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मंज़िल प्यार की (कहानी)

                     एक साहसी युवती के जीवन-संघर्ष की कहानी...       
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       'डाकिया'- दरवाज़े की ओर से आई आवाज़ से मैं चौंक पड़ी। मैंने देखा, मेरी मेड, कांता दरवाज़े की तरफ जा रही थी। इधर मैं तेजी से बैड रूम की ओर बढ़ी और अपने बिस्तर पर निढाल हो कर पड़ गई।  मुझे बैडरूम की ओर जाते देख कान्ता को निश्चित ही आश्चर्य नहीं हुआ होगा क्योंकि वह मेरी मनःस्थिति समझती थी।
     मन बेवज़ह आशंकित हो उठा था। मेरी आँखें पलकों का बोझ नहीं सह पा रही थीं। पलकें आँखों पर झुक आयीं और अनायास ही...बंद पलकों में मेरा अतीत तैरने लगा।

  .....मैं और राजेश एक ही कॉलोनी में रहते थे। राजेश का परिवार नया-नया ही उस कॉलोनी में आया था। मैं और राजेश दोनों एक ही कॉलेज में प्रथम वर्ष में पढ़ते थे, लेकिन सैक्शन अलग थे इसलिए दोनों एक-दूसरे से अपरिचित थे।
    उस दिन हमारे कॉलेज में 'वादविवाद प्रतियोगिता' का आयोजन था। इस प्रतियोगिता में कुल नौ प्रतिभागी थे और लड़की प्रतिभागी केवल मैं थी। मैं विषय के पक्ष में बोलने वाले  प्रतिभागियों की पंक्ति में बैठी थी और विपक्षी चार  प्रतिभागी हमारे सामने की पंक्ति में बैठे थे। विपक्षियों में से एक लड़का जो मेरे ठीक सामने बैठा था, अन्य लोगों की नज़र बचा कर बार-बार मुझे देख रहा था। मैं पहले तो स्वयं को असहज महसूस कर रही थी, लेकिन बाद में अनजाने में मैं भी इस खेल में शामिल हो गई। चार प्रतिभागियों के बाद मेरा नम्बरआया और मैं अपनी तैयारी और विपक्ष में बोलने वाले दोनों लड़कों के पॉइंट्स के आधार पर अपनी समझ से अच्छा ही बोल आई। मेरे बाद में विपक्ष से जिस का नाम पुकारा गया वह मुझे चोरी-छिपे देखने वाला लड़का राजेश था। उसने मेरे कुछ बिन्दुओं को काटते हुए अपने तर्क दिये। मैंने उसे ध्यान से सुना और सुन कर हँसी भी बहुत आई थी। बाद वाले अन्य प्रतियोगी क्या बोले , मैं उनकी ओर कतई ध्यान नहीं दे सकी। प्रतियोगिता के बाद हमारा पहला परिचय हुआ। बातचीत के दौरान हमें ज्ञात हुआ कि हमारे मकान पास-पास ही थे, केवल एक मकान हमारे बीच में था। राजेश का बातचीत का अन्दाज़ मुझे लुभा रहा था और हम बड़ी देर तक बातें करते रहे थे।
    यह संयोग ही था कि इसके दो-तीन दिन बाद जब मैं अपने मकान की छत पर टहलती हुई एक नॉवेल पढ़ रही थी, राजेश भी उसकी छत पर आ गया था। अनायास ही हमारी नज़रें मिली और हम दोनों मुस्करा दिये। इसके बाद अक्सर एक-दूसरे को देखने की ललक में हम छत पर चले जाते थे।  कभी-कभार ऐसा भी होता था कि एक के छत पर नहीं आने पर दूसरे को निराश होना पड़ता था, लेकिन फिर अघोषित रूप से हमारा समय निश्चित हो गया और यथासंभव हम ठीक समय पर छत पर होते थे।
   अधिक दिनों तक यूँ एक-दूसरे को दूर से निहारने की ज़रुरत नहीं रही, क्योंकि एक दिन हमारी मुलाकात कॉलेज के कॉरिडोर में हो गई। इसके बाद तो हम अक्सर मिलने लगे।
    एक दिन राजेश ने मुझसे बातचीत के दौरान कहा- "कामिनी! मेरे साथ कल मूवी देखने चलोगी?"
    मैंने संकोचवश उस समय तो कोई वादा नहीं किया पर बाद में एक सहेली से सलाह ली तो मेरी हिम्मत बंधी।  अगले ही दिन हम मूवी देखने गये। इतना नजदीक बैठने का यह हमारा पहला अवसर था। हम हाथ में हाथ डाले मूवी से अधिक एक-दूसरे को देख रहे थे। हमने साथ में मूवी देखी ज़रूर पर बाहर निकल कर यह नहीं बता सकते थे कि मूवी में क्या देखा था।
    उस दिन के बाद तो हमारी दोस्ती को मानो पंख ही लग गए। पता ही नहीं चला कि कब हमारी दोस्ती प्यार में बदल गई। …और फिर हमारा एक-एक पल एक-दूसरे की यादों के पहरे में बीतने लगा। हमारी सावधानी के कारण हमारे पेरेंट्स को हमारे सम्बन्धों का अनुमान भी नहीं लग सका था। पढाई में तो हम लोग कोई कोताही नहीं करते थे पर घर और कॉलेज के अलावा हम दोनों का शेष दुनिया से जैसे कोई वास्ता ही नहीं रह गया था।
 
    किसी घरेलू उत्सव में भाग लेने के लिए एक दिन मम्मी ने अपने पीहर (मेरा  ननिहाल) जाने का कार्यक्रम बनाया। राजेश को बातों-बातों में पिछले दिन मैंने यह बात बताई थी। राजेश को यह भी पता था कि दिन में पापा ऑफिस जाने के कारण घर पर नहीं होते हैं सो वह मुझसे मिलने घर आ गया। मैं उसे देख कर चौंकी। मुझे उसका यूँ अचानक आना अच्छा तो लगा था पर फिर भी उसे वापस लौट जाने को कहा। मैं डर रही थी कि उसे आते किसी ने देख न लिया हो।
    राजेश ने मेरी आँखों में देखा- "तुम्हारी आँखें तुम्हारे शब्दों का समर्थन नहीं कर रही हैं कामिनी! सच कहो, क्या तुम्हें अपने प्यार पर भरोसा नहीं है?"
    "लेकिन राजेश, अभी तुम प्लीज़ चले जाओ। किसी ने तुम्हें यहाँ देख लिया तो हमारा प्यार रुसवा हो जायेगा, हम बदनाम हो जायेंगे।"
    राजेश ने मेरी बात अनसुनी कर दी। उसने क्षण भर को मेरी आँखों में देखा और मैं कुछ और कहती उसके पहले ही आगे बढ़ कर मुझे अपने आगोश में लेकर मेरे होठों को अपने होठों की गिरफ्त में ले लिया। मैं कुछ देर कसमसाई और उससे आज़ाद होने की कोशिश की पर मेरा निर्बल विरोध क्षीण होता चला गया। फिर तो लता की तरह मैं उससे लिपट गई और मेरा काँपता बदन उसकी बाँहों में मोम की मानिंद पिघलने लगा। उसने मुझे अंक में भर लिया और बैडरूम की ओर ले चला।
    घंटे भर बाद  मेरी हथेली चूम कर, मुझे आश्वस्त कर वह चला गया। बिस्तर पर शिथिल पड़ी थी मैं, लेकिन मेरी साँसों में राजेश समाया हुआ था। धीमे-धीमे उठी मैं और वाशरूम में जाकर शॉवर लिया। अब मैं स्वयं को बहुत हल्का महसूस कर रही थी लेकिन मेरे तन-बदन में एक अजीब-सी खुमारी बस गई थी।
 
    एक माह बाद ही वार्षिक परीक्षा होने वाली थी। हम दोनों ने खूब मेहनत की और परिणामस्वरूप दोनों प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। अब हम द्वितीय वर्ष में आ गए थे।
     इसी दौरान हमारा दो बार और संपर्क हुआ। हमें इसका पछतावा भी नहीं था। क्या हुआ जो हमने अभी शादी नहीं की थी, हम दोनों एक-दूजे को तहेदिल से प्यार करते थे और ज़िन्दगी साथ बिताने को कटिबद्ध थे। मुझे गर्व था कि मेरा राजेश किस्से-कहानियों वाले कुछ छिछले टाइप के प्रेमियों जैसा नहीं है।
     एक दिन कॉलेज में पढ़ते समय अचानक बहुत घबराहट महसूस हुई तो मैं कक्षा छोड़कर डॉक्टर को दिखाने उसके क्लिनिक पर गई। डॉक्टर ने जो कुछ बताया उससे तो मेरे होश ही उड़ गये। मैं माँ बनने वाली थी, तीसरा महिना चल रहा था। मैं वापस कॉलेज नहीं जा सकी और भारी क़दमों से बाहर निकली, स्कूटी उठाई और घर चली गई। मम्मी को तबियत ख़राब होना बता कर अपने बैडरूम में जाकर लेट गई। अगले-पिछले कई विचार मेरे मस्तिष्क को झिंझोड़ रहे थे। सोना चाहा पर नींद कहाँ आने वाली थी, सो पड़ी रही बिस्तर पर। मम्मी ने दो-तीन बार आवाज़ लगाई तब जाकर उठी।
     अगले ही दिन राजेश को पार्क में बुला कर सूचित किया तो मेरी उम्मीद के विपरीत वह ख़ुशी के मारे चिल्लाया- "ओह कामिनी, तो मैं इस छोटी उम्र में ही पापा बन जाऊंगा! थैंक यू सो मच! कब आयेगा यह मेरी गोदी में?"
     मैंने कुछ रोष से कहा- "पागल हो गए हो तुम! क्या होगा हमारा, कुछ पता है?"
    "अरे, मैं सब सम्हाल लूँगा, तुम बिलकुल मत घबराओ। मैं दो-तीन दिन में ही मम्मी-पापा से बात करता हूँ, हम जज्दी ही शादी करेंगे।"
    "सच?"- मैंने खुश होकर पूछा।
    "हाँ कामिनी, तुम बिल्कुल टेन्शन मत लो।"
    घर लौटी तो मेरा मन शान्त था।
    तीसरे-चौथे दिन जब हम दोनों का पीरियड खाली था, राजेश के बुलावे पर मैं लाइब्रेरी में उससे मिली। लाइब्रेरी में उस समय कुल चार-पाँच लड़के ही बैठे थे। एक तरफ थोड़ा एकांत देख कर हम दोनों भी बैठ गए। राजेश ने बिना कोई भूमिका बांधे मेरी आँखों में झांकते हुए पूछा- "कामिनी, हम यह शहर छोड़ देंगे, क्या तुम मेरे साथ चल सकोगी?"
   "तुम हर जगह मुझे साथ पाओगे राजेश, लेकिन ऐसा क्या हो गया कि हम शहर ही छोड़ दें?"
  "मैंने परसों मम्मी-पापा से अपनी शादी के लिए बात की थी। दोनों ने साफ इनकार कर दिया। मैं चुपचाप उठ कर चला आया। कल सुबह मम्मी से अलग से बात की, उन्हें पूरी हकीकत बता दी और कहा कि हमारी शादी होना ज़रूरी है।  उन्होंने कल शाम पापा को सारी बात बताई।"- लम्बी सांस लेकर राजेश ने पुनः कहा- "सब सुन-जान कर उन्होंने जो कुछ कहा, मैं तुम्हें नहीं बता सकता। बस कामिनी,अब हम यहाँ नहीं रहेंगे।"
    राजेश ने जो कुछ कहा, बड़े ध्यान से सुना मैंने, लेकिन इसके बाद एक अबूझ ख़ामोशी हम दोनों के बीच छा गई। राजेश लाइब्रेरी की रैक से निकाली हुई किताब के पन्ने पलटने लगा। उसके प्रश्न का जवाब देने की मनःस्थिति नहीं थी मेरी, एक नज़र राजेश पर डाल कर भारी मन से लाइब्रेरी से बाहर निकल गई।
    दो दिन बाद कॉलेज में अवकाश था, मैं घर पर ही थी। तब तक मन भी कुछ संयत हो गया था। लंच के बाद मैंने मम्मी को बिना किसी लाग-लपेट सब-कुछ बता दिया। मम्मी के पूछने पर कि क्या राजेश ने उसके पेरेंट्स को इस बाबत जानकारी दी है, मैंने कह दिया कि मुझे नहीं पता।
    दो मिनट कुछ सोचने के बाद मम्मी में ट्रेडिशनल मम्मी की आत्मा समा गई, बोलीं- "तुझे नहीं मालूम कम्मो, तूने कितनी बड़ी गलती कर दी है। बस अब एक ही उपाय है, हम डॉक्टर के पास चलेंगे और इसे गिरा देंगे। मैं तेरे पापा को भी कुछ नहीं बताऊंगी और चुपचाप सब निपट जायेगा। एक डॉक्टर को जानती हूँ मैं, वह यह सब बड़ी गोपनीयता से करती है, पुलिस में भी उसकी अच्छी रसूखात है।"
    मम्मी की बात सुन कर काँप उठी मैं- "नहीं मम्मा, मैं ऐसा नहीं कर सकती। एक बेक़सूर अबोध को अजन्मा ही मार देना पाप है। आप भी तो एक औरत हो, माँ हो, मुझे ऐसी सलाह कैसे दे सकती हो?"
    मेरी बात सुनते ही वह बिफर पड़ीं- "बेवकूफ लड़की, पाप तो तू पहले ही कर चुकी है। कोई कसर छोड़ी है तूने, जो पाप-पुन्य की बात कर रही है। मैंने जो कहा है वही होगा, समझी! नाक नहीं कटवानी मुझे लोगों के बीच। कल चलेंगे हम डॉक्टर के पास।"
    और कोई बात होती तो उनकी अवहेलना करने का साहस नहीं करती मैं, किन्तु यह प्रस्ताव मेरे लिए किसी कीमत पर स्वीकार्य नहीं था। मैं अपने प्यार की निशानी को नष्ट नहीं होने दे सकती थी, दृढ स्वरों में कह दिया मैंने- "नहीं माँ, मैं ऐसा नहीं होने दूँगी। एक भूल हो चुकी है, अब दूसरी नहीं करूँगी। हम दोनों शादी करेंगे और यह बच्चा जन्म भी लेगा।"
    "तुम्हें इतना भरोसा है कि वह तुमसे शादी कर ही लेगा? उसने इन्कार कर दिया तो?"
    "मुझे उस पर अपने-आप से भी ज़्यादा भरोसा है।... और सोचो मम्मी, यदि उसने मना कर भी दिया तो क्या मैं किसी और से शादी कर उसको और स्वयं को धोखा दे सकूंगी? नहीं, मैं ऐसा नहीं कर सकती। सच मानो मम्मी, मैं आत्महत्या भी नहीं करूंगी। मैं बच्चे को जन्म दूँगी और हर परिस्थिति से लड़ूँगी।
    मेरी दृढ़ता देख मम्मी हक्की-बक्की रह गईं, उनकी आँखों से झर-झर आंसू बहने लगे। उनकी मनोदशा देख मेरा मन उद्विग्न हो उठा। मैंने धीरे से उनके सिर पर हाथ रखा, लेकिन उन्होंने तेजी से मेरा हाथ झटक दिया।
    मम्मी की हालत देख कर बहुत दुखी थी मैं, लेकिन करती भी तो क्या! उनके पास से उठ कर चुपचाप अपने कमरे में गई और जाकर बिस्तर पर लुढ़क गई। कब आँख लगी नहीं पता, पर देर शाम आँख खुली। मम्मी ने भी उठाने की कोशिश नहीं की थी, शायद उनका गुस्सा वाजिब भी था।
    मम्मी ने शायद पापा को कुछ नहीं बताया था क्योंकि उन्होंने कोई भी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की और हमेशा की तरह सहज भाव से ही मुझसे बात करते रहे थे।
    राजेश ने ठान लिया था कि अब यह शहर छोड़ना ही है। मेरा वजूद अब पूरी तरह से राजेश से जुड़ गया था सो उसके निर्णय से अलग रहना न तो मैं चाहती थी और न ही यह संभव था। घर छोड़ कर जाने के बाद हमारे पेरेंट्स पर क्या गुज़रेगी, इसका अहसास हम दोनों को था, पर भविष्य का प्रश्न भी तो मुँह बाये हमारे सामने खड़ा था। हमने  गुप-चुप घर छोडने की अपनी योजना बनानी शुरू कर दी। पढाई छोड़ने का निर्णय कठिन ज़रूर था पर और कोई चारा भी तो नहीं था। राजेश ने हमारे शुरूआती खर्चों के सम्बन्ध में व्यवस्था बताई कि उसके स्वयं के बैंक-खाते में उसकी बचत का कुछ रूपया पड़ा था। मेरे बैंक-खाते में भी कुछ थोड़ा-बहुत पैसा तो था ही, कुछ मेरे पहनने के आभूषण भी मैंने सहेज लिए थे।
     लगभग एक सप्ताह में सब तैयारी हो जाने के बाद हम अपने सबसे नजदीकी शहर पूना पहुँच गये। वहाँ कर्वे रोड़ पर एक छोटा-सा मकान तलाश कर व्यवस्थित होने के बाद सबसे पहला काम हमने आर्य समाज पद्धति से विवाह करने का किया। वैसे तो हमारे लिए यह बात मायने नहीं रखती थी, हमारा दैहिक व आत्मिक मिलन तो पहले ही हो चुका था पर सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से यह आवश्यक था।
     कहाँ तो स्नातक योग्यता के बाद हम दोनों का राज्य सेवा में जाने का सपना था और कहाँ अब छोटी-मोटी नौकरी की तलाश करना हमारी मजबूरी बन गई थी। इतने बड़े शहर में बिना किसी परिचय के नौकरी की तलाश बहुत ही कठिन काम था। काफी कोशिश के बाद भी किसी नौकरी का जुगाड़ नहीं हुआ।
     एक दिन शाम को जब बाहर से राजेश घर आया तो थका-हरा होने के बावजूद उसके चेहरे पर चमक थी।
    "नौकरी मिल गयी क्या?"- मैंने उत्साहित हो कर पूछा।
    "नहीं, नौकरी-वोकरी तो नहीं मिली पर नये-नये एक दोस्त से एक सलाह मिली है, हर्षद नाम है उसका।"
   'गोली मारो न उसके नाम को, यह बताओ कि क्या सुझाया है उसने?"- मैंने राजेश को पानी का गिलास थमाते उत्सुक होकर पूछा।
   पानी पी कर राजेश ने बताया- "मैंने और हर्षद ने फ़ौज में जाने का इरादा किया है और दो-एक दिन में फॉर्म भी भर कर भेज देंगे। तुम्हें तो पता है मुझे NCC का 'B'सर्टिफिकेट मिला हुआ है। उससे भी मुझे मदद मिलेगी। यदि सब-कुछ सही हो जाता है तो पंद्रह-बीस दिन में ही बीस सप्ताह की बेसिक ट्रेनिंग के लिए जाना होगा। बस एक बार सलेक्शन हो जाये।"  राजेश की आँखों में आशा की किरण झिलमिला रही थी।
    मैं दूर का नहीं सोचना चाहती थी, कई दिनों के बाद उसके चेहरे चेहरे पर आई ख़ुशी ने मुझे बहुत राहत दी थी। भोजन के बाद सोते समय राजेश फ़ौज में जाने की कल्पना कर वहां की ज़िन्दगी की बातें रस ले ले कर बताये जा रहा था कि न जाने कब मेरी आँख लग गई।
    अगले दिन हमने इस बात पर चर्चा की कि यदि राजेश का फ़ौज के लिए चयन हो जाता है तो मैं किस तरह से अकेले में गुज़र करूंगी, पीछे से आर्थिक रूप से तो कोई दिक्कत नहीं आएगी! सब तरह से संतुष्ट होने के बाद वह फॉर्म लेकर आया और उसकी प्रविष्टियां भरने लगा, लेकिन फॉर्म पूरा भरने-भरते उसने निराशा से अपना सिर झटका। उसने मुझे बताया कि फॉर्म के एक कॉलम के अनुसार फ़ौज में भर्ती के लिए प्रार्थी अविवाहित होना चाहिए।
     अपना सपना पूरा न हो पाने से राजेश बहुत दुखी हुआ पर उसने स्वयं पर काबू पाया और फिर नौकरी की तलाश में जुट गया। उसका प्रयास अंततः सफल हुआ और एक बैंक में उसे गार्ड का जॉब मिल गया। उस जॉब के लिए आवश्यक खानापूर्ति में उसके दोस्त हर्षद ने मदद की और उसने ड्यूटी पर जाना शुरू कर दिया।
    राजेश फ़ौज में नहीं जा सका था पर अक्सर कहता कि अपने बेटे को फ़ौज में ज़रूर भेजूंगा, वह आर्मी में अफसर बनेगा।
   
    समय अपनी गति से निकल रहा था। दो माह बाद हमारे घर नया मेहमान आ गया। यह हमारा छोटा-सा संसार था और हम खुश थे।
    हमारा बेटा कनिष्क जब चार माह का हुआ तो एक दिन राजेश ने मुझे भी कहीं नौकरी कर लेने का सुझाव दिया।
    "लेकिन राजेश, अगर मुझे नौकरी मिल भी गई तो नौकरी के साथ कनिष्क को कैसे सम्हालेंगे? घर पर कौन रहेगा?"- मैंने प्रश्न किया।
    "अरे घर की चिंता न करो। कनिष्क घर का दरवाजा भीतर से बंद कर खेलता रहेगा, किसी को अंदर नहीं आने देगा।"- राजेश हँस कर बोलै।
    "सीरियसली बात करनी है या ठिठोली ही करोगे?"- कृत्रिम रोष दिखते हुए कहा मैंने।
    "नाराज़ न होओ कामिनी! नौकरी मिल जायगी तुम्हें तो कनिष्क को सम्हालने के लिए कोई मेड रख लेंगे।"
    सुन कर मैं कुछ आश्वस्त हुई और राजेश ने मेरे लिए भी जॉब ढूंढना शुरू कर दिया। राजेश के बैंक-मैनेजर की सिफारिश से जल्दी ही मुझे एक प्राइवेट कम्पनी में रिसेप्शनिस्ट का काम मिल गया। ईश्वर मेहरबान था, हमें एक मेड भी मिल गई। इसकी तलाश में भी हमें राजेश के मित्र हर्षद की मदद मिली थी।
     हमारी यह मेड कान्ता अनपढ़ थी लकिन बहुत संजीदा औरत थी और मुझसे कुछ तीन-चार साल ही बड़ी थी। कुछ ही दिनों में उसने अपने सलीकेदार काम और कनिष्क की सही साज-सम्हाल से हमारा विश्वास जीत लिया।हमें महसूस ही नहीं होने दिया उसने कि वह कोई बाहरी इंसान है।
    कनिष्क एक साल का हुआ तो बड़ी धूमधाम से हमने उसका पहला बर्थ डे मनाया। इस अवसर पर हमें हमारे मम्मी-पापा बहुत याद आये, कुछ क्षणों के लिए मन उदास भी हुआ। पता नहीं उन्होंने कभी हमारे बारे में सोचा भी होगा या नहीं! हमें उनकी याद तो आती थी और घर छोड़ कर चले आने का दुःख भी था पर वापस उनसे मिलने जाने के ख़याल को दिल में कभी बसने नहीं दिया। हम नहीं चाहते थे कि उनकी और हमारी शांत ज़िन्दगी में कोई खलल पड़े।
 
     हम अपनी इस छोटी-सी दुनिया में बहुत खुश थे। सब-कुछ ठीक चल रहा था कि एक मनहूस दोपहर में राजेश की बैंक से आये दो कर्मचारियों ने मेरी कंपनी में आकर मुझे जो सूचना दी उससे मेरे पाँवों तले की जमीन ही खिसक गई। उन्होंने बताया कि उनके बैंक में डकैती की नीयत से आये दो बदमाशों को रोकने पर एक ने राजेश पर गोली चला दी। सीने के पास गोली लगने से वह गंभीर रूप से घायल हो गया है और उसे अस्पताल में ICU में भर्ती कराया है।
रोते-हाँफते मैं उनके साथ अस्पताल पहुंची। दस मिनट तक तो मुझे राजेश से मिलने ही नहीं दिया गया, लेकिन बाद में डॉक्टर्स ने बाहर निकल कर मेरा परिचय मिलते ही मुझे तुरत राजेश के पास भेज दिया।
    राजेश की आँखें बंद थीं। मैं खामोश खड़ी थी, नहीं समझ पा रही थी कि मुझे उसे पुकारना चाहिए या नहीं, कहीं मेरी आवाज़ उसके लिए हानिप्रद नहीं हो जाये! उसकी नाक में ऑक्सीजन सिलेण्डर की ट्यूब लगी हुई थी। हाथ की नस में भी एक सुई वाली ट्यूब लगी हुई थी। तभी एक डॉक्टर भीतर आया। सामने लगी हुई हार्ट मॉनिटर स्क्रीन पर चल रही रंगीन रेखाओं को उसने ध्यान से देखा और मुझे बाहर जाने के लिए हाथ से इशारा किया तो अचानक उसका हाथ पेशेंट टेबल पर रखी छोटी सी बोतल को छू गया और बोतल नीचे जा गिरी। मैं आवाज़ सुन कर ठिठक कर रुक गई। आवाज़ शायद राजेश के कानों में भी पड़ी और उसकी नज़र मुझ पर पड़ी।
     "का...मि........नी!"- कमज़ोर, लड़खड़ाती आवाज़ में उसने पुकारा। इसके साथ ही उसने अपने हाथ से ऑक्सीजन की ट्यूब नाक से निकाल दी। डॉक्टर 'अरे-अरे' कहता हकबका कर ट्यूब वापस नाक में डालने के लिए आगे बढ़ा, लेकिन राजेश ने रोक दिया और मुझे पास आने का इशारा किया। मैं तेजी से उसके पास पहुंची।
     "कामिनी, अपना साथ इतना ही था.... मैं जा रहा हूँ...."-राजेश की साँस उखड़ रही थी...."अपना और कनिश्  .... "- पूरी शक्ति लगाकर उसने अपने अंतिम शब्द कहे। डॉक्टर ने उसकी खुली आँखें बंद कर दी।
     मैं बेतहाशा चीख पड़ी। मेरी चीख और रुदन की आवाज़ सुनते ही एक नर्स भीतर आई और मेरा हाथ पकड़ कर बाहर ले गई।
 
   ...सब ख़त्म हो गया था, राजेश हमारी दुनिया से बहुत दूर जा चुका था। 
    करीब पंद्रह दिन बाद बैंक मेनेजर एक अन्य बैंक-कर्मी के साथ राजेश की कर्तव्य्प-निष्ठा के पुरस्कार-स्वरूप एक लाख रुपये का चैक देने हमारे घर आये तथा उसके जीवन-बीमा, आदि की राशि प्रोसेज़ होने के बाद पंहुचा देने का आश्वासन भी दिया। मेरी समझ में राजेश ने अपना कर्तव्य पूरा किया थाअतः उसकी मौत की एवज में चैक लेने से मैंने इन्कार कर दिया, लेकिन मेनेजर साहब के बहुत आग्रह करने पर बेमन से ही सही,स्वीकार करना पड़ा। लगभग एक माह में राजेश के लिए दी जाने वाली अन्य समस्त राशि का चैक भी मेनेजर साहब ने भिजवा दिया।
     राजेश के जाने के साथ ही मेरी जीने की चाहत भी ख़त्म हो चुकी थी, लेकिन कनिष्क के लिए मुझे जीना था सो जीती रही। कान्ता ने मेरा साथ नहीं छोड़ा। वह मेरे घर की एक सदस्य ही बन गई थी अब तो। कनिष्क का तो पूरा ध्यान रखती ही थी, मेरी दिनचर्या का भी उसको पूरा ख़याल रहता था। मेरा चाय पीने का समय कब होता है, कब खाना खा लेना चाहिए, सभी बातों का मुझसे अधिक ध्यान वह रखती थी। सच कहूँ तो एक तरह से मेरी गार्जियन ही बन गई थी वह। कुछ समय बाद मेरा काम देखते हुए मेरी कम्पनी ने मुझे पदोन्नति भी दे दी।
    कनिष्क मेरी और कान्ता की देख-रेख में पलता-बढ़ता रहा।

     बालपन की मनोहारी उछल-कूद व किशोरावस्था की चंचलता को फांदते हुए अब कनिष्क युवावस्था की देहलीज पर पाँव रख चुका था। उसने बारहवीं कक्षा (10+2) अच्छे अंकों से उत्तीर्ण कर ली थी। मैं इस बात को भूली नहीं थी कि राजेश उसे फ़ौज में भेजना चाहता था, इसलिए जब-तब उसे इसके लिए प्रेरित करती रहती थी। इसका असर हुआ और फ़ौज में जाने का जज़्बा उसके जेहन में समा गया। अब मेरा काम ख़त्म हो गया था।
    कनिष्क ने शॉर्ट सर्विस कमीशन की लिखित परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। शारीरिक परीक्षण व इंटरव्यू से निकलने के बाद स्वास्थ्य-परीक्षण भी हो गया और तब 'ऑफिसर्स ट्रेनिंग अकैडेमी' में 49 सप्ताह की ट्रेनिंग के लिए चेन्नई चला गया।  मैं अपने राजेश की ख्वाहिश को परवान चढ़ता देख बहुत खुश थी।

   ट्रेनिंग पूरी करने के बाद कनिष्क घर लौटा तो वह फौजी की ड्रैस में ही था। मेरा बेटा अब एक बलशाली, ओजस्वी जवान नज़र आ रहा था। घर आते ही उसने मेरे पाँव छूए और कान्ता को भी प्रणाम किया और फिर  अपने पिता की तस्वीर के पास जाकर नमन किया। मेरी ऑंखें ख़ुशी से छलछला आईं और उसे अपने वक्ष से लगा लिया। कान्ता ने भी उसके माथे को प्यार से चूमा। मैंने देखा, कान्ता की ऑंखें भी भर आई थीं। मेरा बेटा आर्मी ऑफीसर बन गया था। मेरी डबडबाई आँखों ने तस्वीर में बैठे राजेश को निहारा और शिकायत भी की कि आज तुम क्यों नहीं हो!
    
  ... "बीवी जी, डाकिया आया था।"- कान्ता ने आकर मुझे अतीत से जगा दिया। बिना रुके, 'एक मिनट में आई', यह कह कर वह वापस कमरे से बाहर चली गई। 
     कनिष्क को आर्मी की ड्यूटी ज्वाइन किये लगभग डेढ़ माह होने को आया था। किसी अनहोनी की आशंका में मैं धड़कते दिल से कान्ता का इन्तजार करने लगी। कान्ता ने लौट कर अपने हाथों में थामा पत्र मुझे दिया और "पहले भी आई थी पर आप सो रही थीं।" कह कर बाहर निकल गई। शीघ्रता से पत्र खोल कर देखा। पत्र कनिष्क ने लिखा है, यह देख मेरी साँस में साँस आई। पत्र में लिखी इबारत एक साँस में पढ़ डाली मैंने, लिखा था-
    'मेरी अच्छी और प्यारी माँ, चरण स्पर्श! अपने पहले वेतन की राशि रु. 23000/- मैंने आपके बैंक-खाते में ट्रांसफर कर दी है। मेरा काम तो आपके दिए हुए पैसे से अगले महीने तक चल जायेगा, मेरी चिंता मत करना। आशीर्वाद दो माँ कि आपके व भारत माँ के प्रति मेरा प्यार और सम्मान मेरी अंतिम श्वास तक बना रहे। तुम हर पल याद आती हो माँ!
    अभी बस इतना ही, ड्यूटी पर जाना है। कान्ता मौसी को मेरा प्रणाम कहना। 
   -कनिष्क'
    मैंने पत्र को चूमा और ह्रदय से लगा लिया। पलकों की कोरों से छलक आये अश्रु-बिन्दुओं को पोंछ कर पत्र हाथ में लिये मैं राजेश की तस्वीर के सामने पहुंची- 'तुम्हारे बेटे का पत्र आया है राजेश! मुझे ज़रुरत नहीं, फिर भी उसने अपनी पहली तनख्वाह भेजी है। उसे आशीर्वाद दो प्रिय!'

न जाने कब तक यूँ ही खड़ी मैं राजेश को देखती रही, जो मेरे लिए तस्वीर नहीं था।  

 


  
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                                   “Mother’s day” के नाम से मनाये जा रहे इस पुनीत पर्व पर मेरी यह अति-लघु लघुकथा समर्पित है समस्त माताओं को और विशेष रूप से उन बालिकाओं को जो क्रूर हैवानों की हवस का शिकार हो कर कभी माँ नहीं बन पाईं, असमय ही काल-कवलित हो गईं। ‘ऐसा क्यों’ आकाश में उड़ रही दो चीलों में से एक जो भूख से बिलबिला रही थी, धरती पर पड़े मानव-शरीर के कुछ लोथड़ों को देख कर नीचे लपकी। उन लोथड़ों के निकट पहुँचने पर उन्हें छुए बिना ही वह वापस अपनी मित्र चील के पास आकाश में लौट आई। मित्र चील ने पूछा- “क्या हुआ,  तुमने कुछ खाया क्यों नहीं ?” “वह खाने योग्य नहीं था।”- पहली चील ने जवाब दिया। “ऐसा क्यों?” “मांस के वह लोथड़े किसी बलात्कारी के शरीर के थे।” -उस चील की आँखों में घृणा थी।              **********

व्यामोह (कहानी)

                                          (1) पहाड़ियों से घिरे हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में एक छोटा सा, खूबसूरत और मशहूर गांव है ' मलाणा ' । कहा जाता है कि दुनिया को सबसे पहला लोकतंत्र वहीं से मिला था। उस गाँव में दो बहनें, माया और विभा रहती थीं। अपने पिता को अपने बचपन में ही खो चुकी दोनों बहनों को माँ सुनीता ने बहुत लाड़-प्यार से पाला था। आर्थिक रूप से सक्षम परिवार की सदस्य होने के कारण दोनों बहनों को अभी तक किसी भी प्रकार के अभाव से रूबरू नहीं होना पड़ा था। । गाँव में दोनों बहनें सबके आकर्षण का केंद्र थीं। शान्त स्वभाव की अठारह वर्षीया माया अपनी अद्भुत सुंदरता और दीप्तिमान मुस्कान के लिए जानी जाती थी, जबकि माया से दो वर्ष छोटी, किसी भी चुनौती से पीछे नहीं हटने वाली विभा चंचलता का पर्याय थी। रात और दिन की तरह दोनों भिन्न थीं, लेकिन उनका बंधन अटूट था। जीवन्तता से भरी-पूरी माया की हँसी गाँव वालों के कानों में संगीत की तरह गूंजती थी। गाँव में सबकी चहेती युवतियाँ थीं वह दोनों। उनकी सर्वप्रियता इसलिए भी थी कि पढ़ने-लिखने में भी वह अपने सहपाठियों से दो कदम आगे रहती थीं।  इस छोटे

पुरानी हवेली (कहानी)

   जहाँ तक मुझे स्मरण है, यह मेरी चौथी भुतहा (हॉरर) कहानी है। भुतहा विषय मेरी रुचि के अनुकूल नहीं है, किन्तु एक पाठक-वर्ग की पसंद मुझे कभी-कभार इस ओर प्रेरित करती है। अतः उस विशेष पाठक-वर्ग की पसंद का सम्मान करते हुए मैं अपनी यह कहानी 'पुरानी हवेली' प्रस्तुत कर रहा हूँ। पुरानी हवेली                                                     मान्या रात को सोने का प्रयास कर रही थी कि उसकी दीदी चन्द्रकला उसके कमरे में आ कर पलंग पर उसके पास बैठ गई। चन्द्रकला अपनी छोटी बहन को बहुत प्यार करती थी और अक्सर रात को उसके सिरहाने के पास आ कर बैठ जाती थी। वह मान्या से कुछ देर बात करती, उसका सिर सहलाती और फिर उसे नींद आ जाने के बाद उठ कर चली जाती थी।  मान्या दक्षिण दिशा वाली सड़क के अन्तिम छोर पर स्थित पुरानी हवेली को देखना चाहती थी। ऐसी अफवाह थी कि इसमें भूतों का साया है। रात के वक्त उस हवेली के अंदर से आती अजीब आवाज़ों, टिमटिमाती रोशनी और चलती हुई आकृतियों की कहानियाँ उसने अपनी सहेली के मुँह से सुनी थीं। आज उसने अपनी दीदी से इसी बारे में बात की- “जीजी, उस हवेली का क्या रहस्य है? कई दिनों से सुन रह