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अगस्त, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मुरझाये फूल (कहानी)

राजकीय बाल गृह में अफरातफरी मच गई थी। बाल गृह की महिला सहायिका ने बाल कल्याण अधिकारी के आने की सूचना चपरासी से मिलते ही अधीक्षक-कक्ष में जा कर अधीक्षक को बताया। अधीक्षक ने कुछ कागज़ात इधर-उधर छिपाये और शीघ्रता से अधिकारी जी की अगवानी हेतु कक्ष से बाहर निकले।  अधिकारी के समक्ष झुक कर नमस्कार करते हुए अधीक्षक ने स्वागत किया- "पधारिये, स्वागत है श्रीमान!"  "धन्यवाद! मैं, बृज गोपाल, बाल कल्याण अधिकारी! मेरी यह नई पोस्टिंग है। कैसा चल रहा है काम-काज?" "बस सर, अच्छा ही चल रहा है आपकी कृपा से। आइये, ऑफिस में पधारिये।" -चेहरे पर स्निग्ध मुस्कराहट ला कर अधीक्षक बोले।  अधीक्षक के साथ कार्यालय में आ कर बृज गोपाल ने चारों ओर नज़र घुमा कर देखा। दो-तीन मिनट की औपचारिक बातचीत के बाद उन्होंने बाल गृह से सम्बन्धित कुछ फाइल्स मंगवा कर देखीं। ऑफिस-रिकॉर्ड के अनुसार अधीक्षक के अलावा बाल गृह में एक महिला व एक कर्मचारी सहायक के रूप में कार्य करते थे। एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी था, जो चौकीदारी का दायित्व भी निभाता था। बाल गृह में कुल 28 बच्चे थे। अधीक्षक-कक्ष के अलावा बारह कमरे और

संस्कार (लघुकथा)

                 विपुल से विदा ले कर अर्चना घर पहुँची। दोपहर हो गई थी। उसके मम्मी-पापा लीविंग रूम में बैठे थे। उसकी मम्मी एक पत्रिका पढ़ रही थी और पापा किसी केस को देखने में व्यस्त थे। वह सीधी पापा के पास गई और अपने हाथ में पकड़ा स्टाम्प पेपर उनके सामने रख दिया।  “क्या है यह? कहाँ गई थी तू?”, कहते हुए योगेश्वर प्रसाद ने स्टाम्प पेपर को उठा कर ध्यान से देखा और पुनः  बोले- "यह क्या है अर्चू? तू कोर्ट मैरिज कर रही है?... देख लो शारदा, अपनी बेटी की करतूत!" शारदा ने चौंक कर अपने पति की ओर देखा और फिर अर्चना की तरफ आश्चर्य से देखने लगीं।  "पापा, मैं कोर्ट से आ रही हूँ। आप मेरी शादी आशीष से करना चाहते हैं, जबकि विपुल उससे कहीं अधिक अच्छा लड़का है। वह पढ़ने में अच्छा है, स्वभाव से भी अच्छा है और एक चरित्रवान लड़का है। वह गरीब घर से है पापा, पर इसमें उसका तो दोष नहीं है न! आशीष पैसे वाले घर से सम्बन्ध अवश्य रखता है, किन्तु व्यक्तित्व में वह विपुल के आगे कहीं नहीं ठहरता। और फिर पापा, मेरी तक़दीर तो आपने नहीं लिखी है न? आपने अपने हिसाब से मेरी शादी पैसे वाले घराने में कर भी दी और फिर भी

डायरी के पन्नों से ..."स्वतंत्रता-दिवस...(?)"

          15अगस्त का पावन दिवस- हमें अंग्रेजों की दासता से मुक्ति मिल गई सन् 1947 में, हम स्वाधीन हो गए। लेकिन ... लेकिन क्या हम सच में स्वतन्त्र  हैं ?        हम आज भी स्वतन्त्र नहीं हैं, आज भी हमारे कई भाई-बहिन आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में परतन्त्र हैं। आज भी सफ़ेदपोश एक बड़ा तबका आम आदमी का रहनुमा बना हुआ है। देशी अंग्रेजों की हुकूमत आज भी अभावग्रस्त लोगों को त्रस्त कर रही है।       सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले, मेरी कविता के नायक 'मंगू' की वेदना को मैंने कविता लिखते वक़्त महसूसा है, अब...अब आप भी महसूस करना चाहेंगे न इस अहसास को ?         ( मेरी यह कविता पांच वर्ष पूर्व आकाशवाणी, उदयपुर से प्रसारित हुई थी। )                                                                                                               *********                        

जाहिलाना हरकत

  मुस्लिम देश, पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधिपति श्री गुलज़ार अहमद ने वहाँ के पुलिस सुप्रीमो को यह कह कर लताड़ा है कि हिन्दू मन्दिर को भीड़ ने ध्वस्त किया तो पुलिस मूक दर्शक बन कर यह सब देखती कैसे रही और यदि पुलिस अधिकारी काम नहीं कर सकते तो क्यों नहीं उनको हटा दिया जाना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि सोचिये अगर मस्जिद पर हमला तो मुस्लिमों की क्या प्रतिक्रिया होती?      माननीय न्यायाधिपति के इस कथन ने प्रमाणित कर दिया है कि न्याय की कुर्सी पर बैठने वाले व्यक्ति के शरीर में ईश्वर का वास होता है। उसकी सोच धर्म के संकीर्ण दायरे से परे होती है। वह यह नहीं देखता कि अपराधी उसके धर्म से सम्बन्ध रखता है अथवा विधर्मी है।     इस न्यायाधिपति को, उसके न्याय को दिल से मेरा सलाम! ... किन्तु न्यायाधिपति जी, हमारे देश में तो गाहे-बगाहे इससे मिलती-जुलती घटनाएँ होती रहती हैं। यहाँ कभी किसी धर्म-स्थल को अपवित्र कर दिया जाता है तो कहीं किसी देवता की मूर्ति से आँखें निकाल ली जाती हैं। यदि किसी मूर्ति का कोई अंग मूल्यवान हो तो कभी-कभी तो कोई नराधम समधर्मी भी मूर्ति को क्षतिग्रस्त कर वह अंग चुरा लेत

'महत्त्वहीन' (कहानी)

भूमिका:- कुछ दिन पहले कुछ पुराने कागज़ात ढूँढ़ने के दौरान मुझे अनायास ही कॉलेज के दिनों में लिखी अपनी कहानी 'महत्त्वहीन' की हस्तलिखित प्रति मिल गई, जिसे उस समय आयोजित अन्तर महाविद्यालय कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार मिला था। मुझे कहानी का मूल कथानक तो अभी तक स्मरण था, किन्तु कहानी की उस समय की मौलिकता को स्मृति के आधार पर यथावत् लिख पाना मेरे लिए सम्भवतः दुष्कर कार्य था। अपनी उस हस्तलिखित प्रति में आंशिक सुधार कर के मैंने उस रचना को यह नया रूप दिया। अपने बालपन व किशोरावस्था में जिन अभावों व जीवन की दुरूहताओं से मैं रूबरू हुआ था, उन परिस्थितियों ने मुझे तब से ही कुछ अधिक संवेदनशील बना दिया था और उसके चलते अपने आस-पास व समाज में जो कुछ भी घटित होता था, उसे गहनता से देखने-समझने की प्रवृत्ति अनायास ही मुझमें पनपती चली गई। शनैः-शनैः भावनाएँ शब्दों का आकार ले कर कहानियों में बदलती चली गईं। मेरी अन्य कहानियों की तरह यह कहानी भी ऐसी ही एक भावनात्मक उपज है। मानवीय दुर्बलता, स्वार्थपरता एवं सामाजिक विवशता की भावनाओं के इर्द-गिर्द बुनी मेरी यह कहानी ‘महत्त्वहीन’ भी मेरी उसी तात्कालिक