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दानवीर (कहानी)

                                                                                                            पहाड़ियों के बीच बसे एक छोटे से शहर में राजा राम नाम का एक भिखारी रहता था। नाम के अनुरूप ही वह दिल से भी राजा था। उसके करीबी लोग उसे ‘राजू’ कह कर पुकारते थे। अपनी बदहाली के बावज़ूद, राजू को हमेशा जरूरतमंद लोगों की मदद करने में खुशी मिलती थी। हर दिन, वह हलचल भरे बाज़ार के पास बैठता था। पैबन्द वाले पायजामे पर पहनी हुई जगह-जगह से फटी कमीज़ और थकी हुई आँखें उसकी गरीबी को बयां करती थीं। एक शाम, जब सूरज ढ़लने को था, राजू की नज़र सड़क के दूसरे किनारे खड़ी एक किशोरी लड़की पर पड़ी। कागज़ का एक मुड़ा हुआ टुकड़ा हाथ में लिये वह हताश दृष्टि से आते-जाते लोगों को देखते हुए कुछ कह रही थी। उसकी आँखों से निरंतर आँसू बह रहे थे। राजू ने उसकी परेशानी देखी और धीरे से उसके पास आया। "माफ़ करना बेटी”, उसने धीरे से कहा- "तुम किस बात से इतनी दुखी हो रही हो?" अपनी परेशानी बताते हुए लड़की की आवाज कांप उठी- “ मेरे पिता बहुत बीमार हैं और भूखे हैं। डॉक्टर ने दवा लिखी है, लेकिन मेरे पास उनकी दवा ख़रीदने क

सज्जनता का दण्ड (कहानी)

(1) हिन्द-पाक सीमा पर चौकी नं. CZ 3, संध्या-काल — सांझ का धुंधलका गहरा रहा था। स. उप निरीक्षक रामपाल सिंह एवं हैड कॉन्स्टेबल अब्दुल हनीफ़ पांच सिपाहियों के साथ इस महत्वपूर्ण चौकी पर तैनात थे। इस क्षेत्र में सीमा पर तार की बाड़बंदी नहीं थी। तीन सिपाहियों को इमर्जेन्सी के कारण एक अन्य चौकी पर भेजा गया था। इस समय चौकी पर रामपाल व हनीफ़ के अलावा केवल दो सिपाही थे। एक सिपाही खाना बना रहा था तथा हनीफ़ एक सिपाही के साथ चौकी के बाहर चारपाई पर बैठा था। आज शाम की गश्त रामपाल के जिम्मे थी, अतः वह गश्त पर बाहर निकला था। दिन के समय पाक सैनिकों के इधर आने की सम्भावना कम थी, जबकि रात होते-होते उनके द्वारा घुसपैठ किये जाने की सम्भावना बढ़ जाती थी। यह इलाका घने वृक्षों व झाड़ियों से आच्छादित था, जिन के पार देख पाना दिन में भी कठिन हुआ करता था, जबकि इस समय तो कुछ भी दिखाई देना असंभव के समान था। रामपाल अपने साथियों व अफसरों की निगाहों में निहायत ही विश्वसनीय व होशियार मुलाजिम था। सभी लोग उसकी बहादुरी के साथ ही उसकी श्रवण-शक्ति व तीव्र दृष्टि का लोहा मानते थे।  वीरानी के सन्नाटे को चीरती हुई झींगुरों की आवाज़ वा

'हिन्दी दिवस' (लघु कविता)

हिन्दी भाषा की जो आन-बान है,  किसी और की कब हो सकती है!   मेरे देश को परिभाषित करती,   हिन्दी तो स्वयं मां सरस्वती है। *****

'वह यादगार सफ़र' (लघुकथा)

  प्रस्तावना :- मैं तब स.वा.क. अधिकारी के पद पर कार्यरत था। एक बार मैं अपने वॉर्ड के एक विभागीय केस, जिसमें एक व्यापारी ने उस पर लगाई गई पेनल्टी के सम्बन्ध में रेवेन्यू बोर्ड में अपील की थी, के मामले में अपने विभाग का पक्ष प्रस्तुत करने हेतु अजमेर गया था। मैं अपने साथ एक ब्रीफ़केस ले गया था, जिसमें विभाग की केस-पत्रावली तथा मेरे दो जोड़ी कपड़े रखे थे। रेवेन्यू बोर्ड में काम हो जाने के बाद घर लौटने के लिए बस स्टैंड पर पहुँचा व एक खाली सीट पर ब्रीफ़केस रख कर पड़ोस में बैठे व्यक्ति को ब्रीफ़केस का ध्यान रखने को कह कर टिकिट लेने गया। कुछ पांच-सात मिनट में ही सीट पर पहुँचा तो देखा कि वह सज्जन (दुर्जन) मेरे ब्रीफ़केस सहित गायब थे। बस से बाहर निकल कर आसपास देखा, लेकिन वह अब कहाँ मिलने वाला था। यदि मैं उस समय सामान्य मनःस्थिति में होता तो स्वयं पर हँसता कि बस के आस-पास मुझे वह चोर क्या यह कहने के लिए मिल जायगा कि साहब मैं आपका ब्रीफ़केस आपको सम्हलाने के लिए ही यहाँ खड़ा हूँ।  मैं बदहवास हो उठा था। मेरे दिमाग़ में विचार आया कि मामला सरकारी फाइल खो जाने का था और मुझ पर आरोप लग सकता था कि मैंने व्यापारी क

इन्तहा (कहानी)

                                                                                                                                                                    "एक तो रास्ता इतना ख़राब, ऊपर से अंधेरे में बाइक की हैडलाइट के सहारे चलना... तौबा-तौबा! यार अनिरुद्ध! अब और कितना दूर है तुम्हारा माधोपुर?" -बाइक पर पीछे बैठे डॉ. आलोक सिन्हा ने हल्की झुंझलाहट के साथ अपने मित्र से पूछा। "बस, एक किलोमीटर दूर है अब तो। पहुँचने को ही हैं हम लोग।" -सड़क पर नज़र गड़ाए डॉ. अनिरुद्ध ने जवाब दिया।  माधोपुर पहुँचे दोनों मित्र, तो रात के साढ़े आठ बज रहे थे। अपने चाचा पण्डित गोरख नाथ की तबीयत ख़राब होने की ख़बर मिलने से अनिरुद्ध अपने घनिष्ठ मित्र  डॉ. अलोक को साथ लेकर यहाँ आया था। पण्डित जी के घर पहुँच कर बाइक एक ओर खड़ी कर के अनिरुद्ध ने दरवाजा खटखटाते हुए आवाज़ लगाई- "चाचाजी!"  लगभग 65 वर्षीय बुज़ुर्ग महिला ने दरवाजा खोला- "आओ बेटा, भीतर आ जाओ।" पहले अनिरुद्ध और फिर आलोक ने उनके पाँव छूए। दोनों के भीतर आने पर कमरे में एक ओर रखे तख़्ते पर दरी बिछा कर वृद्धा ने उन्हें इशार