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इन्तहा (कहानी)

                                                                             

                                    
                                                

"एक तो रास्ता इतना ख़राब, ऊपर से अंधेरे में बाइक की हैडलाइट के सहारे चलना... तौबा-तौबा! यार अनिरुद्ध! अब और कितना दूर है तुम्हारा माधोपुर?" -बाइक पर पीछे बैठे डॉ. आलोक सिन्हा ने हल्की झुंझलाहट के साथ अपने मित्र से पूछा।

"बस, एक किलोमीटर दूर है अब तो। पहुँचने को ही हैं हम लोग।" -सड़क पर नज़र गड़ाए डॉ. अनिरुद्ध ने जवाब दिया। 

माधोपुर पहुँचे दोनों मित्र, तो रात के साढ़े आठ बज रहे थे। अपने चाचा पण्डित गोरख नाथ की तबीयत ख़राब होने की ख़बर मिलने से अनिरुद्ध अपने घनिष्ठ मित्र  डॉ. अलोक को साथ लेकर यहाँ आया था। पण्डित जी के घर पहुँच कर बाइक एक ओर खड़ी कर के अनिरुद्ध ने दरवाजा खटखटाते हुए आवाज़ लगाई- "चाचाजी!" 

लगभग 65 वर्षीय बुज़ुर्ग महिला ने दरवाजा खोला- "आओ बेटा, भीतर आ जाओ।"

पहले अनिरुद्ध और फिर आलोक ने उनके पाँव छूए। दोनों के भीतर आने पर कमरे में एक ओर रखे तख़्ते पर दरी बिछा कर वृद्धा ने उन्हें इशारे से बैठने को कहा। अपने साथ लाये मिनि बैग एक तरफ रख कर दोनों बैठ गये। पण्डित जी दीवार के पास पड़ी मूँज वाली खटिया पर सोये हुए थे, शायद नींद में थे। 

"मैं जगाती हूँ इन्हें। तुम्हारा इन्तज़ार ही कर रहे थे, बस अभी ही आँख लगी है। दिन भर दर्द से परेशान हो रहे थे।" -पण्डित जी की बाँह छू कर जगाते हुए पंडिताइन ने कहा। 

पण्डित जी ने कराहते हुए आँखें खोलीं। पहले आलोक और फिर अनिरुद्ध पर उनकी नज़र पड़ी, धीमी आवाज़ में बोले- "आओ गुड्डन, भई बहुत देर लगा दी तुमने!"

"चाचा जी, यह डॉ. आलोक हैं, मेरे अच्छे दोस्त हैं। यह कहीं बाहर गये हुए थे, दोपहर में ही लौटे हैं। आपकी तबीयत के बारे में बताने पर तुरन्त तैयार हो कर मेरे साथ आ गए।"

"बहुत मेहरबानी डॉक्टर साहब! बहुत तकलीफ़ पड़ी आपको।... पर बेटा, तुम भी तो डॉक्टर ही हो, इनको क्यों परेशान किया?" -पण्डित जी ने कहा। 

"अरे चाचा जी, मैं तो जानवरों का डॉक्टर हूँ। आपकी तकलीफ समझना मेरे बस का नहीं है।" -मुस्कराया अनिरुद्ध। 


आलोक ने महसूस किया, पण्डित जी को बोलने में बहुत परेशानी हो रही थी। उसने आगे बढ़ कर उनका हाथ थामा और नाड़ी देखते हुए आत्मीयता से बोला- "चाचा जी, मुझे कोई तकलीफ़ नहीं हुई है। और हाँ, मुझे 'आलोक' कह कर ही बुलाइये,  बच्चा हूँ आपका! अच्छा, अब मुझे यह बताइये, क्या तकलीफ़ हुई है आपको?"

पण्डित जी ने स्नेहिल दृष्टि से आलोक की ओर देखा, बोले- "बेटा, मुझे दो-तीन दिन से दायीं तरफ पेड़ू में दर्द हो रहा है। कभी-कभी तो बहुत ज़्यादा दर्द होता है।"

आलोक ने पण्डित जी से कुछ और जानकारियाँ लीं और भली-भांति उन्हें चैक किया, तत्पश्चात अनिरुद्ध की तरफ उन्मुख हुआ- "अनिरुद्ध! जहाँ तक मुझे लगता है, चाचा जी को हर्निया की प्रॉब्लम है। इन्हें अपने शहर के अस्पताल ले जाकर एक्ज़ामिन करना होगा। कन्फर्म होने पर जल्दी ही ऑपरेशन भी करना पड़ेगा।"

"कब आना पड़ेगा मुझे अस्पताल? बेटा, अधिक खर्चीला तो नहीं होगा न इलाज?" -पण्डित जी के चेहरे पर चिन्ता की रेखाएँ उभर आई थीं। 

"अरे चाचा जी, खर्च की आप चिन्ता न करें। आपका यह भतीजा कब काम आएगा? मैं कल ही आकर आपको ले जाता हूँ।" -अनिरुद्ध ने कहा।

"नहीं बेटा, कुछ खर्च तो मैं भी बर्दाश्त कर सकता हूँ। अच्छा हो जाऊँगा तो पूजा-पाठ से फिर कमा लूँगा।"

"हाँ जी, आप बिल्कुल फ़िक्र न करें। मैं कल आता हूँ आपको लेने। कल मेरी कार भी गैराज से आ जाएगी, आराम से ले चलूँगा आपको।... अच्छा चाचा जी, अब हम चलते हैं।" -कह कर अनिरुद्ध ने आलोक की तरफ देखा। 

आलोक ने सहमति में सिर हिला दिया। 

"लेकिन बेटा, अब इतनी रात कैसे जाओगे? कृष्ण पक्ष की रात और शहर तक का टूटा-फूटा सुनसान रास्ता। कहीं कोई जीव-जनावर मिल जाए, उसका भी खतरा!... नहीं भई, तुम लोग यहीं गाँव में ही रुक जाओ।" -पंडिताइन ने आशंका जताते हुए कहा।

"पर चाची जी, सोयेंगे कहाँ हम? घर में इतनी जगह कहाँ है?" -अनिरुद्ध ने दुविधा व्यक्त की।

"मुझे मालूम था, तुम यही कहोगे। मैंने तुम्हारे चाचा जी को कई बार कहा है कि पीछे खाली जगह में एक कमरा उठा लो, पर मानें तब ना! मगर तुम चिन्ता मत करो। गाँव के बाहर की तरफ वाला मुखिया सेठ मगन लाल जी का जो कमरा है न, तुम्हें तो पता ही है, वह उन्होंने गाँव के लोगों के बाहरी मेहमानों के लिए खाली कर दिया है। उसमें दो-तीन लोगों के सोने की अच्छी व्यवस्था भी की हुई है। बहुत अच्छे हैं वह। मैं उनसे कमरे की चाबी ले आती हूँ।  पास में ही घर है उनका। तुम वहाँ रात गुज़ार लो, फिर सुबह अपने यहाँ चाय-वाय पी कर निकल जाना।" 

पण्डित जी का भी यही मत था। 

दोनों मित्रों ने आपस में परामर्श किया। उन्होंने यहाँ आते समय साँझ हो जाने के बाद रास्ते में हुई असुविधा महसूस की ही थी, सो चाची जी का प्रस्ताव मान लेना उन्हें श्रेयस्कर लगा। पण्डिताइन चाबी लेकर आ गईं और दोनों मित्र उन दोनों को प्रणाम कर उस कमरे के लिए निकल चले।  

उस कमरे को अनिरुद्ध कभी-कभार जब गाँव आता तो देखता था। उसने सुना था, उसमें इस गाँव के मुखिया मगन लाल अपना कुछ सामान रखे हुए थे। अब उन्होंने इसे जन-सेवार्थ खोल दिया है, यह जान कर अच्छा लगा उसे। कमरे पर पहुँच कर उसने ताला खोला और दोनों भीतर गये। कमरे का दरवाजा मजबूत तो लग रहा था, किन्तु कमरे का निर्माण बहुत पुराना होने से उसमें दो-तीन छेद हो गये थे। अक्टूबर का महीना समाप्ति पर था, इसलिए वातावरण में हल्की ठंडक रहने लगी थी। फिर भी उन छेदों से ठंडी  हवा भीतर आने की अधिक सम्भावना नहीं थी।  

दोनों ने कमरे में एक दृष्टि डाली। वहाँ दो सिंगल बैड की खाट रखी हुई थीं. जिन पर कामचलाऊ, लेकिन साफ़-सुथरे गद्दे बिछे हुए थे। तकिया, कम्बल, वगैरह भी सामान्यतः अच्छे ही थे। कमरे की उत्तरी दीवार में एक खिड़की व दक्षिण में एक बाथरूम था। यह सारी व्यवस्था देख कर दोनों मुखिया जी के प्रति श्रद्धावनत हो गए। दोनों अपने साथ चेंज करने के लिए कुछ लाये नहीं थे, अतः यूँ ही बिस्तर पर पसर गये। अधकच्चे रास्ते पर बाइक के सफर की थकान थी, सो जल्दी ही नींद भी आ गई।  

सुबह होने से पहले ही गुर्राहट की एक आवाज़ से आलोक की नींद खुल गई। वह चौंक कर उठ बैठा। घडी में देखा, पाँच बजने में कुछ देर थी। एक बार पुनः दरवाजे के बाहर से धीमे स्वर में किसी पशु के गुर्राने की आवाज़ आई। उसने अनिरुद्ध को जगाया-” अनिरुद्ध!... अनिरुद्ध! क्या यार, बेहोश हो के सो रहे हो, उठो भाई!”

“क्या हो गया भाई, सोने दो न!” -उनींदे स्वर में अनिरुद्ध ने कहा और करवट लेकर मुँह दूसरी ओर कर लिया। 

आलोक कुछ कहे, इसके पहले ही बाहर खड़ा पशु फिर गुर्राया। इस बार गुर्राहट की आवाज़ में कुछ तेजी थी। अब तो अनिरुद्ध भी चौंक कर उठ गया और बोला- “अरे, यह तो शेर के गुर्राने की आवाज़ है।”

“क्या कह रहे हो? क्या सच में शेर है बाहर?”

“हाँ आलोक, यह गुर्राहट शेर की ही लगती है। देखो, वह दरवाजे के पास ही खड़ा है। दरवाजे के छेद में उसकी चमकती आँख दिखाई दे रही है।”

आलोक ने ध्यान से देखा, बाहर उजाला नहीं हुआ था, किन्तु फिर भी एक चमकीली आँख भीतर देखने की कोशिश कर रही थी। वह सहम गया, बोल पड़ा- “अब?”

अनिरुद्ध ने कोई जवाब नहीं दिया और खाट से उठ कर अपने बैग से टॉर्च निकाली और दरवाजे के पास जाकर छेद से रौशनी डाली। पास खड़ा पशु तुरंत दरवाजे से दूर हो गया। अनिरुद्ध ने दरवाजे के इस छेद से टॉर्च सटा  कर दूसरे अपेक्षाकृत छोटे छेद से बाहर झाँका। टॉर्च से बाहर जा रही कुछ रौशनी व तारों की मद्धिम रोशनी के मिले-जुले प्रभाव में दिखाई दे रही वह आकृति निश्चित ही शेर की थी। उसने आलोक से भी देखने को कहा। आलोक ने भी देख कर पहचाना, यह शेर ही था। शेर दरवाजे से कुछ दूर रोशनी के दायरे से परे खड़ा होकर इधर ही देख रहा था। आलोक छेड़ से दूर हट गया और अनिरुद्ध ने छेद में अपनी नज़र गड़ा दी। दोनों कुछ देर प्रतीक्षा करते रहे। शेर अब भी कुछ-कुछ देर में धीमे स्वर में गुर्रा रहा था। 

“आश्चर्य है आलोक, यह अपने स्वभाव के अनुरूप अब तक दहाड़ा नहीं है, जबकि वह यह तो जान ही गया है कि इंसान कमरे के भीतर है। यह तो अँधेरे में भी कुछ सीमा तक देख लेते हैं और फिर गंध से तो जान ही जाते हैं।”

“यार, इसके स्वभाव का विश्लेषण करने के बजाय तुम यह सोचो कि इससे कैसे बचा जाए?” -आलोक ने अपनी दुविधा बताई। 

“घबराओ मत, अगर इसको आक्रमण करना होता तो अब तक तो वह किवांड़ों पर पंजा ज़रूर मारता। वैसे किंवाड़ पुराने भले ही हैं, पर मज़बूत हैं, जल्द टूटने की आशंका नहीं। थोड़ी देर में उजाला हो जाएगा और गाँव में लोगों की हलचल शुरू होते ही यह चला जायेगा।”

वह लोग यूँ बातें ही कर रहे थे कि शेर दरवाजे से दूर होता हुआ सड़क के दूसरे किनारे पर चला गया। शेर वहाँ जा कर रुक गया और सिर नीचे झुका दिया। कुछ ही मिनट में बाहर सुबहपूर्व का हल्का उजाला हुआ। अनिरुद्ध ने ध्यान से देखा, शेर का शावक जमीन पर पड़ा था और शेर उसे चाट रहा था। अनिरुद्ध वेटेरनरी डॉक्टर था। उसने प्राणी-विज्ञान भली-भांति पढ़ा था, अनुमान लगा लिया कि वह शेर न होकर, शेरनी है और सड़क पर पड़ा शावक उसी का बच्चा है और शायद घायल अवस्था में है। उसने आलोक को बताया कि वह शेर नहीं शेरनी है और फिर धीरे से कुंडी हटा कर दरवाजा थोड़ा-सा खोला। 

आलोक ने अनिरुद्ध को दरवाजा खोलते देखा तो घबरा कर उसके पास आया और उसका हाथ पकड़ कर बोला- “पागल हो रहे हो? मरने का इरादा है क्या? दरवाजा बन्द करो फ़ौरन।”

“श्श्श! खामोश रहो आलोक! ध्यान से देखो, शेरनी मुँह घुमा कर इधर देख रही है। जरा-सा भी उसका इरादा हमला करने का होता तो अब तक वह हमारी ओर लपक आती।” 

“तो क्या वह तुमसे दोस्ती करना चाहती है?”

अनिरुद्ध मुस्कराया- “आलोक, उसका अंदाज़ तो दोस्ताना ही है। उसका शावक शायद घायल हो गया है और उसे मदद की ज़रुरत है।”

“तो ऐसा करो, उन दोनों को भीतर बुला लो और खाट पर लिटा कर इलाज करो उसका। मैं गिलास में पानी लाकर पेश करता हूँ उनको।” -आलोक ने झुँझला कर व्यंग्य किया। 

“ख़याल तो ठीक ही है तुम्हारा। मैं इलाज अवश्य करूँगा उसका, लेकिन बाहर जाकर। तुम दरवाजा भीतर से बंद कर लो। ” -अनिरुद्ध की आँखों में एक निश्चय था। उसने अपना बैग उठाया और बाहर की ओर कदम रखा। 

हतप्रभ था आलोक, ‘अनिरुद्ध इतना दुस्साहस कैसे कर रहा है, कहीं उसका दिमाग तो नहीं खिसक गया?’

अनिरुद्ध बाहर निकल कर सधे कदमों से सड़क पार करता शेर की तरफ बढ़ा। आलोक ने अभी दरवाजा बंद नहीं किया था। वह सांस रोक कर उसकी तरफ देख रहा था और ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था कि कोई अनहोनी न हो।… और तब उसकी आँखों ने वह अद्भुत दृश्य देखा। शेरनी अनिरुद्ध को निकट आता देख शावक से कुछ दूर खिसक गई। अनिरुद्ध ने उसकी आँखों से झलक रही निरीह करुणा देखी और विश्वस्त हो कर शावक के पास बैठ गया। उसने देखा, नन्हा शावक जीवित था, लेकिन अर्धमूर्छा में था। उसके दाएँ पाँव में गहरा घाव था। उसने चेहरा घुमा कर शेरनी की तरफ देखा, वह एकदम शान्त खड़ी थी, उसके हाव-भाव में हिंसा परिलक्षित नहीं हो रही थी। शावक के सिर को सहला कर उसने अपने बैग से फर्स्ट ऐड का सामान निकाला। उसके घाव को पोटाश लिक्विड से अच्छी तरह से साफ किया और टिंचर बेंजॉइन का फाहा लगा कर उसके पाँव पर ठीक से बैंडेज किया। अब एक बार फिर उसने पीछे मुड़ कर देखा। शेरनी ने क्षण भर के लिए अपनी आँखें मूँद कर खोलीं व कृतज्ञ भाव से उसे निहारने लगी। अनिरुद्ध इस हिंसक मूक पशु के चेहरे के अहिंसक स्नेहिल भाव पढ़ कर गद्गद हो उठा। आज उसे अपने पशु-चिकत्सा सम्बन्धी ज्ञान व प्रोफेशन की सार्थकता व महत्ता पर गर्व हो रहा था। कभी वह शेरनी को तो कभी शावक को देखता इस कोमल अनुभूति के दिव्यामृत को अपनी आँखों से पी ही रहा था, आत्मविभोर हो रहा था, कि धांय-धाँय की दो आवाज़ें आई। इस आवाज़ के साथ ही शेरनी दर्दभरी कराह के साथ धरती पर गिर पड़ी।   

शेरनी को यूँ गिरते देख अनिरुद्ध दुःख से तड़प कर चीख उठा। आलोक भी तब तक उसके पास आ गया था। उन्होंने देखा, दो ग्रामीण कुछ ही दूरी पर खड़े थे। उनमें से एक के हाथ में बन्दूक थी। वह लोग इनके पास आये।                 बन्दूक वाला आदमी बोला- "अगर हम समय पर नहीं आ जाते, तो यह शेर आपको मार कर खा जाता। मेरा घर उधर सामने ही है। यह तो अच्छा हुआ मेरी नज़र इधर पड़ गई।… पर बाबूजी, आप लोग यहाँ सड़क पर क्या कर रहे थे?" 

अनिरुद्ध, जो अनायास हुई इस घटना की पीड़ा से अभी तक मुक्त नहीं हो सका था, अपने आक्रोश को दबा कर बोला- “ओह, यह तुम लोगों ने क्या अनर्थ कर दिया? बिना सोचे-समझे इस निरीह प्राणी को गोली मार दी। मैं तो इसके घायल बच्चे का इलाज कर रहा था और यह बेचारी तो चुपचाप खड़ी देख रही थी। उफ्फ़…!”

अनिरुद्ध की आवाज़ रुंध गई, उसकी आँखें भर आई थीं । सिर पकड़ कर वह नीचे बैठ गया। अब तक खामोशी, भय व उत्सुकता से पूरे घटनाक्रम को निर्निमेष देख रहा किंकर्तव्यविमूढ़ आलोक भी, जो अपने दोस्त के पशु-प्रेम को देख अभिभूत था, शेरनी के साथ अचानक हो गई यह अनहोनी देख कर आहत हो उठा था। उसने घायल पड़ी शेरनी की तरफ देखा। वह निरीह भाव से अपने शावक को निहार रही थी। आलोक का मन करुणा से भर उठा। अपने डर के लिए स्वयं को मन ही मन धिक्कारने लगा वह। 

ग्रामीण, जो उत्साह व शाबासी की उम्मीद लेकर आये थे, अब अपराधग्रस्त हो गए थे। धीमे क़दमों से वापस लौटने लगे। उनके कदमों की आहट सुन, अनिरुद्ध ने सिर ऊपर उठाया और बोला- ”सुनो भैया, तुम मुखिया जी को तनिक इधर भेजो, जरा जल्दी से।”

“ठीक है बाबूजी! अनजाने में हुई भूल के लिए हमें माफ़ करना।”, कह कर वह चले गए। 

शावक अभी भी अर्धमूर्छा की हालत में ही था। अनिरुद्ध ने पहले शावक को सहलाया व फिर क्षमा मांगने की मुद्रा में शेरनी के पास जाकर खड़ा हो गया। शेरनी ने अधमुंदी आँखों से एक अनिवर्चनीय दृष्टि अनिरुद्ध पर डाली। नहीं कहा जा सकता कि उस दृष्टि में उसके प्रति कृतज्ञता थी या उसे मारक रूप से चोटिल किये जाने का कारण जानने की व्यथित उत्कण्ठा! शेरनी के पास बैठ कर अनिरुद्ध ने उसे भी दो मिनट तक सहलाया। उसने ध्यान से देखा, एक गोली उसके सीने के पास लगी थी और दूसरी गले के पास। उसकी सांसें बहुत धीमी चल रही थीं। गोली बाहर निकाल कर तुरंत यहीं पर उपचार किया जा सके, इसकी कोई सुविधा व सम्भावना नहीं थी। तत्काल उसे शहर ले जाना भी सम्भव नहीं था। वह समझ गया कि अधिक देर तक इसका ज़िन्दा रहना मुश्किल है। आगे की योजना बनाने के ख़याल से वह वहाँ से उठा और आलोक से परामर्श करने लगा। पांच-सात मिनट में ही मुखिया जी आ गये। 

मुखिया जी को सम्भवतः इस घटना के बारे में उन ग्रामीणों ने बता दिया था, औपचारिक अभिवादन के बाद बोले- “डॉक्टर साहब, भला करने आये वह लोग अनजाने में पाप कर बैठे। सीधे-सादे लोग हैं, माफ़ कर देना उनको।”

“जो हो गया, उसका तो अब कुछ हो नहीं सकता मुखिया जी! आप बस इतनी तकलीफ करना कि हम इसको इलाज के लिए शहर ले जाने के लिए टीम भेजें, तब तक इसकी और इसके शावक की सुरक्षा के लिए किसी को यहाँ जिम्मेदारी दे दें। मैं कल वापस गाँव आऊंगा, तब उसका मेहनताना दे दूंगा।”

“डॉक्टर साहब, हम गाँव वाले इतने भी निकम्मे नहीं हैं कि इस नेक काम का भी पैसा लें। आप निश्चिन्त रहें, यह दोनों जीव यहाँ सुरक्षित रहेंगे।”

अनिरुद्ध आश्वस्त होकर शावक के पास गया, उसे प्यार से सहलाया। आलोक गिलास में पानी ले आया था, सो उसके हाथ से गिलास ले कर अनिरुद्ध ने पानी की कुछ बूँदें दो-तीन बार शावक के मुख में डालीं। शावक ने पानी को चाट लिया व धीरे से अपनी आँखें खोल कर अनिरुद्ध की तरफ और फिर सिर टेढ़ा कर अपनी माँ की ओर देखा। उसे एक बार और सहला कर अनिरुद्ध शेरनी के पास गया। आलोक व मुखिया जी भी उसके साथ ही शेरनी के पास आ गए। शेरनी चुपचाप पड़ी यह सब देख रही थी। अनिरुद्ध ने उसके सिर पर हाथ रखा। शेरनी की आँखों से आँसू झर आये। उसने अपना अगला पंजा ऊपर उठाया, जिसे अनिरुद्ध ने अपने हाथों में थाम लिया। आलोक व मुखिया मंत्रमुग्ध से यह अलौकिक दृश्य देख रहे थे। शेरनी ने अब शावक को देखने के लिए पूरी शक्ति लगा कर अपना सिर ऊपर उठाया, लेकिन उसका सिर स्थिर नहीं रह सका और नीचे लुढ़क गया। शेरनी का शरीर शिथिल पड़ पद रहा था। उसकी निस्तेज हो रही आँखों में अनिरुद्ध को सुकून की चमक दिखाई दी, शायद इसलिए कि वह अपने अंतिम क्षणों में भी आश्वस्त थी कि उसका शावक सुरक्षित हाथों में था।

शेरनी अब मर चुकी थी। भावुक-मन अनिरुद्ध फूट-फूट कर रो पड़ा। आलोक व मुखिया जी ने हाथ पकड़ कर उसे उठाया और सान्त्वना दी। 

दोनों मित्रों ने निश्चय किया कि शावक बहुत छोटा है, सो उसे अपने साथ ही ले जायेंगे, क्योंकि विलम्ब होने से उसके उपचार में अधिक जटिलता पेश आने की आशंका थी। उन्होंने मुखिया जी को हिदायत की कि दोपहर में शववाहिनी के आने तक शेरनी के शव का ध्यान रखवायें। 

मुखिया जी के द्वारा भरोसा दिलाये जाने पर अनिरुद्ध ने धन्यवाद देते हुए कहा- “यहाँ गाँव में आने वाले सभी मेहमानों के लिए आपने इस कमरे की जो आरामदायक व्यवस्था की है, निश्चित ही यह आपकी सज्जनता का प्रमाण है। कृपया एक कष्ट और करें कि मेरे चाचा पं. गोरख नाथ जी को सूचित करवा दें कि हम अभी वहाँ नहीं आ रहे, हमें सीधा ही शहर के लिए निकलना पड़ेगा। कल मैं वापस आऊँगा ही।”  

हामी भर के मुखिया जी ने नमस्कार किया। अनिरुद्ध कमरे से अपने बैग्स लेकर आया, कमरे की चाबी मुखिया जी को दी और उनसे विदा ली। उसने आलोक को ड्राइव करने के लिए कहा और स्वयं शावक को गोद में लेकर पीछे बैठ गया। 

"अनिरुद्ध, यदि वन विभाग ने कोई आपत्ति की तो? क्या शावक को यूँ साथ ले जाना उचित होगा?" -ड्राइव करते हुए आलोक ने शंका जताई।

"तुम टेंशन मत लो यार, मैं सम्हाल लूँगा सब।" -अनिरुद्ध ने उसे समझाया।

   गाँव की ओर लौट रहे मुखिया जी जाती हुई बाइक को  पीछे मुड़-मुड़ कर देख रहे थे और सोच रहे थे, ‘जो कुछ अभी यहाँ देखा था, क्या वह सब सच था? इंसानियत की बेइन्तहा मिसाल थी यह तो! आज जब एक इन्सान ही दूसरे इन्सान को ‘इन्सान’ नहीं समझता, तो ऐसे में जान जोखिम में डाल कर एक जंगली हिंसक जानवर के प्रति भी इतनी दया और ममत्व रखने वाला यह डॉक्टर कोई पुण्यात्मा ही है।’


                                                                 *********                      


टिप्पणियाँ

  1. दिल को छूती बहुत ही सुंदर कहानी।

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  2. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (25-1-22) को " अजन्मा एक गीत"(चर्चा अंक 4321)पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
    --
    कामिनी सिन्हा

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    1. चर्चा-मंच पर मेरी इस कहानी को स्थान देने के लिए हार्दिक आभार आ. कामिनी जी!

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  3. मानवीय गुणों से भरपूर हृदय स्पर्शी कथा।
    हिंसक पशु भी कृतज्ञता जताते हैं ।
    सुंदर कथा।

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    उत्तर
    1. धन्यवाद... तथ्यान्वेषण के लिए आभार महोदया!

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  4. मनुष्य के इसी शंकित भय ने इन निरीह जानवरों को खूँखार बनाया होगा.
    मानवीय संवेदना पर आधारित बहुत ही हृदयस्पर्शी लाजवाब कहानी।

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  5. संवेदनशील हृदयस्पर्शी कहानी आदरणीय..आजकल जहाँ इन्सान, इन्सान के लिए संवेदनाविहीन होता जा रहा है वहाँ अनिरुद्ध का शेरनी और शावक के प्रति संवेदनशीलता दर्शाना ..इंसानियत की इन्तहां ही है🙏🏽🙏🏽🙏🏽
    सादर नमन

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    1. आपकी सराहनात्मक सुन्दर टिप्पणी के लिए अन्तःस्तल से आभारी हूँ पूजा जी! ब्लॉग पर आने के लिए बहुत धन्यवाद!

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  6. असंवेदनशीलता के इस युग में मानव और पशु प्रेम की ये कथा अद्भूत है आदरनीय सर 👌👌👌मन को छू गयी आपकी कथा।हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई स्वीकार करें 🙏🙏

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    उत्तर
    1. आपकी इस सहृदय टिप्पणी के लिए बहुत आभार आ. रेणु जी! मेरा अहोभाग्य कि आपको मेरी कहानी अच्छी लगी। नोटिफिकेशन नहीं मिलने के कारण प्रत्युत्तर में विलम्ब हुआ, तदर्थ क्षमा चाहता हूँ।

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                                          (1) पहाड़ियों से घिरे हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में एक छोटा सा, खूबसूरत और मशहूर गांव है ' मलाणा ' । कहा जाता है कि दुनिया को सबसे पहला लोकतंत्र वहीं से मिला था। उस गाँव में दो बहनें, माया और विभा रहती थीं। अपने पिता को अपने बचपन में ही खो चुकी दोनों बहनों को माँ सुनीता ने बहुत लाड़-प्यार से पाला था। आर्थिक रूप से सक्षम परिवार की सदस्य होने के कारण दोनों बहनों को अभी तक किसी भी प्रकार के अभाव से रूबरू नहीं होना पड़ा था। । गाँव में दोनों बहनें सबके आकर्षण का केंद्र थीं। शान्त स्वभाव की अठारह वर्षीया माया अपनी अद्भुत सुंदरता और दीप्तिमान मुस्कान के लिए जानी जाती थी, जबकि माया से दो वर्ष छोटी, किसी भी चुनौती से पीछे नहीं हटने वाली विभा चंचलता का पर्याय थी। रात और दिन की तरह दोनों भिन्न थीं, लेकिन उनका बंधन अटूट था। जीवन्तता से भरी-पूरी माया की हँसी गाँव वालों के कानों में संगीत की तरह गूंजती थी। गाँव में सबकी चहेती युवतियाँ थीं वह दोनों। उनकी सर्वप्रियता इसलिए भी थी कि पढ़ने-लिखने में भी वह अपने सहपाठियों से दो कदम आगे रहती थीं।  इस छोटे

पुरानी हवेली (कहानी)

   जहाँ तक मुझे स्मरण है, यह मेरी चौथी भुतहा (हॉरर) कहानी है। भुतहा विषय मेरी रुचि के अनुकूल नहीं है, किन्तु एक पाठक-वर्ग की पसंद मुझे कभी-कभार इस ओर प्रेरित करती है। अतः उस विशेष पाठक-वर्ग की पसंद का सम्मान करते हुए मैं अपनी यह कहानी 'पुरानी हवेली' प्रस्तुत कर रहा हूँ। पुरानी हवेली                                                     मान्या रात को सोने का प्रयास कर रही थी कि उसकी दीदी चन्द्रकला उसके कमरे में आ कर पलंग पर उसके पास बैठ गई। चन्द्रकला अपनी छोटी बहन को बहुत प्यार करती थी और अक्सर रात को उसके सिरहाने के पास आ कर बैठ जाती थी। वह मान्या से कुछ देर बात करती, उसका सिर सहलाती और फिर उसे नींद आ जाने के बाद उठ कर चली जाती थी।  मान्या दक्षिण दिशा वाली सड़क के अन्तिम छोर पर स्थित पुरानी हवेली को देखना चाहती थी। ऐसी अफवाह थी कि इसमें भूतों का साया है। रात के वक्त उस हवेली के अंदर से आती अजीब आवाज़ों, टिमटिमाती रोशनी और चलती हुई आकृतियों की कहानियाँ उसने अपनी सहेली के मुँह से सुनी थीं। आज उसने अपनी दीदी से इसी बारे में बात की- “जीजी, उस हवेली का क्या रहस्य है? कई दिनों से सुन रह