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शेरा (लघुकथा)

 
     
      सुमन ने शाम की चाय की अंतिम घूँट ली और तभी अचानक उसे याद आया कि चेतना के घर जाना है। ग्रीष्मावकाश के बाद आज स्कूल का तीसरा दिन था। तबियत ख़राब होने से चेतना आज स्कूल नहीं आई थी और दिन में एक बार उससे मिले बिना सुमन रह नहीं सकती थी। शाम ढ़लने को थी सो सुमन आनन-फानन में तैयार हो गई। चेतना का घर उसके घर से मुश्किल से आधा-पौन किलोमीटर की दूरी पर ही था सो पैदल ही चल दी। घर से निकल कर गली में पहुंची ही थी कि चौराहे से कुछ ही पहले शेरा अपने एक साथी के साथ दिख गया। उसका पूरा नाम शेर सिंह है पर मोहल्ले में सब उसे शेरा ही कहते हैं।
      शेरा इस मोहल्ले का दादा माना जाता था। कुछ चवन्नी छाप चार-पाँच लड़के उसके शागिर्द थे। गली के नुक्कड़ पर भोला की चाय की थड़ी पर बेंच या मोढ़ों पर पसर कर गप-शप करना, सिगरेट का धुंआ उड़ाना और आती-जाती लड़कियों पर फब्तियां कसना, यही दिनचर्या थी इनकी। लड़कियां अधिकतर तो चुपचाप निकल जातीं यह सोच कर कि लफंगों को क्या मुँह लगाएं! कोई इक्की-दुक्की लड़की अपने घर शिकायत भी करती तो घर वाले समझाते कि जब मोहल्ले में ही रहना है तो इनसे जहाँ तक हो सके, नहीं उलझना ही ठीक है। सुमन को ध्यान आया, अभी कुछ दिनों पहले की ही तो बात है, पड़ौस में रहने वाले रामचरण अंकल पर तो शेरा हाथ ही उठाने लगा था कि पास से गुजरते दो सज्जनों के बीच-बचाव करने से उनकी इज़्ज़त रह गई।
      शेरा जब भी सुमन को देखता, अपनी उसी रंगत में आ जाता, उसे इस बात का भी कोई लिहाज नहीं था कि वह इसी मोहल्ले की लड़की है। आज भी जब वह शेरा के पास से निकली तो शेरा के होंठ फड़फड़ाये- "इतने सारे हुस्न के जलवे, यार बिना किस काम के...।"
     सुमन ने चुपचाप तेज़ क़दमों से निकल जाना चाहा तो शेरा ढींठता पूर्वक साथ-साथ चलते हुए शब्दों को चबाते हुए बड़बड़ाया- "जालिम, कब तक सताती रहोगी, कभी तो बात करो हम से। कहो तो सीधे ही बारात लेकर आ जाएँ!"
    सुमन अच्छी तरह जानती थी कि छेड़छाड़ करना शेरा की आदत में शुमार था, अलबत्ता वह किसी को हानि नहीं पहुंचाता था। आज लेकिन, सुमन का मूड कुछ ख़राब था, गुस्से से उसकी तरफ देख कर कहा- "पहले अपना मुँह तो देख ले आईने में।"
    शेरा को सुमन से ऐसी प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं थी, चिढ गया वह और बिना सोचे-समझे उसने आगे बढ़ कर सुमन का हाथ पकड़ लिया। सुमन के मुँह से हल्की-सी चीख निकल पड़ी। उसने तेज़ी से झटक कर अपना हाथ छुड़ा लिया। उसकी चीख की आवाज़ चौराहे से गुज़र रहे तीन लड़कों ने सुनी और वह दौड़ते हुए इन लोगों के पास आये। पहले तो सुमन मदद मिलने की उम्मीद से खुश हुई पर जब वह कुछ नज़दीक आये तो उसने उन्हें पहचाना, वह पास वाले दूसरे मोहल्ले के शोहदे थे और अपने मोहल्ले के छुटभैया रुस्तम माने जाते थे। शेरा तो फिर भी छेड़छाड़ ही करता था पर यह लफंगे उस पर बुरी निगाह रखते थे। इन लड़कों की शेरा-गुट से बिलकुल नहीं बनती थी।
    उनमें से दो लड़के शेरा के पास आये और शेरा को घूर कर देखा। दोनों में से एक फूहड़पने से हँस कर बोला-   "अबे शेरा, अकेले-अकेले? मिल-बाँट के खाते हैं यार!"
    सुमन के प्रति कहे गए इन शब्दों को शेरा बर्दाश्त न कर सका। क्रोध में आकर वह अपना आपा खो बैठा और दोनों पर टूट पड़ा।
    वहाँ से खिसक जाने का अवसर होने के बावजूद सुमन वहीं खड़ी रही और तमाशा देखने लगी। शेरा का साथी और उधर उन दोनों का तीसरा साथी तमाशबीन बने कुछ दूरी पर खड़े थे। शेरा और उन दोनों लड़कों के बीच की मार-पीट ने घमासान रूप ले लिया। करीब चार-पाँच मिनट तक उनकी लड़ाई चलती रही। कभी शेरा भारी तो कभी वह भारी पड़ रहे थे। आखिर में शेरा ने उन्हें पस्त कर गिरा दिया और हाँफते-हाँफते उठता हुआ बोला- "भूतनी के! यह मेरे मोहल्ले की लड़की है।"
   "बहन लगती है क्या तेरी? अभी तो खुद परेशान कर रहा था इसे।"- कराहते हुए दोनों में से एक ने नीचे पड़े-पड़े ही कहा।
   "हाँ, बहन लगती है मेरी।"- यह शेरा का बदला हुआ रूप था। उसने पलट कर सुमन से कहा- "सुमन, तुम जाओ, जहाँ जा रही थी।"
    असमंजस में पड़ी सुमन, वहाँ से कुछ दूर ही जा पाई थी कि शेरा की चीख उसे सुनाई दी। उसने फ़ौरन पलट कर देखा, उन लड़कों के तीसरे साथी ने लकड़ी की एक मोटी गुल्ली से पीछे से शेरा के सिर पर प्रहार किया था और वह लहरा कर नीचे गिर रहा था। वह पास में पहुँचती इसके पहले ही सड़क पर पड़े हुए दोनों लड़के भी खड़े हो गए और तीनों शेरा पर पिल पड़े। सुमन ने देखा, राह चलता एक व्यक्ति इनका झगड़ा देख रुक कर सड़क किनारे कुछ दूरी पर खड़ा हो गया था। शेरा का साथी पूर्ववत् दूर खड़ा तमाशा देख रहा था और शेरा बेहोश हो गया था।... और फिर इसके दो मिनट में ही वह हुआ जिसे देख शेरा के साथी और उस अजनबी ने दांतों तले उंगली दबा ली। दूसरे मोहल्ले वाले तीनों लड़के जमीन पर पड़े कराह रहे थे। सुमन ने जूडो और कराटे के विभिन्न दावों से तीनों को धूल चटा दी थी। अब वह उठने की स्थिति में नहीं थे।
     शेरा के परिवार के लोग कहीं गये हुए थे अतः सुमन व शेरा के साथी ने उस अजनबी और मोहल्ले के एक और व्यक्ति की मदद से शेरा को ऑटोरिक्शा से अस्पताल पहुँचाया। काफी चोटें लगी थी शेरा को अतः उसे इमर्जेन्सी कक्ष में टेबल पर लिटा दिया गया। डॉक्टर के देखने के बाद नर्स ने उसे एक इंजेक्शन लगाया तथा आवश्यक मरहम-पट्टी की। सुमन और शेरा के साथी के अलावा साथ आये दोनों व्यक्ति दस मिनट बाद वापस लौट गये।
    लगभग एक घण्टे बाद शेरा को होश आया। सुमन उसके पास में आई- " शेरा, थोड़ी देर आँखें बंद रख कर आराम करो, डॉक्टर ने कहा है।"
    " कौन लाया मुझे यहाँ, मैं कितनी देर से यहाँ हूँ ?- शेरा ने चारों तरफ नज़रें घुमा कर पूछा।
    " सुमन के कारण ही तुम्हें यहाँ लाया जा सका है शेरा! दो अंकल भी साथ आये थे,उन्होंने सुमन के बहुत कहने पर मदद की।"
    "मैं तो गुल्ली की चोट से नीचे गिर गया था न गोपाल! वह तीनों मिल कर मुझे मार रहे थे। फिर वह लोग तो भाग गए होंगे।"- शेरा ने अपने साथी से पूछा, वह सुमन से नज़रें नहीं मिला पा रहा था।
    "अरे कहाँ, वह तो पता नहीं कब तक तुम्हें मारते रहते कि सुमन ने अकेले ही उन तीनों की हालत पतली कर दी, बच्चुओं को धरती ही सुंघा दी।"- गोपाल ने प्रशंसा भरी नज़रों से सुमन की ओर देखते हुए कहा।
    "कैसे सुमन! तुम ऐसा कैसे कर सकी यह सब?"-शेरा की आवाज़ में स्नेह मिश्रित आश्चर्य था।
    "यह सब तुम्हारे कारण ही सम्भव हुआ शेरा! तुमने पिछले साल भी मुझे बहुत परेशान किया था। मैंने सोच लिया था कि खुद अपने बूते ही तुम्हें सबक सिखाऊंगी सो इन गर्मी की छुट्टियों में मैंने कराटे की ट्रेनिंग ली। मैं तुम पर इसका प्रयोग करने वाली ही थी कि वह बदकिस्मत लड़के आ पड़े और मेरी कला का लुत्फ़ उनके हिस्से आया।"- हँसते हुए सुमन ने जवाब दिया।
    "लेकिन तुमने अपनी बहादुरी उन पर क्यों आजमाई? वह मुझे पीट रहे थे तो तुम्हें तो खुश होना चाहिए था!"
   "मेरे लिए तुम उनसे भिड़ गए थे, तो मैं तुम्हें कैसे पिटने देती? तुमने जब उन्हें कहा था 'हाँ, बहन लगती है मेरी' तब तुम्हारे शब्दों में, तुम्हारी आँखों में शराफत की झलक देखी थी मैंने।"- शेरा के सिर पर हाथ रख कर स्नेहसिक्त स्वरों में सुमन ने कहा।
    शेरा ने सुमन के हाथ को अपने हाथ से थपथपाया। दोनों एक नये स्नेह-बन्धन में गुंथ गए थे।

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