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आरज़ू

 मेरे जन्मदिवस (5, मई) पर प्रभु से मेरी आरज़ू --- रोटी मिले, कपड़ा मिले, छत मिले हर एक सिर को, माथे पर हर इन्सां के,  सुकूं  बेशुमार चाहिए। प्यार हो हर एक दिल में, नफरत कहीं उपजे नहीं, रब, मेरे जन्मदिन पर, बस यही उपहार चाहिए। 

डायरी के पन्नों से ..."कोई आशिक़ न कह दे..." (रुबाई)

मेरे अध्ययन-काल की एक रचना (रुबाई) - "कोई आशिक़ न कह दे" .                                              ज़ुल्म  तो बहुत सहा है, पर फरियाद नहीं करता,                 प्यार तो  करता हूँ उनको, पर याद नहीं करता।               आवाज़ सुनकर ही कहीं कोई आशिक़ न कह दे,               यही है वो राज़ कि मैं किसी से बात नहीं करता।                                                   *****

डायरी के पन्नों से ..."चंद रुबाइयाँ और मुक्तक"

मेरे अध्ययन-काल की रचनाएँ ...       मेरी  तुम  परवाह  करो  ना,  पथ   टटोल   लूँगा  अपना, अगर  शमा   बुझा  दोगे   तो,  परवानों   का  क्या  होगा? शबनम समझा शोलों को भी,अब तक स्वीकार किया है, विश्वासों  ने  आहें  भर  लीं,  तो  अरमानों  का क्या होगा? *****

डायरी के पन्नों से ... "दो मुक्तक"

मित्रों, प्रस्तुत कर रहा हूँ - दो मुक्तक   मज़ाक कह झुठलाया था, तुमने जिन अहसासों को   प्रिय, वेदना वह प्यार की, पल-पल मुझे सताती है। मैं किसे अपना कहूँ तब, कौन मुझको थाम लेगा? ले दर्द को आगोश में, जब रात चली आती है। *** न आँखें ही होतीं, न ज़ुबां ही होती, राज़ हमारे राज़ ही रहते। निगाहों में उनके नफ़रत न आती, ख़्वाब हमारे ख़्वाब ही रहते।                                                                             *****

डायरी के पन्नों से ...'दो मुक्तक'

प्रिय मित्रों, प्रस्तुत हैं दो मुक्तक ...  जहाँ   भी   रहो,  तुम  मुस्कुराओ, चंदा औ'  सूरज  भी  ले लें बलाएँ।  गुलिस्ताओं  से निकल-निकल कर, बहारें  तुम्हारी  महफ़िल  सजाएँ।  *** उल्फ़त  करने  वालों  की भी, कितनी   बात  अजब  साकी, धड़कन तो  सौ बार रुकी पर, फिर  भी  मौत   नहीं  आती।  *****

डायरी के पन्नों से..."तीन मुक्तक"

     मित्रों, मेरी प्रथम दो रचनाएँ सन् 2010 की हैं, जबकि तीसरा मुक्तक मेरी सन् 2017 की रचना है। मेरी यह प्रस्तुति भी हमेशा की तरह आपके प्यार की ख्वाहिशमंद होगी-             (1) खुदी में खुद को इतना न जकड़ लो, कि चाह कर भी तुम हिल न सको। दूरियां  इतनी  भी न  बनालो  हमसे, कि क़यामत तक भी मिल न सको।    (2) नज़रों से जो मिल गईं नज़रें अगर, आँखों से दिल में उतर जायेंगे हम। बाहर  न  तलाशो, भीतर ही  ढूंढो, दिल में ही कहीं नज़र आएंगे हम।  (3)             यही तो गिला है कि दुनिया अलग से बना ली तुमने,                मैंने जो देखा था, वो तुमने  ख़्वाब नहीं देखा। मेरे होठों पर खिली  मुस्कराहट तो  देखी है तुमने,               मेरी आँखों में छुपे दर्द का सैलाब नहीं देखा। *****