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'सिलसिले' (मुक्तक)

                                                                                                                                 मुक्तक   न तुम्हारे हो सके हम, न किसी और ने थामा हमको, ताउम्र मुन्तशिर रहे हम, ऐसे सिलसिले दे दिये तुमने!  कभी कहा करते थे तुम, हमें इश्क करना नहीं आता, तुम्हें तो इल्म ही नहीं, कितने आशिक पढ़ा दिये हमने! मुन्तशिर = बिखरा-बिखरा  इल्म = जानकारी   *****

डायरी के पन्नों से ..."चंद रुबाइयाँ और मुक्तक"

मेरे अध्ययन-काल की रचनाएँ ...       मेरी  तुम  परवाह  करो  ना,  पथ   टटोल   लूँगा  अपना, अगर  शमा   बुझा  दोगे   तो,  परवानों   का  क्या  होगा? शबनम समझा शोलों को भी,अब तक स्वीकार किया है, विश्वासों  ने  आहें  भर  लीं,  तो  अरमानों  का क्या होगा? *****

डायरी के पन्नों से ..."कुछ शेर / रुबाइयाँ"

पेश हैं कुछ रचनाएं - अतीत की यादों से ...       *** गैर वाज़िब नहीं कि हर शोखी को, तेरे हुस्न का सरूर कह दें।  कोई जगह नहीं तेरे जिस्म में, जानम, जिसे हम बेनूर कह दें।                                         *** वक़्त  ऐसा  था कि यार  हमने,  ज़र्रे -ज़र्रे  को पुकारा  ग़म से।  जां जो कभी देता था हम पर, किया उसने भी किनारा हमसे।                                       ***