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नवंबर, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

साहस के कुछ कदम और...

   आज अपने शहर के व्यस्ततम चौराहे से निकलते हुए मैं अपनी कार को बांयीं ओर मोड़ने जा रहा था और इसके लिए मुड़ने का संकेत भी दे चुका था लेकिन मेरी कार के बांयें से आ रहे वाहन जिन्हें सीधा सामने की ओर जाना था, लगातार निकले चले जा रहे थे। मैंने कार को कुछ बांयीं ओर मोड़ा भी लेकिन फिर भी पीछे से आ रही एक और कार ने कुछ बांयें होते हुए अपनी कार को आगे बढ़ा ही दिया। मेरा आक्रोश सीमा लांघ रहा था। एकबारगी तो इच्छा हुई कि उस कार से भिड़ा ही दूँ, लेकिन ऐसा कर नहीं सका मैं। मेरे विवेक ने सावधान किया मुझे कि यदि मैंने ऐसा किया तो मेरी कार को भी क्षति पहुंचेगी।    ऐसी ही बानगी हमारे प्रधानमंत्री जी की विवशता के मामले में नज़र आती है। अभी हाल पांच सौ और एक हज़ार रुपये के नोटों को अचानक चलन से बाहर कर देने की घोषणा कर उन्होंने जो अप्रतिम साहस दिखाया है, क्या ऐसा वह अन्य वांछनीय क्षेत्रों में कर सकते हैं?...शायद नहीं।    प्रधानमंत्री की उपरोक्त घोषणा से जनता में खलबली मच गई। बड़े नोटों से भरे भंडारों के स्वामी भी कुलबुला गए तो मान्य मुद्रा (छोटे नोट) की कमी के चलते दैनिक जीवन-यापन की सामग्री का जुगाड़ न कर प

सर्वमान्य मुद्दा

       हमारे देश की संसद में कुछ मुद्दे (प्रस्ताव या सिफारिशें ) ऐसे होते हैं जो विवाद के विषय नहीं होते, सर्वमान्य होते हैं। पक्ष ने सुझाया तो भी मान्य और विपक्ष ने सुझाया तो भी मान्य। बात अजीब सी लग सकती है, लेकिन है सही। सन्दर्भ है मेरे द्वारा यहाँ साझा (copy-paste) की गई खबर!    पहले हम 'सर्वमान्य' मुद्दे के मूल को समझें - प्रजातन्त्र को परिभाषित किया जाता है - "जनता के द्वारा, जनता के लिए, जनता का।  ठीक इसी तरह संसद में पारित सर्वमान्य फैसले के बारे में कहा जा सकता है - माननीयों के द्वारा, माननीयों के लिए, माननीयों का।    जिस फैसले के प्रति सभी (पक्ष के भी, विपक्ष के भी) माननीय एकमत हों, वह सर्वमान्य और अंतिम फैसला तो हो ही जाता है, क्योंकि अन्य 'अमाननीयों' को तो विरोध करने का अधिकार है नहीं। ('अमाननीयों' के सभी अधिकार तो वोट देने मात्र तक ही सीमित होते हैं।)   अतः अविवादित मुद्दे पर विवाद खड़ा करना मेरा उद्देश्य नहीं होना चाहिए, है भी नहीं। मुझे तो इस खबर में निहित विसंगति पर हैरानी है। राष्ट्रपति के लिए प्रस्तावित रु.५ लाख का मासिक वेतन