सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

उफ्फ्फ!...




       मेरे देश का एक जवान देश के पचास दुश्मनों को जमींदोज़ करने की ताक़त रखता है, लेकिन कल पाकिस्तान समर्थित जैश-ए -मोहम्मद के एक नापाक आतंककारी आदिल अहमद के आत्मघाती हमले के कारण हमारे चालीस से अधिक जवानों की जान निरर्थक चली गई। दोज़ख के कीड़े आदिल ने कश्मीर के पुलवामा में CRPF के 2500 जवानों के 70 बसों के काफिले में चल रही एक बस से विस्फोटकों से भरी एक गाडी भिड़ा कर इस हादसे को अंजाम दिया। सड़क और उसके आस-पास का क्षेत्र लाशों के चिथड़ों से पट गया।    उफ्फ्फ!...
    हमारी आन्तरिक सुरक्षा प्रणाली को किस दीमक ने खा लिया है? आखिर कोई तो है देशद्रोही, जिसने इस आतंककारी को मदद की है। शहीद जवानों के परिजनों के आँसुओं के दोषी हम भी तो हैं।

Image result for images for stop terrorism

     बहुत जल्दबाज़ी होगी अगर हम कहें कि देश के कर्णधार खामोश बैठे हैं, लेकिन अब तक का इन राजनेताओं का इतिहास तो यही रहा है कि ऐसी ह्रदय-विदारक घटनायें होने पर घड़ियाली आंसू बहाने के उपरान्त यह लोग निर्लज्ज चुप्पी साध लेते हैं। कुछ राजनेता इस बार भी आँखें लाल कर रहे हैं, मूंछों पर ताव दे कर हुंकार भी भर रहे हैं, बार-बार यह भी कह रहे हैं कि जवानों की इस आकस्मिक सामूहिक हत्या का माकूल जवाब दिया जायगा, लेकिन देखना है कि आगे क्या होता है!
    विपक्ष में बैठे नेता भी आक्रोश दिखाने के साथ सत्ताधारी नेताओं की अकर्मण्यता को कोस रहे हैं। और करेंगे भी क्या यह लोग, यदि सत्ता में होते तो भी क्या कर लेते, वही तो करते जो वर्तमान सत्ताधारी कर रहे हैं।
     देश का खून उबल रहा है, जनता सड़कों पर आकर इस घटना के लिए ज़िम्मेदार पाकिस्तान के ख़िलाफ़ नारे लगा रही है। शहीद जवानों के असंख्य साथियों की भुजाएं फड़क रही हैं, उनकी राइफलें कहर बरपाने को तैयार हैं, कोई उनके हाथ पर बंधी परवशता की जंजीरें खोल तो दे!
    देश का एक-एक वाशिंदा इस भीषण हत्याकाण्ड से आहत आँसू बहा रहा है, लेकिन ज़मीन पर गिरने वाले हर आँसू के साथ यह संकल्प भी जन्म ले कि जिस तरह कश्मीरी ब्राह्मणों को कश्मीर से निर्वासित हो कर अन्य राज्यों में शरण लेनी पड़ी, उसी तरह से आतंककारियों और उनके स्थानीय आकाओं को या तो ज़मींदोज़ कर दिया जाय या कम से कम कश्मीर से, भारत की भूमि से खदेड़ बाहर किया जाये। इस संकल्प को फलीभूत करने के लिए जनता सरकार को बाध्य करे उसी तरह सड़कों पर उतर कर जैसे आज शोक मनाने के लिए उतरी है।
     निरीह जनता व इसकी रक्षा के लिए मुस्तैद जवान कब तक इन रक्तबीजी आतंककारियों की दुर्दान्त कारगुजारियों की भेट चढ़ते रहेंगे? क्या कोई राजनैतिक या सामरिक समाधान इस समस्या को कभी मिल सकेगा ? यदि दोनों ही प्रावधान देश की राजगद्दी पर बैठे नेताओं के बस के नहीं हैं तो क्या वह लोग केवल और केवल सुरसा के मुख को लजाने वाले वेतन-भत्तों का उपभोग करने के लिए ही सता में हैं? महाभारत के परिपेक्ष्य में महाकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' का युद्ध-घोष के लिए आह्वान पाकिस्तान के विरुद्ध आज के लिए पूर्णतः सामयिक है-
       "हित-वचन नहीं तूने माना,मैत्री का मूल्य न पहचाना,
       तो ले मैं भी अब जाता हूँ, अंतिम संकल्प सुनाता हूँ।
 
       याचना नहीं, अब रण होगा,जीवन-जय कि मरण होगा।
       फण शेषनाग का डोलेगा, विकराल काल मुँह खोलेगा।

       दुर्योधन! रण ऐसा होगा, फिर कभी नहीं जैसा होगा।"

     कुछ करो, नहीं तो, देश के धनानन्दों! मदान्ध धनानन्द के पास केवल एक मगध की सत्ता थी लेकिन तुम्हारे पास तो सम्पूर्ण भारत की सत्ता है। सत्ता भोगो और ऐश करो, अभी न तो चाणक्य है और न उसके द्वारा प्रशिक्षित कोई चन्द्रगुप्त!
    देखना बस यही है कि जनता की तीसरी आँख कब खुलती है!
 

                                                ***********************



टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

"ऐसा क्यों" (लघुकथा)

                                   “Mother’s day” के नाम से मनाये जा रहे इस पुनीत पर्व पर मेरी यह अति-लघु लघुकथा समर्पित है समस्त माताओं को और विशेष रूप से उन बालिकाओं को जो क्रूर हैवानों की हवस का शिकार हो कर कभी माँ नहीं बन पाईं, असमय ही काल-कवलित हो गईं। ‘ऐसा क्यों’ आकाश में उड़ रही दो चीलों में से एक जो भूख से बिलबिला रही थी, धरती पर पड़े मानव-शरीर के कुछ लोथड़ों को देख कर नीचे लपकी। उन लोथड़ों के निकट पहुँचने पर उन्हें छुए बिना ही वह वापस अपनी मित्र चील के पास आकाश में लौट आई। मित्र चील ने पूछा- “क्या हुआ,  तुमने कुछ खाया क्यों नहीं ?” “वह खाने योग्य नहीं था।”- पहली चील ने जवाब दिया। “ऐसा क्यों?” “मांस के वह लोथड़े किसी बलात्कारी के शरीर के थे।” -उस चील की आँखों में घृणा थी।              **********

व्यामोह (कहानी)

                                          (1) पहाड़ियों से घिरे हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में एक छोटा सा, खूबसूरत और मशहूर गांव है ' मलाणा ' । कहा जाता है कि दुनिया को सबसे पहला लोकतंत्र वहीं से मिला था। उस गाँव में दो बहनें, माया और विभा रहती थीं। अपने पिता को अपने बचपन में ही खो चुकी दोनों बहनों को माँ सुनीता ने बहुत लाड़-प्यार से पाला था। आर्थिक रूप से सक्षम परिवार की सदस्य होने के कारण दोनों बहनों को अभी तक किसी भी प्रकार के अभाव से रूबरू नहीं होना पड़ा था। । गाँव में दोनों बहनें सबके आकर्षण का केंद्र थीं। शान्त स्वभाव की अठारह वर्षीया माया अपनी अद्भुत सुंदरता और दीप्तिमान मुस्कान के लिए जानी जाती थी, जबकि माया से दो वर्ष छोटी, किसी भी चुनौती से पीछे नहीं हटने वाली विभा चंचलता का पर्याय थी। रात और दिन की तरह दोनों भिन्न थीं, लेकिन उनका बंधन अटूट था। जीवन्तता से भरी-पूरी माया की हँसी गाँव वालों के कानों में संगीत की तरह गूंजती थी। गाँव में सबकी चहेती युवतियाँ थीं वह दोनों। उनकी सर्वप्रियता इसलिए भी थी कि पढ़ने-लिखने में भी वह अपने सहपाठियों से दो कदम आगे रहती थीं।  इस छोटे

पुरानी हवेली (कहानी)

   जहाँ तक मुझे स्मरण है, यह मेरी चौथी भुतहा (हॉरर) कहानी है। भुतहा विषय मेरी रुचि के अनुकूल नहीं है, किन्तु एक पाठक-वर्ग की पसंद मुझे कभी-कभार इस ओर प्रेरित करती है। अतः उस विशेष पाठक-वर्ग की पसंद का सम्मान करते हुए मैं अपनी यह कहानी 'पुरानी हवेली' प्रस्तुत कर रहा हूँ। पुरानी हवेली                                                     मान्या रात को सोने का प्रयास कर रही थी कि उसकी दीदी चन्द्रकला उसके कमरे में आ कर पलंग पर उसके पास बैठ गई। चन्द्रकला अपनी छोटी बहन को बहुत प्यार करती थी और अक्सर रात को उसके सिरहाने के पास आ कर बैठ जाती थी। वह मान्या से कुछ देर बात करती, उसका सिर सहलाती और फिर उसे नींद आ जाने के बाद उठ कर चली जाती थी।  मान्या दक्षिण दिशा वाली सड़क के अन्तिम छोर पर स्थित पुरानी हवेली को देखना चाहती थी। ऐसी अफवाह थी कि इसमें भूतों का साया है। रात के वक्त उस हवेली के अंदर से आती अजीब आवाज़ों, टिमटिमाती रोशनी और चलती हुई आकृतियों की कहानियाँ उसने अपनी सहेली के मुँह से सुनी थीं। आज उसने अपनी दीदी से इसी बारे में बात की- “जीजी, उस हवेली का क्या रहस्य है? कई दिनों से सुन रह