रीजनल कॉलेज, अजमेर में प्रथम वर्ष के अध्ययन-काल में लिखी गई मेरी इस हल्की-फुल्की हास्य कविता को उस समय के मेरे साथियों-परिचितों ने बहुत सराहा था। प्रस्तुत कर रहा हूँ इस कविता को आप सब के लिए---
"आधुनिक मित्र"
सोचा मैंने मिलूँ मित्र से,
मौसम बड़ा सुहाना था।
कृष्ण-सुदामा के ही जैसा,
रिश्ता बड़ा पुराना था।
मज़ा लिया तफरी का मैंने,
टैक्सी को रुपया दे कर।
भौंहें उसकी चढ़ी हुई थीं,
जब पहुंचा मैं उसके घर।
मैंने समझा उन साहब को
मेरा आना अखरा था।
पर उनके गुस्से का कारण,
एक जनाना बकरा था।
पूछा मैंने जरा सहम कर.
'हो उदास कैसे भाई ?'
जरा तुनककर वह भी बोला,
'आफत अच्छी घर आई।'
चौंक पड़ा मैं, बोला उससे,
'अमां यार, क्या बकते हो!
अरसे से मिलने आया हूँ,
मुझको आफत कहते हो!'
तब वह बोला थोड़ा हँसकर,
'तुम यार, बड़े भोले हो।
बस उल्लू के पट्ठे हो या,
कुछ दिमाग़ के पोले हो।
मेरी बकरी ही आफत है,
बस घाटे का सौदा है।
दस रुपये कुछ पैसे देकर,
मैंने उसे ख़रीदा है।
दूध छटांक दिया करती है,
दो-दो मन चारा खाकर।
मुटियाती ऐसे ही जैसे,
श्रीमती पीहर जा कर।
लो, अब थोड़ा खाएँ-पीयें,
जाने दो इन बातों को।
सुनती हो,भई चाय बनाओ'
-बोला कस कर दांतों को।
चाय लिए जब भाभी आई,
आहट आई रुनझुन की।
जब आई तो देखा उसको,
मौसी थी वह टुनटुन की। (टुनटुन उन दिनों की एक मोटी अभिनेत्री थी)
'नमस्ते भैया, पीयो चाय',
-बोली वह ही-ही कर के-
'बड़े दिनों आये देवर जी,
पी लो तुम जी-जी भर के।
काली चाय बना करती है,
नहीं कभी मीठी होती।
चीनी माह की मिली नहीं, (उन दिनों चीनी राशन-कार्ड से मिलती थी)
बकरी दूध नहीं देती।'
प्याला ले अपने हाथों में,
शिवशंकर का ध्यान किया।
साँस रोककर,नयन मूँदकर,
मैंने भी विषपान किया।
तब खड़ा हुआ,उनसे बोला,
'अच्छा, मुझे इज़ाज़त हो।'
बोले - 'आना, अपना घर है,
इतनी जल्दी जावत हो।'
तभी मित्र का साहबजादा,
बाहर आया हौले- हौले।
'मिलो हमारे टुन्नू से भी',
-मित्र हमारे यूँ बोले।
'टुन्नू मेरा बड़ा चंट है,
चाचाजी सब को कहता।
नोट पांच का लिए बिना तो, (उस समय का पांच रु. आज के दो सौ रु. के बराबर था)
कभी नहीं जाने देता।'
चाचाजी बनने से पहले,
नोट पांच का थमा दिया।
रुपये ले टुन्नू ने हमको,
रस्ता अपना बता दिया।
जैसे ही बाहर निकला मैं,
हँसी मित्र की खनक पड़ी।
जाते - जाते मेरे कानों में,
कुछ थोड़ी सी भनक पड़ी।
'क्या सोचकर महंगाई में,
पागल अपने घर आया।
बोलो मेरी प्यारी रानी,
उल्लू कैसा उसे बनाया?'
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"आधुनिक मित्र"
सोचा मैंने मिलूँ मित्र से,
मौसम बड़ा सुहाना था।
कृष्ण-सुदामा के ही जैसा,
रिश्ता बड़ा पुराना था।
मज़ा लिया तफरी का मैंने,
टैक्सी को रुपया दे कर।
भौंहें उसकी चढ़ी हुई थीं,
जब पहुंचा मैं उसके घर।
मैंने समझा उन साहब को
मेरा आना अखरा था।
पर उनके गुस्से का कारण,
एक जनाना बकरा था।
पूछा मैंने जरा सहम कर.
'हो उदास कैसे भाई ?'
जरा तुनककर वह भी बोला,
'आफत अच्छी घर आई।'
चौंक पड़ा मैं, बोला उससे,
'अमां यार, क्या बकते हो!
अरसे से मिलने आया हूँ,
मुझको आफत कहते हो!'
तब वह बोला थोड़ा हँसकर,
'तुम यार, बड़े भोले हो।
बस उल्लू के पट्ठे हो या,
कुछ दिमाग़ के पोले हो।
मेरी बकरी ही आफत है,
बस घाटे का सौदा है।
दस रुपये कुछ पैसे देकर,
मैंने उसे ख़रीदा है।
दूध छटांक दिया करती है,
दो-दो मन चारा खाकर।
मुटियाती ऐसे ही जैसे,
श्रीमती पीहर जा कर।
लो, अब थोड़ा खाएँ-पीयें,
जाने दो इन बातों को।
सुनती हो,भई चाय बनाओ'
-बोला कस कर दांतों को।
चाय लिए जब भाभी आई,
आहट आई रुनझुन की।
जब आई तो देखा उसको,
मौसी थी वह टुनटुन की। (टुनटुन उन दिनों की एक मोटी अभिनेत्री थी)
'नमस्ते भैया, पीयो चाय',
-बोली वह ही-ही कर के-
'बड़े दिनों आये देवर जी,
पी लो तुम जी-जी भर के।
काली चाय बना करती है,
नहीं कभी मीठी होती।
चीनी माह की मिली नहीं, (उन दिनों चीनी राशन-कार्ड से मिलती थी)
बकरी दूध नहीं देती।'
प्याला ले अपने हाथों में,
शिवशंकर का ध्यान किया।
साँस रोककर,नयन मूँदकर,
मैंने भी विषपान किया।
तब खड़ा हुआ,उनसे बोला,
'अच्छा, मुझे इज़ाज़त हो।'
बोले - 'आना, अपना घर है,
इतनी जल्दी जावत हो।'
तभी मित्र का साहबजादा,
बाहर आया हौले- हौले।
'मिलो हमारे टुन्नू से भी',
-मित्र हमारे यूँ बोले।
'टुन्नू मेरा बड़ा चंट है,
चाचाजी सब को कहता।
नोट पांच का लिए बिना तो, (उस समय का पांच रु. आज के दो सौ रु. के बराबर था)
कभी नहीं जाने देता।'
चाचाजी बनने से पहले,
नोट पांच का थमा दिया।
रुपये ले टुन्नू ने हमको,
रस्ता अपना बता दिया।
जैसे ही बाहर निकला मैं,
हँसी मित्र की खनक पड़ी।
जाते - जाते मेरे कानों में,
कुछ थोड़ी सी भनक पड़ी।
'क्या सोचकर महंगाई में,
पागल अपने घर आया।
बोलो मेरी प्यारी रानी,
उल्लू कैसा उसे बनाया?'
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