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'अनजाने रिश्ते' (कहानी)

   अघ्याय (1)  सामने अथाह सागर लहरा रहा था। किनारे पर पड़े एक शिलाखंड पर बैठा रघु समुद्र में रह-रह कर उठ रही दूर से आती लहरों को निर्निमेष निहार रहा था जो एक के बाद एक किनारे की ओर आकर फिर-फिर लौट जाती थीं। कभी-कभार कोई लहर उसके परिधान को छू लेती तो वह कुछ और पीछे की ओर खिसक जाता। लहरों के इस उद्देश्यविहीन आवागमन में उसकी दृष्टि उलझी हुई थी जैसे कहीं कुछ खोज रही हो और उसके दायें हाथ की तर्जनी अनचाहे ही रेत में कुछ अबूझ रेखांकन कर रही थी।   अस्तांचल में ओझल होने जा रहे सूरज से रक्ताभ हो रहे गगन-पटल से बिखर रही लालिमा सुदूर जल-राशि को स्वर्णिम आभा दे रही थी। रघु ने सहसा ऊपर की ओर देखा, बादलों की एक क्षीण उधड़ी-उधडी सी चादर आकाश को ढ़क लेने का प्रयास कर रही थी।   साँझ की निस्तब्धता को भेदता सागर की उन्मत्त लहरों का कोलाहल रघु के मन को भी अशांत करने लगा। अनायास ही वह अतीत की गहराइयों में डूबने-उतराने लगा। पिछले चालीस वर्षों के उसके जीवन-काल के काले-उजले पृष्ठ तीव्र गति से पलटते चले गए।........ मात्र छः वर्ष की उम्र रही होगी तब रघु की, जब उसक