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संवेदना

 


 कदम-कदम पर जब हम अपने चारों ओर एक-दूसरे को लूटने-खसोटने की प्रवृत्ति देख रहे हैं, तो ऐसे में इस तरह के दृष्टान्त गर्मी की कड़ी धूप में आकाश में अचानक छा गये घनेरे बादल से मिलने वाले सुकून का अहसास कराते हैं। मैं चाहूँगा कि पाठक मेरा मंतव्य समझने के लिए सन्दर्भ के रूप में अख़बार से मेरे द्वारा लिए संलग्न चित्र में उपलब्ध तथ्य का अवलोकन करें। एक ओर वह इन्सान है, जिसने एक व्यक्ति के देहान्त के बाद उससे अस्सी हज़ार रुपये में गिरवी लिये मकान पर अपना अधिकार कर उसकी पत्नी सोनिया वाघेला को परिवार सहित सड़क पर  बेसहारा भटकने के लिए छोड़ दिया और दूसरी ओर वह दिनेश भाई, जिन्होंने उस पीड़ित महिला की स्थिति जान कर अपनी संस्था एवं वाघेला-समाज के लोगों की मदद से सेवाभावी लोगों से चन्दा एकत्र कर आवश्यक धन जुटाया और उस परिवार का  घर वापस दिलवाया। धन्य है यह महात्मा, जिसने अपने नेतृत्व में अन्य सहयोगियों को भी मदद के लिए उत्साहित कर यह पुण्य कार्य किया। 


सोनिया बेन घरबदर होने के बाद छः माह से फुटपाथ पर रह कर कबाड़ बीन कर अपने चार बच्चों के साथ गुज़र-बसर कर रही थी। इस लम्बी अवधि में कई और लोग भी उस महिला के हालात देखते हुए वहाँ से निकले होंगे, लेकिन किसी की संवेदना नहीं जागी, किसी का दिल नहीं पसीजा। हममें से भी कई लोगों ने कभी-न-कभी ऐसे मंजर देखे होंगे, लेकिन क्या किसी ने भी बेचारगी का ऐसा जीवन जीने वाले प्राणियों के निकट दो क्षण रुक कर उनके हालात जानने का प्रयास किया है, क्या किसी के मन में उनकी मदद करने का विचार आया है? कोई बिरला ही 'दिनेश भाई' होता है, जो ऐसा करता है। 


हर व्यक्ति हमारी तरह भाग्यशाली नहीं होता। हमें ईश्वर ने साधन-सम्पन्न बनाया है, इसका कारण हमारी कोई व्यक्तिगत योग्यता नहीं है। हममें से कोई तो मुँह में चांदी का चम्मच ले कर पैदा हुआ था, तो कुछ को ऐसी अनुकूल परिस्थितियाँ मिल गई थीं कि वह स्वयं को एक अच्छा जीवन पाने के योग्य बना सके।  

ईश्वर की इस दुनिया में वंचितों की भरमार है। क्या हमारा दायित्व नहीं बनता कि हम किसी की तो यथासम्भव मदद करें?

तो, क्यों न हम भी 'दिनेश भाई' बनें? यदि हम स्वार्थी हैं, तो भी यह एक नफे का सौदा है। ऐसे नेक कार्य से ईश्वर हम पर मेहरबान होगा। यदि हम ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं करते, तो भी ऐसे सत्कर्म से मन को शान्ति और सन्तुष्टि अवश्य प्राप्त होगी। 


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टिप्पणियाँ

  1. आपका आभार आ. 'मयंक' जी! अवश्य उपस्थित होऊँगा।
    सादर ...

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  2. "यदि हम ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं करते, तो भी ऐसे सत्कर्म से मन को शान्ति और सन्तुष्टि अवश्य प्राप्त होगी। "

    बिल्कुल सही कहा आपने सर, ऐसे नेक काम से मन को शांति अवश्य मिलेगी
    मगर यहां तो संवेदनाएं मर चुकी है सभी को शांति नहीं धन चाहिए।
    एक सच्ची धटना को साझा कर,मरे हृदय में संवेदना जगाने की आप की इस कोशिश को सत सत नमन सर 🙏

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सुन्दर प्रतिक्रिया के लिए आभार महोदया कामिनी जी!

      हटाएं
  3. पर यह भी सत्य है कि अब अधिकाँश लोग संवेदनहीन हुए जा रहे हैं.

    जवाब देंहटाएं

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