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डायरी के पन्नों से ..."स्वतंत्रता-दिवस...(?)"

          15अगस्त का पावन दिवस- हमें अंग्रेजों की दासता से मुक्ति मिल गई सन् 1947 में, हम स्वाधीन हो गए। लेकिन ... लेकिन क्या हम सच में स्वतन्त्र  हैं ?        हम आज भी स्वतन्त्र नहीं हैं, आज भी हमारे कई भाई-बहिन आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में परतन्त्र हैं। आज भी सफ़ेदपोश एक बड़ा तबका आम आदमी का रहनुमा बना हुआ है। देशी अंग्रेजों की हुकूमत आज भी अभावग्रस्त लोगों को त्रस्त कर रही है।       सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले, मेरी कविता के नायक 'मंगू' की वेदना को मैंने कविता लिखते वक़्त महसूसा है, अब...अब आप भी महसूस करना चाहेंगे न इस अहसास को ?         ( मेरी यह कविता पांच वर्ष पूर्व आकाशवाणी, उदयपुर से प्रसारित हुई थी। )                                                                                                               *********                        

जय माँ शारदे! (स्तुति)

     'बसन्त पञ्चमी' के पुनीत पर्व पर मैं अपने शब्द-पुष्पों से सृजित "सरस्वती वन्दना" अपने प्रिय मित्रों व अन्य सुधि पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ :-                                                                                                                          *****

डायरी के पन्नों से ..."प्रियतमे, तब अचानक..." (कविता)

     विरहाकुल हृदय प्रकृति के अंक में अपने प्रेम को तलाशता है, उसी से प्रश्न करता है और उसी से उत्तर पाता है।     मन के उद्गारों को अभिव्यक्ति दी है मेरी इस कविता की पंक्तियों ने।    कविता की प्रस्तुति से पहले इसकी रचना के समय-खण्ड को भी उल्लेखित करना चाहूँगा।    मेरे अध्ययन-काल में स्कूली शिक्षा के बाद का एक वर्ष महाराजा कॉलेज, जयपुर में अध्ययन करते हुए बीता। इस खूबसूरत वर्ष में मैं प्रथम वर्ष, विज्ञान का विद्यार्थी था। इसी वर्ष मैं कॉलेज में 'हिंदी साहित्य समाज' का सचिव मनोनीत किया गया था। यह प्रथम अवसर था जब मेरे व अध्यक्ष के सम्मिलित प्रयास से हमारे कॉलेज में अंतरमहाविद्यालयीय कविता-प्रतियोगिता का आयोजन किया जा सका था। मेरा यह पूरा वर्ष साहित्यिक गतिविधियों के प्रति समर्पित रहा था और यह भी कि मेरी कुछ रचनाओं ने इसी काल में जन्म लिया था। साहित्य-आराधना के साइड एफेक्ट के रूप में मेरा परीक्षा परिणाम 'अनुत्तीर्ण' घोषित हुआ।      मुझे पूर्णतः आभास हो गया था कि अध्ययन सम्बन्धी मेरा भविष्य मुझे यहाँ नहीं मिलने वाला है अतः मैंने  जयपुर छोड़कर रीजनल कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन, अजमेर मे

'सागर और सरिता'

स्नेही पाठकों, प्रस्तुत है मेरे अध्ययन-काल की एक और रचना--- सागर-सरिता संवाद सागर-  कौन हो तुम, आई कहाँ से? ह्रदय-पटल पर छाई हो।  कहो, कौन अपराध हुआ,  इस तपसी को भाई हो।।   गति में थिरकन, मादक यौवन, प्रणय की प्रथम अंगड़ाई हो। मेरे एकाकी जीवन में, तुम ही तो मुस्काई हो।।  तुम छलना हो, नारी हो, प्रश्वासों में है स्पंदन।  कहो, चाह क्या मुझसे भद्रे, दे सकता क्या मैं अकिंचन? सरिता- तुम्हारे पवन चरणों की रज, मुझे यथेष्ट है प्रियतम।  मुझको केवल प्रेम चाहिए, तन की प्यास नहीं प्रियतम।।  तुम ही से जीवन है मेरा, होता संशय क्यों प्रणेश? प्रकृति का नियम है यह तो, हमारा मिलान औ’ हृदयेश।।  *******  

'तुम्हारे अधरों की मदिरा'

     ह्रदय में कुछ भाव उमड़े, भावों ने शब्दों का रूप लिया और अन्ततः इस कविता ने जन्म लिया। प्रस्तुत कर रहा हूँ अपने रस-मर्मज्ञ, स्नेही पाठकों के लिए... ! तुम आओ तो ...                           ठुकरा दे गर कोई अपना, तुम किञ्चित ना घबराना, पथ भूल न जाना मेरा तुम, मेरे पास चली आना, बस जाना मेरी आँखों में, पलकों की सेज बिछा दूँगा, तुम आओ तो! दुनिया रोके मेरी राहें, चाहे उल्टी घड़ियाँ हों, जंजीर पड़ी हो पांवों में, हाथों में हथकड़ियां हों, सारे बंधन तोडूँगा मैं, बाधा हर एक मिटा दूँगा, तुम आओ तो! प्यासी हो धरती कितनी भी, छाती उसकी तपती हो, आसमान से शोले बन कर, चाहे आग बरसती हो, मौसम हो पतझड़ का तो भी, मैं दिल को चमन बना दूँगा, तुम आओ तो! वसन कभी जो काटें तन को, हृदय कभी जो घबराये, आभूषण भी बोझ लगें जब, मन उनसे भी कतराए, मैं सूरज, चांद, सितारों से, तुम्हारे अंग सजा दूँगा, तुम आओ तो! जब तन में, मन में हो भटकन, सखियों से मन ना बहले, जब डगमग पाँव लगें होने, यौवन तुमसे न सम्हले, तुम्हारे अधरों की मदिरा, मैं अपने होठ लगा लूँगा, तुम आओ तो!                   *********

डायरी के पन्नों से..."मेरे आँगन में धूप नहीं आती..."

     समर्पित है मेरी यह कविता, CRPF के उन वीर जवानों को जो पुलवामा (कश्मीर) में  कुछ गद्दारों व आतंककारियों के कुचक्र की चपेट में आकर  काल-कवलित हो गये , जो चले गए यह कसक लेकर कि काश, जाने से पहले दस गुना पापियों को ऊपर पहुँचा पाते ! 'मेरे आँगन में धूप नहीं आती...'     मेरे आँगन के छोटे-बड़े पौधे जिन्हें लगाया है पल्लवित किया है  मेरे परिवार ने, बड़े जतन से, जो दे रहे हैं  मुझे जीवन। चिन्ताविहीन हूँ  कि वह जी रहे हैं  मेरे लिए।  वह जी रहे हैं मेरे लिए, पर उन्हें भी तो चाहिए  मेरा  प्यार, दुलार  और संरक्षण।  मैं नहीं दे रहा जो उन्हें चाहिए                मुझे तो   बस उन्हीं से चाहिए,                              अपेक्षा है  तो उन्हीं से।  अपनी पंगुता पर, अपनी विवशता पर झुंझलाता हूँ जब, तो  दोषी ठहराता हूँ  दूर गगन के  बादलों को।  हाँ,  दोषी हैं वह भी, ढँक लेते हैं  सूरज को और  नहीं मिल पाती धूप, मेरे आँगन के पौधों को।  कुम्हला जाते हैं मेरे पौधे, गिर जाते हैं कभी-कभी  सूख कर धरती पर। मेरी नज़र

डायरी के पन्नों से ... "सिमटी-सी वह खड़ी धरा पर..."

    मेरे देश के कुछ अहिन्दीभाषी क्षेत्रों में किसी हिन्दीभाषी व्यक्ति को ढूंढ पाना बहुत मुश्किल हो जाता है, जबकि हिन्दी हमारी मातृभाषा है। पूर्णतः वैज्ञानिक, तार्किक एवं साहित्यिक समृद्धि से परिपूर्ण हमारी हिंदी भाषा हमारे ही देश में इस तरह तिरस्कृत हो रही है, इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है! वहीं, यह बात कुछ सांत्वना देने वाली है कि अभी हाल के दिनों में 'हिन्दी' के प्रति रुझान बढ़ाने हेतु इसके प्रचार-प्रसार का उच्चतम प्रयास सरकारी स्तर पर किया जा रहा है।      आज खुशनुमा दिन है, आज 'हिन्दी-दिवस' है!      मेरे महाविद्यालयीय अध्ययन के प्रारम्भिक काल में मेरे द्वारा लिखी गई यह कविता आज यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ---                          ---०००---        सिमटी-सी वह खड़ी धरा पर                   मानो  चाँद  उतर आया।      पतझड़  मानो  बीत  चला हो,                   नया बसंत निखर आया।      या   ऊषा   ने   ली   अंगडाई,                   नया प्रभात उभर आया।      नदिया कोई  उमड़  पड़ी या                   झरना  कोई  झर आया।      परी  एक  उतरी  नभ स

डायरी के पन्नों से ... "आधुनिक मित्र" (हास्य कविता)

रीजनल कॉलेज, अजमेर में प्रथम वर्ष के अध्ययन-काल में लिखी गई मेरी इस हल्की-फुल्की हास्य कविता को उस समय के मेरे साथियों-परिचितों ने बहुत सराहा था। प्रस्तुत कर रहा हूँ इस कविता को आप सब के लिए---                "आधुनिक मित्र" सोचा  मैंने  मिलूँ  मित्र से, मौसम  बड़ा  सुहाना  था। कृष्ण-सुदामा के ही जैसा, रिश्ता  बड़ा  पुराना  था। मज़ा लिया तफरी का मैंने, टैक्सी को  रुपया दे कर। भौंहें उसकी चढ़ी हुई थीं, जब पहुंचा मैं उसके घर। मैंने समझा उन साहब को मेरा  आना  अखरा  था। पर उनके गुस्से का कारण, एक  जनाना  बकरा  था। पूछा मैंने जरा सहम कर. 'हो  उदास  कैसे  भाई ?' जरा तुनककर वह भी बोला, 'आफत अच्छी  घर आई।' चौंक पड़ा मैं, बोला उससे, 'अमां यार, क्या बकते हो! अरसे से मिलने आया हूँ, मुझको आफत कहते हो!' तब वह बोला थोड़ा हँसकर, 'तुम  यार,  बड़े  भोले  हो। बस  उल्लू के पट्ठे  हो  या, कुछ  दिमाग़  के पोले  हो। मेरी बकरी ही आफत है, बस  घाटे  का  सौदा  है। दस रुपये कुछ पैसे देकर, मैंने   उसे    ख़रीदा   है। दूध छटांक दिया करती है, द

डायरी के पन्नों से ..."बोलो वह कौन जुआरी है?"

       रीजनल कॉलेज ऑफ एजुकेशन, अजमेर में तृतीय वर्ष के अध्ययन के दौरान लिखी गई यह कविता भी स्नेही पाठकों को अवश्य पसंद आएगी, ऐसा मानता हूँ।      प्रिय पाठक-बंधुओं! प्रारम्भिक रूप से इस कविता के छः छन्द मैंने लिखे थे। कॉलेज के एक समारोह में मुझे कविता-पाठ करना था और मैं यह कविता पढने के लिए हॉल में पहली पंक्ति में बैठा अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहा था। तभी मेरी नज़र दायीं पंक्ति में बैठी मेरी एक जूनियर 'वसुधा टीके' पर पड़ी। इस समारोह में कुछ लड़कियां साड़ी पहन कर आई थीं, उनमें से एक वसुधा भी थी। वसुधा हरे रंग की साड़ी में बहुत सुन्दर लग रही थी। मेरे कवि-मन में शरारत के कीड़े कुलबुलाये और मैंने अपनी कविता में एक आशुरचित (तुरत रचा गया) छन्द और जोड़ दिया। नाम पुकारे जाने पर मैंने स्टेज पर जाकर यह कविता सुनाई।   अब मैं अकेला खुराफाती तो था नहीं कॉलेज में, सो वसुधा से जुड़ा छन्द आते ही आगे-पीछे के कई साथी छात्र-छात्राओं की ठहाका भरी निगाहें वसुधा पर जम गईं और वसुधा थी कि शर्म से पानी-पानी! सच मानिए, वसुधा फिर भी मुझ पर नाराज़ नहीं हुई, बहुत भली लड़की थी वह!   (नोट :- आशुरचित छन्द को गहरे

डायरी के पन्नों से ... शौर्य-गान- "यह कश्मीर हमारा है"

    देश  के दुश्मनों के विरुद्ध आह्वान है मेरा देश के हर नौनिहाल से, क्योंकि दिन-ब-दिन सीमा पर जान गंवाने वाले शहीदों का लहू मुझे उद्वेलित करता है, मुझे चैन से सोने नहीं देता! समर्पित है उनको मेरी यह कविता- "यह कश्मीर हमारा है" कण-कण से आवाज़ उठी है,    यह कश्मीर हमारा है।। दया दिखाते दुश्मन को पर,  सीना वज्र भयंकर है। हर बच्ची वीर भवानी है, हर बच्चा शिवशंकर है। जितेन्द्रिय है,अविनाशी है, मृत्युंजय,  प्रलयंकर है। हमने उसे उबार लिया है, जिसने हमें पुकारा है।             "कण-कण से... " नहीं कभी हम डिगने वाले, आतंकी  फुफकारों  से। नहीं कभी हम डरने वाले, गोली  की  बौछारों  से। नहीं  कटेंगे वक्ष हमारे, बरछी, तीर, कटारों से। जान लगा देंगेअपनी हम, देश जान से प्यारा है।             "कण-कण से..." कश्मीर को तो भूल ही जा, हम पीओके भी ले लेंगे।  हमारे नन्हे-मुन्ने कल को, लाहौर कबड्डी खेलेंगे।  दिन दूर नहीं जब हम तेरे  चीनी अब्बा को पेलेंगे।  देख हमारी आँखों में अब, दहक रहा अंगारा है।  &q

डायरी के पन्नों से..."शेष है..."

सन्  2017 जाने को है, महज़ कुछ घंटे ही शेष हैं और मेरे द्वारा आज प्रस्तुत की जा

डायरी के पन्नों से ..."हर पत्थर से ठोकर खाई"

यह रचना भी मेरे प्रथम वर्ष, टी.डी.सी. (महाराजा कॉलेज, जयपुर) में अध्ययन (किशोरावस्था व यौवन की वयसंधि ) के समय  की है...प्रस्तुत है बंधुओं- 'हर पत्थर से ठोकर खाई'!       *********

डायरी के पन्नों से ..."प्यार अधूरा रह जाएगा"

     कृपया कोष्टक में अंकित आलेख को अवश्य पढ़ें।     दिल में जब तक तड़पन पैदा न हो, प्यार का रंग कुछ फीका-फीका ही रहता है। कई महानुभावों ने इसे महसूसा होगा। तड़पन का कुछ ऐसा ही भाव आप देखेंगे प्यार की मनुहार वाली मेरी इस कविता में - "प्यार अधूरा रह जाएगा  ..."      (महाराजा कॉलेज, जयपुर में प्रथम वर्ष के अध्ययन के दौरान हमारी वार्षिक पत्रिका 'प्रज्ञा' में यह कविता प्रकाशित हुई थी। कविता के आवश्यक तत्व 'मात्राओं की समानता' का पूर्णतः अनुपालन मैंने इस कविता में किया था। मेरी इस कविता में मुखड़ा मिलाने वाली चार पंक्तियों में प्रत्येक में 16 तथा अन्य पंक्तियों में हर विषम संख्या वाली पंक्ति में 16 मात्राएँ व हर सम संख्या वाली पंक्ति में 14 मात्राएँ आप पाएँगे। आज भी कुछ अच्छे कवियों द्वारा इस मात्रा-धर्म को निभाया जाता है, किन्तु अतुकांत कविताओं का दौर चलने के बाद कुछ ही कवि इस ओर ध्यान देते हैं। मैं भी अब इतना ध्यान मात्राओं के मामले में नहीं रख पाता... हाँ, रिदम का ध्यान यथासम्भव रखता हूँ।)         

डायरी के पन्नों से ..."लो चाँद उगा..."

       वृन्दावन लाल वर्मा का प्रसिद्ध उपन्यास 'मृगनयनी' मैंने तब पढ़ा था जब मैं पांचवीं कक्षा का विद्यार्थी था। कितना मैं उस उम्र में उस उपन्यास को समझ पाया था, मुझे स्मरण नहीं, लेकिन यह अवश्य ध्यान में है कि मुझे बहुत आनंद आया था पढ़कर। नट-नटनियों की पृष्ठभूमि पर आधारित इस उपन्यास की कुछ घटनायें मेरी स्मृति में आज भी हैं।               इसके बाद सातवीं कक्षा में आने पर मैंने जय शंकर प्रसाद की कालजयी कृति 'कामायनी' को पढ़ा- 'हिमगिरि के उतुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छांह, एक पुरुष भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय-प्रवाह।' - इस पुस्तक की वह प्रारम्भिक पंक्तियाँ थीं जो मेरे मन-मानस में कविता घोल गईं। हिंदी का ठीक-ठाक ज्ञान होने के बावज़ूद भी इस काव्य की भाषा-शैली व भावात्मक सृजनशीलता मुझे उस समय बहुत कठिन लगी थी और यही कारण था कि मैं उसे आधा-अधूरा ही पढ़ सका।       नवीं कक्षा की पढ़ाई पूरी होने तक मैंने उपन्यास-सम्राट मुन्शी प्रेमचंद के उपन्यास 'रंगभूमि', 'कर्मभूमि' तथा 'कायाकल्प' पढ़ डाले थे।       जीवन में मैंने क्या पाया और क्या खोया, इसका उ

डायरी के पन्नों से ..."मन की व्यथा"

मेरे अध्ययन-काल की एक और कविता ...प्रस्तुत है मित्रों- "मन की व्यथा" :-

डायरी के पन्नों से ..."भूतपूर्व मिनिस्टर"

दि. 19-12-1969 को लिखी गई मेरी इस कविता में मैंने पहले 'सोनिया' की जगह 'गप्पा' (निजलिंगप्पा) तथा 'मोदी' की जगह 'इंदिरा' लिखा था, बस मात्र इतना ही परिवर्तन समय के हिसाब से किया है, शेष कविता

डायरी के पन्नों से ... "नील सरोवर"

       एक और प्रस्तुति मित्रों...              पलकों की छाया में सुन्दर,             आँखों का यह नील सरोवर।     इन नयनों से जाने कितने,  दीवानों  ने  प्यार  किया।  देवलोक  से आने  वाली,  परियों ने अभिसार किया।  कुछ गर्व से, कुछ शर्म से,  छा जाती लाली मुख पर।                 "पलकों की..."                                                   सांझ  हुई जब  दीप जले,               वीराने  भी  चमक  उठे।              दम भर को लौ टिकी नहीं               कुछ ऊपर जब नयन उठे।               पलकें उठ, झुक जाती हैं,               कुछ कह  देने को तत्पर।                              "पलकों की..." जब भी पलकें उठ जाती हैं, वक्त  वहीं  रुक  जाता  है। हँस  उठती  हैं  दीवारें  भी, ज़र्रा   ज़र्रा   मुस्काता  है। किन्तु  प्रलय भी हो जाता, देखें  जब  तिरछी  होकर।                 "पलकों की..."                              पलकों की  कोरों से शायद,                बादल  ने  श्यामलता  पाई।                शायद इनको निरख-निरख,                फूलों   में 

डायरी के पन्नों से ..."नदी और किनारा"

मन में गुँथी वैचारिक श्रृंखला ही कभी-कभी शब्दों में ढ़ल कर कविता का रूप ले लेती है - मेरे कॉलेज के दिनों की उपज है यह कविता भी ...सम्भवतः आप में से भी कुछ लोगों ने जीया होगा इन क्षणों को!

डायरी के पन्नों से ..."उसकी दीपावली"

कविता की अन्तिम दो पंक्तियों में निहित भाव के लिए समस्त कवि-बन्धुओं से क्षमायाचना के साथ प्रस्तुत है मेरी डायरी के पन्नों से एक और अध्ययनकालीन रचना - "उसकी दीपावली"                                                                  

डायरी के पन्नों से ..."कविता मैं कैसे लिखूं"

       डॉ. प्रियंका (हैदराबाद) के साथ हुए हादसे के बाद आज दि. 5-12-2019 को मैंने चार नवरचित पंक्तियाँ मेरी इस पूर्व -प्रकाशित कविता में और जोड़ी हैं।...    दामिनी का बस में बलात्कार और फिर निर्मम हत्या, मासूम प्रद्युम्न की विद्या के मंदिर (विद्यालय ) में क्रूरतापूर्ण हत्या, धर्मांध और भोले-भाले लोगों को अपने जाल में फंसाकर व्यभिचार का नंगा तांडव करने वाले 'राम-रहीम' जैसे बाबा ...और ऐसे अनाचारों के प्रति धृतराष्ट्रीय नज़रिया रखने वाले, अपने राजनैतिक स्वार्थ के चलते इन्हें पोषित करने वाले, राजनेताओं को जब मैं देखता हूँ तो मन अपने-आप से पूछता है- जिसे देवभूमि कहा जाता था, क्या यही वह राम और कृष्ण की धरती है?     ...इस सबसे प्रेरित हैं मेरे यह उद्गार..."कविता मैं कैसे लिखूं"       दामिनी  की चीख अभी  भी, गूंजती  हवाओं  में, प्रद्युम्न  की मासूम  तड़पन, कौंधती  निगाहों में, नींद में  कुछ  चैन पाऊं, वो  ख्वाब नहीं  मिलते, कविता  मैं  कैसे  लिखूं, अलफ़ाज़ नहीं  मिलते। डॉक्टर को अपवित्र किया,जला दिया हैवानों ने, हर बस्ती को नर्क बनाया,कुछ पागल शैतानों ने।  लहू