सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

साहस के कुछ कदम और...



   आज अपने शहर के व्यस्ततम चौराहे से निकलते हुए मैं अपनी कार को बांयीं ओर मोड़ने जा रहा था और इसके लिए मुड़ने का संकेत भी दे चुका था लेकिन मेरी कार के बांयें से आ रहे वाहन जिन्हें सीधा सामने की ओर जाना था, लगातार निकले चले जा रहे थे। मैंने कार को कुछ बांयीं ओर मोड़ा भी लेकिन फिर भी पीछे से आ रही एक और कार ने कुछ बांयें होते हुए अपनी कार को आगे बढ़ा ही दिया। मेरा आक्रोश सीमा लांघ रहा था। एकबारगी तो इच्छा हुई कि उस कार से भिड़ा ही दूँ, लेकिन ऐसा कर नहीं सका मैं। मेरे विवेक ने सावधान किया मुझे कि यदि मैंने ऐसा किया तो मेरी कार को भी क्षति पहुंचेगी।
   ऐसी ही बानगी हमारे प्रधानमंत्री जी की विवशता के मामले में नज़र आती है। अभी हाल पांच सौ और एक हज़ार रुपये के नोटों को अचानक चलन से बाहर कर देने की घोषणा कर उन्होंने जो अप्रतिम साहस दिखाया है, क्या ऐसा वह अन्य वांछनीय क्षेत्रों में कर सकते हैं?...शायद नहीं।
   प्रधानमंत्री की उपरोक्त घोषणा से जनता में खलबली मच गई। बड़े नोटों से भरे भंडारों के स्वामी भी कुलबुला गए तो मान्य मुद्रा (छोटे नोट) की कमी के चलते दैनिक जीवन-यापन की सामग्री का जुगाड़ न कर पाने की विवशता को भोगते सामान्य लोग भी परेशान हो गए। यह भी सच है कि अब भी देश में ही छिपे काले धन का भी शतांश भाग मात्र ही अनावृत हो पायेगा क्योंकि काले धनकुबेरों ने (प्राप्त हो रही जानकारियों के अनुसार ) अपनी-अपनी तरह का समाधान ढूंढ लिया है, तथापि इस झकझोर देने वाले साहसी कदम ने सामानांतर अर्थव्यवस्था चला रहे दुस्साहसी तबके के साम्राज्य की नींव को तो हिला ही दिया है।
   इसमें भी दोराय नहीं हो सकती कि कालांतर में शीघ्र ही नई मुद्रा के एक विशाल भाग को भी काले में तब्दील कर दिया जायगा क्योंकि हमारी धमनियों में बहने वाले रक्त की तासीर ही कलुषित जो हो गई है, नैतिक जीवन की स्वच्छता हमें रास ही नहीं आती। तो ऐसे ही चलता रहेगा चोर-सिपाही का यह खेल, जब तक कि कोई स्थायी समाधान नहीं खोज लिया जाता।
   मुझे अपनी मूल बात की ओर आना होगा। तो मैं कह रहा था कि देश कई पीड़ाओं के दंश झेल रहा है। क्या अन्य समस्याओं की ओर नज़र उठाएंगे हमारे प्रधानमंत्री ? क्या कभी देश की जनता यह जान पायेगी कि चुनावों के लिए धन कहाँ से और किन शर्तों पर आता है (पिछले आम चुनावों में भाजपा ने सात अरब रुपया तथा कॉंग्रेस ने पांच अरब रुपया खर्च किया था)? कश्मीर में धारा 370 का मुद्दा, चिंगारी से आग में बदलता जा रहा आरक्षण का मुद्दा, सामान नागरिक संहिता का मुद्दा, कमज़ोर वर्गों और महिलाओं की सुरक्षा करने में असमर्थ लचर कानून और न्यायप्रणाली का मुद्दा और ऐसे ही कुछ अन्य ज्वलंत मामले कब तक अनछुए रहेंगे ?
   क्या राजनैतिक विवशताओं (VOTE राजनीति) को नज़रअंदाज़ कर एक-एक कर के इन सभी समस्याओं के समाधान की और बढ़ना चाहेंगे प्रधानमंत्री जी ?
   इन सभी प्रश्नों का उत्तर भविष्य ही दे पायेगा, लेकिन यदि सकारात्मक परिणाम दिखा पाये मोदी जी, तो ही वह जन-जन के ह्रदय-सम्राट बन पाएंगे, इतिहास-पुरुष कहलायेंगे ! साहस के कुछ कदम और...

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

तन्हाई (ग़ज़ल)

मेरी एक नई पेशकश दोस्तों --- मौसम बेरहम देखे, दरख्त फिर भी ज़िन्दा है, बदन इसका मगर कुछ खोखला हो गया है।   बहार  आएगी  कभी,  ये  भरोसा  नहीं  रहा, पतझड़ का आलम  बहुत लम्बा हो गया है।   रहनुमाई बागवां की, अब कुछ करे तो करे, सब्र  का  सिलसिला  बेइन्तहां  हो  गया  है।    या तो मैं हूँ, या फिर मेरी  ख़ामोशी  है यहाँ, सूना - सूना  सा  मेरा  जहां  हो  गया  है।  यूँ  तो उनकी  महफ़िल में  रौनक़ बहुत है, 'हृदयेश' लेकिन फिर भी तन्हा  हो गया है।                          *****  

बेटी (कहानी)

  “अरे राधिका, तुम अभी तक अपने घर नहीं गईं?” घर की बुज़ुर्ग महिला ने बरामदे में आ कर राधिका से पूछा। राधिका इस घर में झाड़ू-पौंछा व बर्तन मांजने का काम करती थी।  “जी माँजी, बस निकल ही रही हूँ। आज बर्तन कुछ ज़्यादा थे और सिर में दर्द भी हो रहा था, सो थोड़ी देर लग गई।” -राधिका ने अपने हाथ के आखिरी बर्तन को धो कर टोकरी में रखते हुए जवाब दिया।  “अरे, तो पहले क्यों नहीं बताया। मैं तुमसे कुछ ज़रूरी बर्तन ही मंजवा लेती। बाकी के बर्तन कल मंज जाते।” “कोई बात नहीं, अब तो काम हो ही गया है। जाती हूँ अब।”- राधिका खड़े हो कर अपने कपडे ठीक करते हुए बोली। अपने काम से राधिका ने इस परिवार के लोगों में अपनी अच्छी साख बना ली थी और बदले में उसे उनसे अच्छा बर्ताव मिल रहा था। इस घर में काम करने के अलावा वह प्राइमरी के कुछ बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाती थी। ट्यूशन पढ़ने बच्चे उसके घर आते थे और उनके आने का समय हो रहा था, अतः राधिका तेज़ क़दमों से घर की ओर चल दी। चार माह की गर्भवती राधिका असीमपुर की घनी बस्ती के एक मकान में छोटे-छोटे दो कमरों में किराये पर रहती थी। मकान-मालकिन श्यामा देवी एक धर्मप्राण, नेक महिल...

"ऐसा क्यों" (लघुकथा)

                                   “Mother’s day” के नाम से मनाये जा रहे इस पुनीत पर्व पर मेरी यह अति-लघु लघुकथा समर्पित है समस्त माताओं को और विशेष रूप से उन बालिकाओं को जो क्रूर हैवानों की हवस का शिकार हो कर कभी माँ नहीं बन पाईं, असमय ही काल-कवलित हो गईं। ‘ऐसा क्यों’ आकाश में उड़ रही दो चीलों में से एक जो भूख से बिलबिला रही थी, धरती पर पड़े मानव-शरीर के कुछ लोथड़ों को देख कर नीचे लपकी। उन लोथड़ों के निकट पहुँचने पर उन्हें छुए बिना ही वह वापस अपनी मित्र चील के पास आकाश में लौट आई। मित्र चील ने पूछा- “क्या हुआ,  तुमने कुछ खाया क्यों नहीं ?” “वह खाने योग्य नहीं था।”- पहली चील ने जवाब दिया। “ऐसा क्यों?” “मांस के वह लोथड़े किसी बलात्कारी के शरीर के थे।” -उस चील की आँखों में घृणा थी।              **********