अवसर मिलता है तो समय से उसका पूरा-पूरा सदुपयोग कर लेना ही बुद्धिमानी है। इस सत्य को हर समझदार व्यक्ति जानता है पर सफलता के अहंकारवश अधिकांश व्यक्ति राह से भटक जाते हैं। सफलता की राह में बाधा बनकर कई विपरीत परिस्थितियां आती हैं लेकिन उन पर विजय प्राप्त कर अपनी राह पर निरन्तर आगे बढ़ने वाला सक्षम व्यक्ति ही इतिहास बनाता है।        हमारे समक्ष दो ऐसी हस्तियाँ हैं जिन्होंने राजनीति में चमत्कार कर दिखाया है। मैं बात कर रहा हूँ

डायरी के पन्नों से... "भीगे नयन निहार रहे हैं..."

          "भीगे नयन निहार रहे हैं"- मेरे ही द्वारा चयनित यह शीर्षक था कविता प्रतियोगिता के लिए, जब महाराजा कॉलेज, जयपुर में प्रथम वर्ष में अध्ययन के दौरान मैंने राज्यस्तरीय अंतर्महाविद्यालयीय  कविता-प्रतियोगिता आयोजित करवाई थी। मैं उस वर्ष कॉलेज की साहित्यिक परिषद 'साहित्य-समाज' का सचिव था। राज्य के कुछ स्थापित विद्यार्थी कवियों ने भी भाग लिया था उस प्रतियोगिता में। मैंने भी इस शीर्षक पर लिखी कविता में विरह-तप्त नायिका के उद्गारों को शब्दों में ढाला था। निर्णायकों द्वारा मेरी कविता सराही तो गई थी, लेकिन पुरस्कार नहीं पा सकी थी। उस समय के ख्यात विद्यार्थी-कवि 'मणि मधुकर' ने प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया था।          मेरे उपनाम (तख़ल्लुस ) 'हृदयेश' (अन्य कवियों की तरह उपनाम लगाने का शौक मुझे भी चढ़ा था उन दिनों ) के साथ लिखी वह कविता मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ - ' भीगे नयन निहार रहे हैं '                तन-प्राणों से सजल स्वर, प्रियतम,तुम्हें पुकार रहे हैं।  देव! तुम्हारे सूने पथ को, भीगे नयन निह

मुझे मोक्ष नहीं चाहिए

              मोक्ष की अवधारणा कल्पना मात्र  है या वास्तविकता पर आधारित- यह विवाद का विषय तो हो ही नहीं सकता, क्योंकि विवाद की सार्थकता तभी होती है जब सत्य तक पहुंचा जा सके। यद्यपि पौराणिक ग्रंथों और अन्य धर्म-शास्त्रों में इसका उल्लेख  है और इसका महात्म्य भी बताया गया है, लेकिन इसकी प्रामाणिकता इसलिए संभव नहीं हो सकी है क्योंकि यह विषय ही परालौकिक है।         ईश्वर है या नहीं है, इसका उत्तर

डायरी के पन्नों से ..."जीवन और मृत्यु"

 चलचित्र 'वक्त' के लिए आशा भोंसले की मदहोश आवाज़ में गाया गीत - 'आगे भी जाने न तू , पीछे भी जाने न तू , जो भी है बस यही इक पल है...कर ले पूरी आरज़ू !''- जिसने ध्यान से सुना है और इसके मर्म को समझा है, वह  निश्चित ही अपने जीवन के हर पल को जी रहा होगा। तो जी लो दोस्तों, अपने जीवन के हर पल को तबीयत से जी लो, क्योंकि.....अगले पल क्या होने वाला है किसी को नहीं पता ! ( ईश्वर करे सबके लिए सब-कुछ अच्छा ही हो। )     मेरी यह क्षणिका भी जीवन की क्षण-भंगुरता के कटु-सत्य को प्रदर्शित करती है।            "जीवन और मृत्यु"  सुबह का विश्वास लेकर,  शाम की आस लेकर,  आकाश में उड़ती चिड़िया,  अनायास ही,   दोपहर में   गिर पड़ी   धरती पर,  अपने पंख फड़फड़ा कर।              -----            

डायरी के पन्नों से ..."तृतीय विश्व युद्ध" -------

   तृतीय विश्व-युद्ध सम्भवतः नहीं होगा, लेकिन कुछ देश जिस तरह की गैर ज़िम्मेदाराना हरकतें कर रहे हैं, उससे एक डरावने भविष्य का संकेत मिल रहा है। यदि अनहोनी होती ही है तो परिणाम क्या होगा? इसी कल्पना की उपज है मेरी यह कविता...!

डायरी के पन्नों से ... "ईर्ष्या"

     कोई यदि किसी दूसरे के अधिकार की जगह पर स्थापित हो जाये तो उसके प्रति क्रोध, आक्रोश, दुःख, घृणा, ईर्ष्या या बदले की भावना या ऐसी ही कोई अन्य प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है। ऐसा ही एक भाव मेरी इस क्षणिका में...!           "ईर्ष्या"   नींद पलकों को छूकर चली जाती है, हर रात जब वह आती है, क्योंकि- दिल में बसी हुई तुम्हारी तस्वीर, उसे मेरी आँखों में नज़र आती है।      -----   ki

शर्म के कारण...

       फेसबुक की संरचना से पहले की बात -       पत्नी को जब पति की तारीफ करनी होती थी तो शर्म के कारण सीधे नहीं कहकर बच्चे को कहती थी - 'आज तुम्हारे पापा कितने अच्छे लग रहे हैं!' और बच्चा पापा को बता देता - 'पापा-पापा, मम्मी कह रही हैं कि आप आज बहुत अच्छे लग रहे हो।' यही तरीका पति भी काम में लेता था।     शर्म तो अब भी खूब लगती है, लेकिन फेसबुक होने से तारीफ करने के लिए पति-पत्नी को अब बच्चे पर निर्भर नहीं रहना पड़ता। सामने ही बैठे पति ने जैसे ही फेसबुक में अपनी फोटो पोस्ट की तो झट से पत्नी ने अपनी फेसबुक ओपन कर, फोटो को लाइक किया और नीचे कमेंट चिपका दिया - 'Nice click, बहुत अच्छे लग रहे हो।' 

वर्ष में एक बार ही क्यों ?

     आज सुबह-सवेरे बाज़ार निकलना हुआ। सड़क पर वाहनों का लगभग जाम ही लगा हुआ था। आगे जाकर पता लगा, दो-ढाई माह से जो सड़कें टूटी-फूटी पड़ी थीं, उनकी सुध ली गई है, सुधारा जा रहा है। मन आश्वस्त हुआ कि चलो अब सड़क पर रीढ़ की हड्डी पर बिना जर्क खाए वाहन चलाया जा सकेगा, किसी के वाहन भी अब नहीं गिरेंगे।      जहाँ यह विचार चल रहां था, एक और विचार  दिमाग में उभर आया। अभी सुधारी जाने के बाद वर्षा ऋतु के उपरान्त  इन सड़कों का पुनः उद्धार किया जायगा और यह सिलसिला यथावत यूँ ही हर वर्ष चलता रहेगा। सड़क का काम करवाने वाली सरकारी/ गैरसरकारी संस्थाओं को इस तरह का यह काम वर्ष में केवल एक बार मिलता है। अब बारिश पर तो कोई वश है नहीं क्योंकि वह वार्षिक क्रम से ही आती है, लेकिन यदि सड़क-निर्माण की गुणवत्ता को थोड़ा और कमज़ोर करवा दिया जाय तो इन संस्थाओं को वर्ष में एक से अधिक बार काम मिल सकेगा। 

शौचालय का सच...???

      आज गृहकार्य-सहयोगिनी 'बाई' हमारे घर पर कुछ देरी से आई। शहर के पास ही एक ग्रामीण बस्ती में रहती है वह। मेरी धर्मपत्नी ने देरी का कारण पूछा तो वह अनमनी-सी बोली - 'कईं करूँ मैडम जी, पाणी री घणी इल्लत वेई री ए। हवारे ऊँ हेडपम री लेन म ऊबी री, जद जाअर म्हारो नंबर लाग्यो। ईं खातर  देर वेई गी' (क्या करूँ मैडम जी, पानी की बहुत दिक्कत हो रही है। सुबह से हैण्ड-पम्प पर लाइन में खड़ी रही तब जाकर मेरा नम्बर आया, इसीलिए देर हो गई )।       पानी की दिक्कत की बात सामने आने पर सशंक पत्नी ने पूछा- 'तुम लोगों ने शौचालय तो बनवाया है न ?' बाई ने कहा- 'बणवायो तो है। थोड़ी-घणी मदद बी मिल गी ही' (बनवाया तो है। कुछ मदद भी मिल गई थी )। अब मेरा ध्यान भी पूरी तरह उनकी बातों की ओर आकर्षित हो चला था। पत्नी- 'उसमें सफाई के लिए फ्लश की व्यवस्था भी करवाई है ?  फ्लश का मतलब शायद वह समझती थी, बोली '(कशो फलश अर वलश मैडम जी ) किस फ़्लश की बात कर रहे हो आप ? हमारे पानी पीने के तो लाले पड़ रहे हैं तो शौचालय में पानी कहाँ से आएगा ?' (उसकी अपनी बोली में)       और फिर तो वह श

उत्तर पूरी पुरूष जाति के पास नहीं

एक फेसबुक-मित्र द्वारा शेयर की गई एक प्रेरक कहानी---  एक अमीर आदमी की शादी एक बुद्धिमान स्त्री से हुई। अमीर हमेशा अपनी बीवी से तर्क और वाद-विवाद मेँ हार जाता था। बीवी ने कहा कि स्त्रियाँ मर्दों से कम नहीँ.. अमीर ने कहा मैँ दो वर्षो के लिये परदेश चला जाता हूँ। एक महल,बिजनेस मेँ मुनाफा और एक बच्चा पैदा करके दिखा दो। आदमी परदेश चला गया... बीवी ने सारे कर्मचारियों में ईमानदारी का बोध जगा कर मेहनत का गुण भर दिया। पगार भी बढ़ा दी। सारे कर्मचारी खुश होकर दिल लगा कर काम करने लगे। मुनाफा काफी बढ़ा... बीवी ने महल बनवा दिया.. बीवी ने दस गायें पालीं.. उनकी काफी खातिरदारी की... गायों का दूध काफी अच्छा हुआ.. दूध से दही जमा के परदेश मेँ दही बेचने चली गई वेश बदल के.. अपने पति के पास बदले वेश में दही बेचा...और रूप के मोहपाश में फँसा कर सम्बन्ध बना लिया। एक दो बार और सम्बन्ध बना के अँगूठी उपहार में लेकर घर लौट आई। बीवी एक बच्चे की माँ भी बन गई। दो साल पूरे होने पर पति घर आया। महल और शानो-शौकत देखकर पति दंग और प्रसन्न हो गया। मगर जैसे ही बीवी की गोद मेँ बच्चा देखा, क्रोध से चीख उ

भारत में महिला रक्षा मंत्री बनने के बाद...

एक फेसबुक-मित्र द्वारा शेयर की गई यह हास्य-पोस्ट बहुत अच्छी लगी, यथावत प्रस्तुत कर रहा हूँ :- महिला रक्षा मंत्री बनने के बाद भविष्य में होने वाले रक्षा सौदों के संवाद.... _*"इस टैंक में दूसरी डिजाइन है क्या ?"*_ _*"यह गोला इस तोप के साथ मैच नहीं हो रहा है।"*_ _*"इस राईफल में लटकन नहीं लगाओगे ?"*_ _*"इतने सारे गोले लिए हैं, थोड़े कारतूस फ्री नहीं दोगे ?"*_ _*"थोड़ा बाजिब लगाईये भाईसाब।"*_ _*"रुस वाले तो आप से कम भाव में दे रहे हैं।"*_ _*"हमेशा आपके यहाँ से ही लेते हैं।"*_ _*"पिछली बार कैसे गोले दिये थे, एक भी नहीं फूटा।"*_ _*"जो भी हो, बदलना तो पड़ेंगे ही।"*_ _*"इस राईफल को धोने के बाद जंग तो नहीं लगेगी ?"*_ _*"अभी नहीं लेना, बस टैंक ही देखना था."*_ _*"ये मना कर रहे हैं, राईफल वापिस ले लो."*_ _*"टैंक का कलर तो नहीं जायेगा ?"*_

डायरी के पन्नों से ..."प्रियतमे, तब अचानक..."

   विरहाकुल हृदय प्रकृति के अंक में अपने प्रेम को तलाशता है, उसी से प्रश्न करता है और उसी से उत्तर पाता है।      मन के उद्गारों को अभिव्यक्ति दी है मेरी इस कविता की पंक्तियों ने।    कविता की प्रस्तुति से पहले इसकी रचना के समय-खण्ड को भी उल्लेखित करना चाहूँगा।    मेरे अध्ययन-काल में स्कूली शिक्षा के बाद का एक वर्ष महाराजा कॉलेज, जयपुर में अध्ययन करते हुए बीता। इस खूबसूरत वर्ष में मैं प्रथम वर्ष, विज्ञान का विद्यार्थी था। इसी वर्ष मैं कॉलेज में 'हिंदी साहित्य समाज' का सचिव मनोनीत किया गया था। यह प्रथम अवसर था जब मेरे व अध्यक्ष के सम्मिलित प्रयास से हमारे कॉलेज में अंतरमहाविद्यालयीय कविता-प्रतियोगिता का आयोजन किया जा सका था। मेरा यह पूरा वर्ष साहित्यिक गतिविधियों के प्रति समर्पित रहा था और यह भी कि मेरी कुछ रचनाओं ने इसी काल में जन्म लिया था। साहित्य-आराधना के साइड एफेक्ट के रूप में मेरा परीक्षा परिणाम 'अनुत्तीर्ण' घोषित हुआ।      मुझे पूर्णतः आभास हो गया था कि अध्ययन सम्बन्धी मेरा भविष्य मुझे यहाँ नहीं मिलने वाला है अतः मैंने  जयपुर छोड़कर रीजनल कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन, अजमेर मे

डायरी के पन्नों से..."नारी की व्यथा"

      स्त्री ने त्रेता युग में सीता के रूप में तो द्वापर युग में द्रोपदी बन कर 'स्त्री' होने की पीड़ा को भोगा था और तब से अब तक कलियुग में भी भोगती चली आ रही है। हम अपने आपको कितना भी प्रगतिशील क्यों न कह लें, आज भी पुरुष की सोच नारी-जाति के प्रति संकीर्ण, स्वार्थपरक और भोगवादी है। पुत्री के जन्म पर आज भी अधिकांश माता-पिता उतने  प्रसन्न दिखाई नहीं देते जितने पुत्र के जन्म पर। सम्भवतः इसके पीछे पुत्री की सुरक्षा के प्रति आशंकित सोच ही उत्तरदायी होती है। समाज-सुधारकों के अथक प्रयासों तथा राजनेताओं के दावों / वादों के उपरान्त भी स्त्री आज भी असुरक्षित है। नारी-जीवन की पीड़ा के इसी पक्ष की झलक पाएँगे आप मेरी इस कविता 'नारी की व्यथा' में।      यह कविता मैंने अपने अध्ययनकाल में (रीजनल कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन, अजमेर में ) लिखी थी और कॉलेज के एक कार्यक्रम (कॉलेज हाउसेज़ की प्रतियोगिता ) में, जिसका मैंने सञ्चालन किया था, इसकी प्रस्तुति भी दी थी।                                                                                                    

बदन पर तीरों की बौछार...

        उफ़्फ़! कितना ह्रदय-विदारक था वह अहसास, रूह तक को कंपा देने वाला !          टैक्सास (अमेरिका ) में भयंकर तूफ़ान आया, विराट कोहली ने दोहरा शतक बनाया, बाबा राम रहीम को बलात्कार के जुर्म में बीस साल की कैद की सज़ा हो गई, यह ख़बरें अख़बार की सुर्खियाँ बन जाती हैं, लेकिन मुझे पता है मेरे साथ हुए प्राणान्तक हादसे को कोई तवज्जो नहीं देगा क्योंकि मैं एक आम आदमी हूँ, मेरी कोई पहुँच नहीं है।        तो मैं आपको बताऊँ कि मेरे साथ आज क्या गुज़री! आज सुबह जैसे ही मैं वॉशरूम में गया और नहाने के लिए नल (tap) खोला, बदन पर तीरों की बौछार पड़ी। हाँ, तीरों की बौछार ही तो थी यह क्योंकि यह सब अप्रत्याशित रूप से हुआ था। दरअसल नल का सिरा पहले से ही शॉवर वाली दिशा की तरफ था और ऑन करते ही अचानक जबरदस्त ठण्डे पानी की बौछार तीर की मानिन्द मेरे बदन पर पड़ी, वरना तो मैं धीरे-धीरे नहाने की ओर कदम बढ़ाता।...काँप उठी थी मेरी आत्मा !       तीन दिन से लगातार हो रही बारिश के चलते छत की टंकी का पानी बर्फ़ीला हो चला था और ऐसे बर्फ़ीले ठण्डे पानी से नहाने की पीड़ा वही जान सकता है जिसने इसे भुगता हो। पिछले एक सप्ताह से गीज़