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मार्च, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

डायरी के पन्नों से ..."कोई आशिक़ न कह दे..." (मुक्तक)

मेरे अध्ययन-काल की एक रचना (मुक्तक) - "कोई आशिक़ न कह दे" .  मेरे महाविद्यालय के साथियों द्वारा बहुत सराही गई थी यह रचना....   ज़ुल्म  तो बहुत सहा है पर फरियाद नहीं करता,  प्यार तो करता हूँ उनको, पर याद नहीं करता। आवाज़ सुनकर ही कहीं कोई आशिक़ न कह दे,                            यही है वो राज़ कि मैं किसी से बात नहीं करता।                                                   *****

ऑटो वाला (सत्य-कथा)

                 कई वर्ष पहले का वाक़या है। मेरे विभाग के एक साथी अधिकारी शर्मा जी के एक दुर्घटना में देहांत होने की सूचना मिलने पर मैं उनके दाह-संस्कार में शामिल होने बस से सुबह डूंगरपुर के लिए रवाना हुआ। एक तो मन पहले से ही उदास था, दूसरे बस में भीड़ बहुत ज्यादा थी तो मन उद्विग्न हो उठा। करेला ऊपर से नीम चढ़ा की तर्ज पर डूंगरपुर पहुँचने के बीस मिनट पहले बस का टायर पंक्चर हो गया तो बस विलम्ब से पहुंचनी ही थी। मैं बस-स्टैंड से शर्मा जी के घर गया तो पता चला कि शवयात्रा निकले आधा घंटा हो चुका है। श्मशान घाट सीधे ही पहुँचने के अलावा कोई चारा नहीं था अतः घर से बाहर आकर ऑटो के लिए इधर-उधर देखा, लेकिन कोई ऑटो नज़र नहीं आया क्योंकि इनका घर मुख्य सड़क से थोड़ा भीतर की ओर था। संयोग से एक परिचित बाइक पर मेरे पास से निकल रहे थे कि उनकी नज़र मुझ पर पड़ी और बाइक रोक कर मुझसे पूछा कि कहाँ जाना है। मैंने उनसे तहसील चौराहे पर छोड़ने की प्रार्थना की। तहसील चौराहा वहाँ से लगभग दो किमी दूर था। उन्होंने मुझे वहाँ छोड़ दिया।   वहाँ से सुरपुर गाँव (जहाँ शहर का श्मशान है) की ओर रास्ता जाता है, यह मेरी जा

मंज़िल प्यार की (कहानी)

                      एक साहसी युवती के जीवन-संघर्ष की कहानी...                                      'डाकिया'- दरवाज़े की ओर से आई आवाज़ से मैं चौंक पड़ी। मैंने देखा, मेरी मेड, कांता दरवाज़े की तरफ जा रही थी। इधर मैं तेजी से बैड रूम की ओर बढ़ी और अपने बिस्तर पर निढाल हो कर पड़ गई।  मुझे बैडरूम की ओर जाते देख कान्ता को निश्चित ही आश्चर्य नहीं हुआ होगा क्योंकि वह मेरी मनःस्थिति समझती थी।      मन बेवज़ह आशंकित हो उठा था। मेरी आँखें पलकों का बोझ नहीं सह पा रही थीं। पलकें आँखों पर झुक आयीं और अनायास ही...बंद पलकों में मेरा अतीत तैरने लगा।   .....मैं और राजेश एक ही कॉलोनी में रहते थे। राजेश का परिवार नया-नया ही उस कॉलोनी में आया था। मैं और राजेश दोनों एक ही कॉलेज में प्रथम वर्ष में पढ़ते थे, लेकिन सैक्शन अलग थे इसलिए दोनों एक-दूसरे से अपरिचित थे।     उस दिन हमारे कॉलेज में 'वादविवाद प्रतियोगिता' का आयोजन था। इस प्रतियोगिता में कुल नौ प्रतिभागी थे और लड़की प्रतिभागी केवल मैं थी। मैं विषय के पक्ष में बोलने वाले  प्रतिभागियों की पंक्ति में बैठी थी और विपक्षी चार  प्रतिभागी हमारे स

शेरा (लघुकथा)

              सुमन ने शाम की चाय की अंतिम घूँट ली और तभी अचानक उसे याद आया कि चेतना के घर जाना है। ग्रीष्मावकाश के बाद आज स्कूल का तीसरा दिन था। तबियत ख़राब होने से चेतना आज स्कूल नहीं आई थी और दिन में एक बार उससे मिले बिना सुमन रह नहीं सकती थी। शाम ढ़लने को थी सो सुमन आनन-फानन में तैयार हो गई। चेतना का घर उसके घर से मुश्किल से आधा-पौन किलोमीटर की दूरी पर ही था सो पैदल ही चल दी। घर से निकल कर गली में पहुंची ही थी कि चौराहे से कुछ ही पहले शेरा अपने एक साथी के साथ दिख गया। उसका पूरा नाम शेर सिंह है पर मोहल्ले में सब उसे शेरा ही कहते हैं।       शेरा इस मोहल्ले का दादा माना जाता था। कुछ चवन्नी छाप चार-पाँच लड़के उसके शागिर्द थे। गली के नुक्कड़ पर भोला की चाय की थड़ी पर बेंच या मोढ़ों पर पसर कर गप-शप करना, सिगरेट का धुंआ उड़ाना और आती-जाती लड़कियों पर फब्तियां कसना, यही दिनचर्या थी इनकी। लड़कियां अधिकतर तो चुपचाप निकल जातीं यह सोच कर कि लफंगों को क्या मुँह लगाएं! कोई इक्की-दुक्की लड़की अपने घर शिकायत भी करती तो घर वाले समझाते कि जब मोहल्ले में ही रहना है तो इनसे जहाँ तक हो सके, नहीं उलझना ही ठी

"ऐ सांवली हसीना..."

सन 1964 में रिलीज़ हुई मूवी 'ज़िन्दगी' मैंने वर्ष 1965 में महाराजा कॉलेज में अध्ययन के दौरान कॉलेज से भाग कर मेटेनी शो में देखी थी। इस मूवी में शायर हसरत जयपुरी के गीत 'पहले मिले थे सपनों में' की दो पंक्तियाँ मुझे आज तक कंफ्यूज़ करती रही हैं। हसरत जयपुरी जी से मिलने का समय नहीं निकाल सका, इसलिए उनसे भी नहीं पूछ सका। वह पंक्तियाँ हैं- 'ऐ सांवली हसीना, दिल तूने मेरा छीना' तथा 'गोर बदन पर काला आँचल, और रंग ले आया' तो समझ में यह नहीं आया कि जो हसीना सांवली थी उसका बदन गोरा क्योंकर रहा होगा? मान भी लें कि वह हसीना सांवली ही पैदा हुई थी और बदन पर किसी प्रतिष्ठित कम्पनी का गोरा बनाने वाला क्रीम लगाती थी तो वह क्रीम उसने चेहरे पर क्यों नहीं लगाया? गाना गाते हुए हीरो की नज़र ज्यादातर तो उसके चेहरे पर ही रही होगी न! बस इतनी ही बात मानी जा सकती है कि या तो हसीना ने गलती की थी या फिर विधाता ने ही चेहरा और बदन अलग-अलग रंग का गढ़ दिया था और शायर ने हसीना को

ख़याली दुनिया (कहानी)

         आपको उद्वेलित कर देगी मेरी यह कहानी!... बहुत भोला होता है बचपन! कभी-कभी वास्तविकता से परे काल्पनिक रचनाओं, समाज में व्याप्त आडम्बरों और भ्रान्त विश्वासों का अवाञ्छित प्रभाव बाल-मन को दुष्प्रेरित कर अनर्थ के गर्त में धकेल देता है और पीछे रह जाती है परिजनों की अपरिमार्जनीय व्यथा! प्रस्तुत है एक बालक के मनोवेग का चित्रण करती यह करुण कहानी-  'ख़याली दुनिया' .....      प्रेरणा अपने ऑफिस में बैठी एक महत्वपूर्ण फाइल देखने में व्यस्त थी कि टेबल पर रखा उसका मोबाइल फोन फिर बज उठा। अभी-अभी में तीन-चार जगह से कॉल आ चुके थे सो उसने झुंझला कर बिना देखे ही फोन काट दिया। पाँच-सात सेकंड में दुबारा मोबाइल घनघनाया। 'ओफ्फोह' उसके मुँह से निकला और फोन उठा लिया। उधर से उसके पति सुदेश की उखड़ी-उखड़ी आवाज़ आई- "प्रेरणा, फोन क्यों काट रही हो? जल्दी से जनरल हॉस्पिटल पहुँचो।"     "अरे, क्या हो गया? ठीक तो हो तुम?"- घबरा कर प्रेरणा ने पूछा।     " हाँ, मैं ठीक हूँ, पर तुम तुरन्त रवाना हो जाओ और हॉस्पिटल के मेडिकल वॉर्ड नंबर 3A में पहुँचो।"     प्रेरणा कुछ