मेरी एक नई पेशकश दोस्तों --- मौसम बेरहम देखे, दरख्त फिर भी ज़िन्दा है, बदन इसका मगर कुछ खोखला हो गया है। बहार आएगी कभी, ये भरोसा नहीं रहा, पतझड़ का आलम बहुत लम्बा हो गया है। रहनुमाई बागवां की, अब कुछ करे तो करे, सब्र का सिलसिला बेइन्तहां हो गया है। या तो मैं हूँ, या फिर मेरी ख़ामोशी है यहाँ, सूना - सूना सा मेरा जहां हो गया है। यूँ तो उनकी महफ़िल में रौनक़ बहुत है, 'हृदयेश' लेकिन फिर भी तन्हा हो गया है। *****
वाहह आदरणीय !!कितने आशिक पढ़ा दिए हमने👌👌👌
जवाब देंहटाएंजर्रानवाज़ी के लिए शुक्रिया महोदया!
हटाएंवाह!वाह!सर सराहनीय।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आदरणीया अनीता जी!
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (११-०१ -२०२२ ) को
'जात न पूछो लिखने वालों की'( चर्चा अंक -४३०६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
आभार महोदया, अवश्य उपस्थिति दूँगा !
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (12-01-2022) को चर्चा मंच "सन्त विवेकानन्द" जन्म दिवस पर विशेष (चर्चा अंक-4307) पर भी होगी!
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार आदरणीय मयंक जी, निश्चित ही उपस्थित रहूँगा!
हटाएंक्या बात है .... उम्दा रूबाई ।
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत शुक्रिया अमृता जी!
हटाएंबहुत सुंदर उत्कृष्ट सृजन ।
जवाब देंहटाएंमेरी इस साधारण रचना को इतना सम्मान देने के लिए हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ आ. जिज्ञासा जी!
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जवाब देंहटाएंवाह सर 👏👏
सच में लाजवाब पंक्ति👌
धन्यवाद... आभार मनीषा जी!
हटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर सराहनीय सृजन।
हार्दिक आभार महोदया!
हटाएंउत्कृष्ट रचना...
जवाब देंहटाएंआभार आपका विकास जी!
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