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'सिलसिला' (रुबाई)

                                                            
                                                                 

 

न तुम्हारे हो सके हम, न किसी और ने थामा हमको,

ताउम्र मुन्तशिर रहे हम, ऐसा सिलसिला दे दिया तुमने! 

कभी कहा करते थे तुम, हमें इश्क करना नहीं आता,

तुम्हें तो इल्म ही नहीं, कितने आशिक पढ़ा दिये हमने!

 *****

मुन्तशिर = बिखरा-बिखरा 

इल्म = जानकारी 

टिप्पणियाँ

  1. वाहह आदरणीय !!कितने आशिक पढ़ा दिए हमने👌👌👌

    जवाब देंहटाएं
  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (११-०१ -२०२२ ) को
    'जात न पूछो लिखने वालों की'( चर्चा अंक -४३०६)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  3. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (12-01-2022) को चर्चा मंच     "सन्त विवेकानन्द"  जन्म दिवस पर विशेष  (चर्चा अंक-4307)     पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'   

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आभार आदरणीय मयंक जी, निश्चित ही उपस्थित रहूँगा!

      हटाएं
  4. क्या बात है .... उम्दा रूबाई ।

    जवाब देंहटाएं
  5. उत्तर
    1. मेरी इस साधारण रचना को इतना सम्मान देने के लिए हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ आ. जिज्ञासा जी!

      हटाएं

  6. वाह सर 👏👏
    सच में लाजवाब पंक्ति👌

    जवाब देंहटाएं
  7. वाह!!!
    बहुत ही सुन्दर सराहनीय सृजन।

    जवाब देंहटाएं

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