सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

मार्च, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

लो... निकल गया वह

   लो... निकल गया वह      थानेदार की गश्त के दौरान एक चोर ने जमकर चोरी की। थानेदार का तबादला हो गया और नया थानेदार आया। जनता, मीडिया, आदि ने नए थानेदार को सूचना दी। नया थानेदार मुँह फेरकर खड़ा हो गया और चोर भाग गया। लोग तो लोग हैं, पानी पी-पी कर अगले-पिछले दोनों थानेदारों को गालियां दे रहे हैं।     हमें जहाँ तक जानकारी है चोर न तो तैरना-उड़ना जानता था (उड़ाता ज़रूर था) और न ही मिस्टर इण्डिया था, तो भाई, ज़रूर जमीन में सुरंग खोदकर भागा होगा वह। तो ..... तो भाइयों! अब तो लकीर पीटते रहिये, सांप तो निकल चुका है।    ...... श्श्श्श! ...  सुना है चोर की दोनों थानेदारों के साथ अच्छी घुटती थी।    छोड़िये न, अभी तो ऐसे कई चोर मौज़ूद हैं ..... उन्हें हम भी देख रहे हैं और थानेदार भी। 

आरक्षण रूपी दानव

 आरक्षण-व्यवस्था को संविधान में स्थान मिलने का गुणगान लोग, विशेषकर सत्तालोलुप राजनीतिज्ञ भले ही करते हों, मैं तो इसे बहुत बड़ी ऐतिहासिक भूल मानता हूँ। उद्देश्य कितना ही अच्छा क्यों न रहा हो, तब की यह नादान भूल आज देश के लिए सबसे बड़ा अभिशाप बन गई है। इस व्यवस्था का लाभ शुरुआत में अजा-अजजा वर्गों के लोगों को तो मिल ही रहा था, धीरे-धीरे अन्य वर्गों की जीभ भी लपलपाने लगी इस शहद के छत्ते को पाने के लिए। सत्तासीन सरकारों की सीमाओं और जनता की सुविधा-असुविधा के विवेक को अनदेखा कर समय-समय पर भारतीय समाज के कुछ अन्य वर्गों ने भी अपने-अपने लिए आरक्षण की न केवल मांग की, अपितु इसे प्राप्त करने के लिए किये गए आन्दोलन को जन-बल के आधार पर अराजक और हिंसक रूप देने में भी कोई संकोच नहीं किया। आरक्षण के लिए गुर्जरों के द्वारा हिंसक आन्दोलन किये जाने के बाद पटेलों द्वारा और अब जाटों के द्वारा यह पुनीत कार्य किया गया। हद तो यह हो रही है कि कर्फ्यू के दौरान आधी रात को लोगों के घरों में घुस कर महिलाओं के साथ छेड़छाड़ भी इनके आंदोलन का हिस्सा बन गई थी। पशुता की पराकाष्ठा तो यहाँ तक हो गई कि आन्दोलनकारियों में

यह जहरीले संपोले ...

      नहीं होते कुछ लोग सहानुभूति के क़ाबिल, दया के क़ाबिल। बांग्ला देश को पूर्वी पाकिस्तान ही रहने देना चाहिए था भूखा और नंगा। भूल गया यह कृतघ्न देश हमारी मेहर, भूल गया कि उसकी आज़ादी के लिए हमें क्या क़ीमत चुकानी पड़ी थी। क्या थोड़ा भी हमारे प्रति वफादार रह सका यह नामाकूल देश ? हुक्मरान तो चलो मानते हैं कि सियासत के खेल में बेग़ैरत हो जाते हैं (कोई भी देश इससे अछूता नहीं, हमारा देश भी नहीं), लेकिन अवाम ? उसमें तो कुछ शर्मो-हया होनी चाहिए न ?     बात कर रहा हूँ क्रिकेट के खेल की। अभी कल ही एशिया-कप के फाइनल में भारत के हाथों चित्त हुए बांग्ला देश के एक सिरफिरे ने इस फ़ाइनल मैच के कुछ पहले ट्वीट करते हुए इस तरह दिखाया कि भारतीय कप्तान धोनी के कटे सिर को उसने अपने हाथ में ले रखा है। हार-जीत को खेल-भावना से लिया जाना चाहिए लेकिन इस बात को सामान्य व्यक्ति ही नहीं, कई बार तो खिलाड़ी भी भूल जाते हैं- यह सच है, किन्तु इस तरह का विष-वमन करने का काम तो दुश्मन ही कर सकते हैं। बांग्ला देश को आज़ाद करा के हमने पड़ोस में दूसरा दुश्मन पैदा कर लिया है।