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डायरी के पन्नों से..."मेरे आँगन में धूप नहीं आती..."

     समर्पित है मेरी यह कविता, CRPF के उन वीर जवानों को जो पुलवामा (कश्मीर) में  कुछ गद्दारों व आतंककारियों के कुचक्र की चपेट में आकर  काल-कवलित हो गये , जो चले गए यह कसक लेकर कि काश, जाने से पहले दस गुना पापियों को ऊपर पहुँचा पाते ! 'मेरे आँगन में धूप नहीं आती...'     मेरे आँगन के छोटे-बड़े पौधे जिन्हें लगाया है पल्लवित किया है  मेरे परिवार ने, बड़े जतन से, जो दे रहे हैं  मुझे जीवन। चिन्ताविहीन हूँ  कि वह जी रहे हैं  मेरे लिए।  वह जी रहे हैं मेरे लिए, पर उन्हें भी तो चाहिए  मेरा  प्यार, दुलार  और संरक्षण।  मैं नहीं दे रहा जो उन्हें चाहिए                मुझे तो   बस उन्हीं से चाहिए,                              अपेक्षा है  तो उन्हीं से।  अपनी पंगुता पर, अपनी विवशता पर झुंझलाता हूँ जब, तो  दोषी ठहराता हूँ  दूर गगन के  बादलों को।  हाँ,  दोषी हैं वह भी, ढँक लेते हैं  सूरज को और  नहीं मिल पाती धूप, मेरे आँगन के पौधों को।  कुम्हला जाते हैं मेरे पौधे, गिर जाते हैं कभी-कभी  सूख कर धरती पर। मेरी नज़र

उफ्फ्फ!...

       मेरे देश का एक जवान देश के पचास दुश्मनों को जमींदोज़ करने की ताक़त रखता है, लेकिन कल पाकिस्तान समर्थित जैश-ए -मोहम्मद के एक नापाक आतंककारी आदिल अहमद के आत्मघाती हमले के कारण हमारे चालीस से अधिक जवानों की जान निरर्थक चली गई। दोज़ख के कीड़े आदिल ने कश्मीर के पुलवामा में CRPF के 2500 जवानों के 70 बसों के काफिले में चल रही एक बस से विस्फोटकों से भरी एक गाडी भिड़ा कर इस हादसे को अंजाम दिया। सड़क और उसके आस-पास का क्षेत्र लाशों के चिथड़ों से पट गया।    उफ्फ्फ!...     हमारी आन्तरिक सुरक्षा प्रणाली को किस दीमक ने खा लिया है? आखिर कोई तो है देशद्रोही, जिसने इस आतंककारी को मदद की है। शहीद जवानों के परिजनों के आँसुओं के दोषी हम भी तो हैं।      बहुत जल्दबाज़ी होगी अगर हम कहें कि देश के कर्णधार खामोश बैठे हैं, लेकिन अब तक का इन राजनेताओं का इतिहास तो यही रहा है कि ऐसी ह्रदय-विदारक घटनायें होने पर घड़ियाली आंसू बहाने के उपरान्त यह लोग निर्लज्ज चुप्पी साध लेते हैं। कुछ राजनेता इस बार भी आँखें लाल कर रहे हैं, मूंछों पर ताव दे कर हुंकार भी भर रहे हैं, बार-बार यह भी कह रहे हैं कि जवानों की इस आ

नज़रिया ( कहानी)

    प्रथमेश शनिवार को हाफ डे की ड्यूटी कर जैसे ही ऑफिस से घर आया, बेटे अनमोल व बेटी रुचिता ने मूवी देखने थिएटर जाने की फरमाइश कर दी। प्रथमेश ने समझाया कि कल रविवार है, कल चलेंगे, पर दोनों बच्चों ने ज़िद पकड़ ली कि नहीं, मूवी तो आज और अभी ही देखेंगे। गर्मी का मौसम था, अभी ढ़ाई बज रहे थे, बाहर धूप भी तेज थी पर बच्चों के आगे तो माता-पिता को झुकना ही पड़ता है सो आकांक्षा ने पति से आग्रह किया- "बच्चे कह रहे हैं तो मान जाओ न, 'रोज़ थिएटर' में मूवी भी अच्छी लगी है। अभी फर्स्ट शो में भीड़ भी कम होगी। मूवी देखने के बाद डिनर भी बाहर ही ले लेंगे।" "अच्छा भई, जब सारी जनता की एक ही आवाज़ है तो अकेला यह बन्दा क्या कर सकता है! चलो, चलते हैं।" थिएटर पहुँचे तो बला की भीड़ थी। तीन बज रहे थे, मूवी का समय हो चुका था। लाइन में लग कर टिकिट मिलना मुश्किल था, अतः आपस में विचार-विमर्श करने लगे कि शाम के शो में आ जायेंगे। लौटने लगे तो अनमोल उदास हो गया। सब लोग लौटने वाले ही थे कि 'पान्सो में बालकनी , पान्सो में बालकनी...' -किसी ब्लेकिये की हाँक सुनाई दी। आकांक्षा ने सुझाव दिया