सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

अहंकार क्यों झलकने लगता है?

    सन् 2016 में रियो डि जेनेरियो में ग्रीष्मकालीन ओलम्पिक में बैडमिंटन के फाइनल में अपने जीवट खेल के बावजूद भी स्पेन की कैरोलिना मैरिन से हारने के बाद भारतीय स्टार खिलाड़ी पी.वी.सिन्धु ने 
प्रसन्नता के अतिरेक में फर्श पर बैठ कर रो रही मेरिन को जिस आत्मीयता से अपने आलिंगन में ले लिया था, वह दृश्य भुलाने लायक कतई नहीं था। जिस किसी ने भी वह दृश्य देखा होगा, सिन्धु के उस खेल-भावना से ओत-प्रोत आत्मीय व्यवहार पर मर-मिटा होगा। मैंने भी वह दृश्य देखा था मैच देखने के साथ ही और अभिभूत हो उठा था। 
    मैं अपने इस आलेख के साथ अख़बार से लिया गया जो वाकया यहाँ पेश कर रहा हूँ उसमें सिन्धु का जो व्यक्तित्व दिख रहा है वह उपरोक्त वर्णित घटना वाली भावुक व शालीन 'सिन्धु' से कतई मेल नहीं खाता। हवाई सेवा के एक कर्मचारी की कर्तव्यनिष्ठा पर सिन्धु का असंगत व्यवहार भारी क्यों पड़ना चाहिए? उस पर तुर्रा यह कि इसे उस कर्मचारी का दुर्व्यवहार मान लिया गया। चित्र में सिन्धु के तेवर ही बताते हैं कि उसकी अनुचित मांग का विरोध उसे कितना उत्तेजित कर गया था! 
    प्रसिद्धि और लोकप्रियता हासिल करने के बाद मनुष्य यदि अपनी विवेकशीलता और विनम्रता खो दे तो क्या उसके व्यक्तित्व की गरिमा धूमिल नहीं हो जाएगी? 
    मुझे स्मरण हो आता है पूर्व में घटित ऐसी ही एक घटना का, जिसमें महाराष्ट्र के एक माननीय (?) ने हवाई सेवाकर्मी के साथ मारपीट तक कर डाली थी।    
    एक जीवन्त प्रश्न है कि बड़ा पद या प्रतिष्ठा पाकर व्यक्ति के आचरण में गरिमा की बजाय अहंकार क्यों झलकने लगता  है? क्यों नहीं वह समझ पाता कि उसका ऐसा आचरण उसके ही सम्मान को क्षीण कर देता है? 




टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

तन्हाई (ग़ज़ल)

मेरी एक नई पेशकश दोस्तों --- मौसम बेरहम देखे, दरख्त फिर भी ज़िन्दा है, बदन इसका मगर कुछ खोखला हो गया है।   बहार  आएगी  कभी,  ये  भरोसा  नहीं  रहा, पतझड़ का आलम  बहुत लम्बा हो गया है।   रहनुमाई बागवां की, अब कुछ करे तो करे, सब्र  का  सिलसिला  बेइन्तहां  हो  गया  है।    या तो मैं हूँ, या फिर मेरी  ख़ामोशी  है यहाँ, सूना - सूना  सा  मेरा  जहां  हो  गया  है।  यूँ  तो उनकी  महफ़िल में  रौनक़ बहुत है, 'हृदयेश' लेकिन फिर भी तन्हा  हो गया है।                          *****  

बेटी (कहानी)

  “अरे राधिका, तुम अभी तक अपने घर नहीं गईं?” घर की बुज़ुर्ग महिला ने बरामदे में आ कर राधिका से पूछा। राधिका इस घर में झाड़ू-पौंछा व बर्तन मांजने का काम करती थी।  “जी माँजी, बस निकल ही रही हूँ। आज बर्तन कुछ ज़्यादा थे और सिर में दर्द भी हो रहा था, सो थोड़ी देर लग गई।” -राधिका ने अपने हाथ के आखिरी बर्तन को धो कर टोकरी में रखते हुए जवाब दिया।  “अरे, तो पहले क्यों नहीं बताया। मैं तुमसे कुछ ज़रूरी बर्तन ही मंजवा लेती। बाकी के बर्तन कल मंज जाते।” “कोई बात नहीं, अब तो काम हो ही गया है। जाती हूँ अब।”- राधिका खड़े हो कर अपने कपडे ठीक करते हुए बोली। अपने काम से राधिका ने इस परिवार के लोगों में अपनी अच्छी साख बना ली थी और बदले में उसे उनसे अच्छा बर्ताव मिल रहा था। इस घर में काम करने के अलावा वह प्राइमरी के कुछ बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाती थी। ट्यूशन पढ़ने बच्चे उसके घर आते थे और उनके आने का समय हो रहा था, अतः राधिका तेज़ क़दमों से घर की ओर चल दी। चार माह की गर्भवती राधिका असीमपुर की घनी बस्ती के एक मकान में छोटे-छोटे दो कमरों में किराये पर रहती थी। मकान-मालकिन श्यामा देवी एक धर्मप्राण, नेक महिल...

"ऐसा क्यों" (लघुकथा)

                                   “Mother’s day” के नाम से मनाये जा रहे इस पुनीत पर्व पर मेरी यह अति-लघु लघुकथा समर्पित है समस्त माताओं को और विशेष रूप से उन बालिकाओं को जो क्रूर हैवानों की हवस का शिकार हो कर कभी माँ नहीं बन पाईं, असमय ही काल-कवलित हो गईं। ‘ऐसा क्यों’ आकाश में उड़ रही दो चीलों में से एक जो भूख से बिलबिला रही थी, धरती पर पड़े मानव-शरीर के कुछ लोथड़ों को देख कर नीचे लपकी। उन लोथड़ों के निकट पहुँचने पर उन्हें छुए बिना ही वह वापस अपनी मित्र चील के पास आकाश में लौट आई। मित्र चील ने पूछा- “क्या हुआ,  तुमने कुछ खाया क्यों नहीं ?” “वह खाने योग्य नहीं था।”- पहली चील ने जवाब दिया। “ऐसा क्यों?” “मांस के वह लोथड़े किसी बलात्कारी के शरीर के थे।” -उस चील की आँखों में घृणा थी।              **********