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अप्रैल, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

'क्या पुरुष स्वभावतः क्रूर है?'

                                          इन दिनों कतिपय लेखिकाओं की कुछ ऐसी रचनाओं की बाढ़-सी आ गई है जिनसे प्रतीत होता है जैसे  महिला-वर्ग एक सर्वहारा वर्ग है। अधिकांश रचनाओं में उन्हें शोषित व पुरुष-वर्ग को शोषक के रूप में प्रक्षेपित किया जा रहा है। उन रचनाओं को पढता हूँ, किन्तु कितना भी अच्छा लिखा गया हो, यथासम्भव अपनी टिप्पणी देने से परहेज करता हूँ। उन रचनाओं को पढ़ कर ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि महिलाओं के सभी कष्टों का मूल पुरुष मात्र है। कुछ लेखिकाएँ निरन्तर किसी प्रताड़ित महिला के संपर्क में रही हों, ऐसा भी सम्भव है। उन रचनाओं में स्त्रियों को निरीह गाय व पुरुषों को क्रूर भेड़िये का प्रतीक बना दिया जाता है। कहीं-कहीं तो उनमें आक्रोश इस कदर नज़र आता है जैसे स्त्रियों को पुरुष का वज़ूद ही स्वीकार्य न हो। मन व्यथित हो उठता है यह सब देख कर!    हमें मनन करना होगा कि क्या सच में ही पुरुष स्वभाव से इतना आक्रान्ता है?    स्त्री विधाता की सर्वश्रेष्ठ रचना है, पुरुष के सहयोग से जीवन की उत्पत्ति की कारक है, वाहक है। अपने हर रूप में वह स्नेह व प्रेम के साथ ही शक्ति का अजस्र स्रोत है। वह स्वयं को

'रात्रि-कर्फ्यू'

                                                                      हमारे देश के कुछ प्रांतों के कुछ शहरों में कोरोना में हो रही बढ़ोतरी के कारण रात्रि का कर्फ्यू लगाया गया है। नहीं समझ में आ रहा कि रात्रि-कर्फ्यू का औचित्य क्या है? अब कर्फ्यू है तो आधी रात को बाहर जा कर देख भी तो नहीं सकते कि कौन-कौन सी दुकानें, सब्जी मंडियाँ व सिनेमा हॉल रात-भर खुले रहने लगे हैं या फिर लोग झुण्ड बना कर सड़कों पर कीर्तन कर रहे हैं। सरकार या प्रशासन, कोई भी जनता को इस रात्रि-कर्फ्यू का औचित्य या उपयोगिता नहीं बता रहा है।     जैसा कि टीवी में देखते हैं, दिन के समय पूरे देश में सड़कों पर, सब्जी मंडियों में और बाज़ारों में लोगों की रेलमपेल लगी रहती है। न तो लोगों के मध्य दो गज की दूरी होती है और न हर शख़्स ने मास्क पहना हुआ होता है। प्रशासन यह देख नहीं पाता, इसे रोक नहीं पाता। प्रशासन को लगता है, हमारे देश की जनता समझदार है, स्व-अनुशासित है। प्रशासन की इसमें शायद कोई ग़लती नहीं है क्योंकि यह देखने के लिए कि कोई कर्फ्यू तोड़ तो नहीं रहा है, वह रात को जागता है, परिणामतः दिन में उसे सोना पड़ता है। दिन-प्रतिदिन कोर

'गीता-ज्ञान' (लघुकथा)

                                                तीन दिन पहले की ही बात है, जब मैंने गुरुवार को सुबह-सुबह चाय पीते वक्त अख़बार में चन्द्र  प्रकाश के बेटे अवधेश का चयन राजस्थान की रणजी टीम में हो जाने की खबर पढ़ी थी। मुझे यह तो पता था कि अवधेश क्रिकेट का बहुत अच्छा खिलाड़ी है, किन्तु प्रतिस्पर्धा व वर्तमान सिफारिशी दौर में बिना लाग-लपेट वाले किसी बन्दे का चयन हो जाना इतना सहज भी नहीं होता। चंद्र प्रकाश एक निहायत सज्जन किस्म का व्यक्ति है और उसका बेटा अवधेश भी खेलने के अलावा क्रिकेट-राजनीति से कोई वास्ता नहीं रखता था, अत; उसका चयन मेरे लिए आश्चर्य का कारण बन रहा था। बहरहाल उसका चयन हुआ है, यह तो सच था ही, सो मैंने चाय के बाद फोन कर के बाप-बेटा दोनों को बधाई दे दी थी।    फोन पर तो उन्हें बधाई दे दी थी, किन्तु मैं चन्दर (चंद्र प्रकाश को मैं 'चन्दर' कहता हूँ😊) के चेहरे पर ख़ुशी की रेखाएँ देखने को आतुर था। ख़ुशी में जब वह मुस्कराता है, तो बहुत अच्छा लगता है। सोचा- 'आज चन्दर के घर जा कर एक बार और बधाई दे आता हूँ, कई दिनों से मिलना नहीं हुआ है तो मिलना भी हो जाएगा और गप-शप भी हो जाएगी।