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फ़रवरी, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

राजनीति का गिरता स्तर

विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने नरेन्द्र मोदी (बीजेपी) के लिए निहायत ही अभद्र (लेखन योग्य नहीं) शब्द का प्रयोग किया और इस बेहूदगी के लिए उन्हें कोई अनुताप भी नहीं है । इस वाकिये पर सब लोग 'थू-थू' कर ही रहे थे कि नपा-तुला बोलने के लिए जाना जाने वाले म.प्र. के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी कुछ ऐसी ही अभद्रता कर डाली। मोदी और राहुल गांधी की तुलना करते हुए उन्होंने मोदी को 'मूंछ का बाल' तो राहुल को 'पूँछ का बाल' कह दिया। भाई शिवराज जी, आपने शहजादे (आपकी जमात तो यही नाम देती है राहुल को) की शान में ऐसी गुस्ताखी कैसे कर डाली ?     राजनीति में शालीनता के आदर्श उदाहरण स्व. डॉ. राजेंद्र प्रसाद, स्व. लाल बहादुर शास्त्री और अटल बिहारी बाजपेयी जैसे कुछ महान नेताओं के बाद अब तो छिछलापन ही छिछलापन रह गया है। आज राजनीति में शुचिता दिया लेकर ढूंढने पर भी नहीं मिलती।     राजनीति के मैदान में उतरने के बाद जो बिछात लगाई जाती है उसमें कई तरह की पैंतरेबाजी होती है, आलोचना-प्रत्यालोचनाएं होती हैं, एक-दूसरे की खामियाँ भी उधेड़ी जाती हैं, लेकिन राजनीतिबाज जब सामान्य शिष्टता

राजनीति में दो दलीय प्रणाली

    विश्व में ऐसे कुछ देश हैं जहाँ मात्र दो राजनैतिक दल हैं और इसका सबसे अच्छा उदाहरण अमेरिका है। कितना अच्छा हो अगर हम भी इसी प्रणाली का अनुसरण कर सकें। इस प्रणाली को हमारे देश में बाध्यकारी बना लिया जाना निश्चित ही हितकारी सिद्ध होगा, ऐसी मेरी मान्यता है।    यदि मात्र दो दलों  की अवधारणा स्वीकार कर ली जाय तो वह दल कौन से हों इसका निर्धारण भी करना होगा। इन दो दलों को चुनने की प्रक्रिया यह हो सकती है कि वर्त्तमान में जो राजनैतिक दल मौज़ूद हैं उनमें से अधिक स्वीकार्य दो दलों का चयन चुनाव पद्धति से देश की जनता द्वारा किया जावे। शेष सभी राजनैतिक दल या तो इच्छानुसार इन दोनों दलों में स्वयं का विलय कर दें या उन्हें राजनीति छोड़नी पड़ेगी।      अब इस तरह चयनित दो दल 'राइट टु रिकॉल' के नियम से बंधे रहकर स्थायी रूप से देश की राजनीति  का केन्द्र बनेंगे। दो दलीय व्यवस्था के साथ देश की वर्त्तमान प्रणाली ही कायम रखी जा सकती है या फिर अमेरिका के समान डायरेक्ट डेमोक्रेसी प्रणाली के द्वारा राष्ट्रपति-पद्धति अपनाई जा सकती है।     इन दिनों एक-दो दल अपना भावी प्रधानमंत्री घोषित कर तक़रीबन

कब जागेंगे हम ?

अन्ना जी के  रूप में  आई राजनैतिक परिवर्तन की आंधी अब थम चुकी है। दिशाहीनता के कारण अन्ना जी की प्रासंगिकता पूरी तरह ख़त्म हो चुकी है। देश की जनता दिग्भ्रमित है और राजनीति में स्वच्छता अब भी मृग-मरीचिका बनी हुई है।  निर्भीक रावण  शक्ति-प्रदर्शन कर रहे हैं और राम (जनता) ने अपने लिए शस्त्रविहीनता के विकल्प का चयन किया हुआ है।      हर कोई जप रहा है-  'होइहु कोउ नृप, हमें का हानि'…लेकिन हानि होगी और पीढ़ियों को बर्बाद कर देगी, अगर समय रहते नहीं जागे तो।     अन्ना जी की अभी की हक़ीकत बयान करता राजस्थान पत्रिका, दि. 24-2-14   के 'मिर्च मसाला' से लिया गया कॉलम -                                     

मंत्री जी की आपत्तिजनक टिप्पणी

  राजस्थान के जनजाति विकास मंत्री नन्दलाल मीणा के द्वारा ब्राम्हण-बनियों के विरुद्ध की गई अनर्गल टिपण्णी से दोनों वर्गों में जबर्दस्त आक्रोश है। स्वयं की नहीं तो कम से कम अपने संवैधानिक पद की गरिमा का तो ध्यान उन्हें रखना ही चाहिए था। जाट व क्षत्रिय समाज का साथ इस मुद्दे पर ब्राम्हण-बनिया वर्ग को नहीं मिल रहा है, आश्चर्य है। क्षत्रिय समाज को सिद्धांत और नैतिकता के इस गम्भीर विषय पर चिन्तन करना चाहिए और समझना चाहिए कि क्यों नन्दलाल मीणा ने अपने विष-वमन में क्षत्रियों का नाम नहीं उछाला। शायद मीणा जी ने जाटों व क्षत्रियों को इसलिए नहीं लपेटा क्योंकि इसमें मुख्यमंत्री राजे जी का लिहाज आड़े आ गया होगा।     इस विषय में प्रबुद्ध मीणा बंधुओं से भी मेरी अपेक्षा है कि हिन्दू-समाज को तोड़ने वाली नंदलाल मीणा के द्व्रारा की गई टिप्पणी के विरुद्ध आवाज़ उठाकर राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ बनाने में भागीदार बनें। 

मीठा सा, प्यारा सा ख्वाब …

 'दि. 19-2-14 को राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित समाचार के अनुसार यू.पी. के मंत्री शिवाकांत ओझा ने एक समारोह में कहा कि यदि किसी कर्मचारी या अफ़सर ने रिश्वत मांगी तो उल्टा लटकाकर उसकी चमड़ी उधेड़ दी जायेगी। इससे पहले एक मंत्री शिवपाल यादव अफ़सरों के सामने यह कह चुके हैं कि यदि वह मेहनत से काम करते हैं तो  थोड़ी-बहुत चोरी कर सकते हैं।'     ऐसे नमूना-मन्त्रियों से सजी अखिलेश सरकार की अगुआई में तीसरा मोर्चा केंद्र में अगली सरकार बनाने का ख्वाब देख रहा है। खैर, ख्वाब ख्वाब ही तो है, कोई भी देख सकता है।   ख़ुशी-ख़ुशी एक ख्वाब मैंने भी कल देखा। ख़्वाब में मैंने देखा, अन्ना जी ने मुझसे कहा कि यदि उनके 17 सूत्रीय एजेंडे को मैंने मान लिया तो वह मुझे पी.एम. बनवा देंगे। अन्ना जी यह कह कर चले गए और साथ ही मेरा ख्वाब भी टूट गया, सोचने लगा कि अभी कल ही तो उन्होंने कुछ ऐसा ही आश्वासन ममता बेनर्जी को भी दिया है। सिर झटक कर मैंने अपनी आँखों के आगे आया जाला साफ़ किया कि हमारे यहाँ तो इलेक्शन होता है, अन्ना जी पी.एम. सेलेक्ट थोड़े ही कर सकते हैं। ख्वाब तो ख्वाब ही है चाहे मैं देखूं , ममता बेनर्जी देखें,

गुनहगार हम हैं....

        पीडीपी विधायक सैयद बशीर जम्मू-कश्मीर विधानसभा से बाहर निकाले जाने के बाद बाहर आकर मीडिया के सामने अपनी पीड़ा जाहिर करते हैं कि यह कैसी जम्हूरियत है कि उन्हें विधानसभा में बोलने ही नहीं दिया गया। बाहर निकाले जाने से ठीक पहले वह भीतर सुरक्षाकर्मी को थप्पड़ें मार रहे थे सिर्फ इसलिए कि वह  बेचारा स्पीकर के आदेश से उन्हें बाहर निकाल रहा था। यह था एक राजनीतिज्ञ का दोगला चेहरा। वर्त्तमान में हमारे देश के अधिकतर नेता  ऐसे ही हैं। दोषी ऐसे नेता नहीं हैं बल्कि हम हैं जो उन्हें चुन कर भेजते हैं, कभी जाति के आधार पर, कभी धर्म के आधार पर, तो कभी किसी पार्टी-विशेष से अंधे प्रेम के कारण।  देश को रसातल में ले जाने वाले हमारे इस गुनाह के लिए आने वाली पीढ़ी हमें कभी माफ़ नहीं करेगी। 

अपनी क्षमता को पहचानें....

   जब कोई कांटा अपने पांव में चुभता है तो हमसे दर्द बर्दाश्त नहीं होता, फिर हम किसी और की राह में कांटे क्यों बिछाते हैं। राजस्थान की मुख्यमंत्री कहती हैं कि जो काम 66 वर्षों में नहीं हुए उन कामों को 66 दिनों में पूरा करने की उम्मीद उनसे क्यों की जा रही है ? बात बिलकुल सही है, लेकिन इसमें थोड़ी सी विसंगति यह है कि अकेली कॉन्ग्रेस का शासन 66 वर्षों तक न तो देश में, न ही राजस्थान में रहा है। गत 66 वर्षों में से कुछ वर्ष बीजेपी के हिस्से में भी तो आये हैं, इसे क्यों भूला जाए ?     अब दिल्ली की बात की जाय। दिल्ली में 'AAP' के शासन की आलोचना दोनों विपक्षी दल किस आधार पर कर रहे थे, जबकि चारों ओर से घेरे जाने के बावज़ूद उनका 49 दिनों का कार्यकाल उपलब्धियों से भरा-पूरा है।  उनकी सादगी का अनुकरण कर अन्य राज्यों की सरकारों ने भी अपना दामन पाक-साफ़ करने का प्रयास किया है। विपक्ष तो विपक्ष, कॉन्ग्रेस भी समर्थन देने के बावज़ूद पूरी तरह से विपक्षी दल की भूमिका ही निभा रही थी। यहाँ तक कि जनता के हितार्थ लाया जाने वाला 'जनलोकपाल बिल' भी स्वार्थ और दूषित मनोवृत्ति की भेंट चढ़ गया। 'A

यह क्या बोल गये भाई ?

       पढ़ने-सुनने में आता है कि राष्ट्रीय स्वयम् सेवक संघ राजनीति से  स्वयम् को परे रखता है, फिर इसके  सदस्य इन्द्रेश कुमार यह क्या कह गए ? राजस्थान पत्रिका, दि. 12- 2-14 में पृष्ठ 14 पर प्रकाशित एक  समाचार के अनुसार जोधपुर में    कल एक गोष्ठी में मुख्य वक्ता के रूप में इन्द्रेश जी ने मुसलमानों को  हिंदुस्तान का मालिक बता दिया। भाई इंद्रेश जी, क्या आप धतूरा खा के बोल रहे थे ? भारत एक धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र है और जब यहाँ के बहुसंख्यक हिन्दू ही देश के मालिक नहीं हैं तो मुसलमान भला इस देश के मालिक कैसे हो गए ? पता नहीं इन्द्रेश जी ने यह कुटिल राजनैतिक वक्तव्य क्योंकर दिया, लेकिन उनका यह दिमागी दिवालियापन आर.एस.एस. की प्रतिष्ठा को आँच पहुंचाने वाला अवश्य है।

झूठे आरोप का सच

 यदि कोई महिला किसी पुरुष पर अपहरण और दुष्कर्म का झूठा आरोप लगाकर उस पर मुकद्दमा कर दे और बाद में तफ़तीश में यह प्रमाणित हो जाय कि आरोप झूठा था तो क्या उस महिला को मात्र दिन भर कोर्ट में खड़े रहने तथा रु100/- जुर्माने की सज़ा दी जाना पर्याप्त है ? राजस्थान पत्रिका, दि. 12-2-14  में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार जोधपुर में महानगर मजिस्ट्रेट ने उक्त महिला को ऐसी ही सज़ा दी। यह कार्यवाही भी सम्भवतः पहली बार हुई। महिला ने मामला झूठा दर्ज करवाना स्वीकार भी किया। क्या महिला होने मात्र से वह मात्र इतनी ही सज़ा की हक़दार थी ?    यहाँ प्रश्न यह उठता है कि पुरुष खुदा-न-खास्ता यदि स्वयम् को बेक़सूर साबित नहीं कर पाता तो क्या होता ? क्या उसे अपनी ज़िन्दगी का कुछ बेहतरीन समय जेल की कोठरी में बर्बाद नहीं करना पड़ता और उससे भी बढ़कर क्या उसकी इज्ज़त मटियामेट न हो गई होती ? कैसे वह और उसके परिवार के अन्य सदस्य समाज को अपना मुंह दिखाते ?    कानूनविदों को इस पर गहन चिंतन करना होगा कि क्या दुष्कर्म का झूठा आरोप लगाना दुष्कर्म के समान ही   गम्भीर अपराध नहीं है ?

न्याय-प्रक्रिया का मखौल

    देखने में आया है कि अधीनस्थ न्यायालयों के कई निर्णय उच्चतर न्यायालयों में अपील होने पर टांय-टांय फिस्स हो जाते हैं। उच्चतर न्यायालयों में पिटने वाले निर्णय कभी तो तकनीकी खामियों के चलते पिटते हैं तो कभी दूषित भावनाओं से जानबूझ कर गलती किये जाने से। कई बार किसी एक पक्ष को अनुचित लाभ पहुँचाने के लिए कानूनी प्रक्रिया को अनावश्यक रूप से लम्बा खींचा जाता है। ऐसे सभी मामलों में न्यायाधिपति का अपराध क्षमा करने योग्य नहीं है। दूषित भावना से किये गए निर्णय के पीछे कभी-कभार सिफारिश होती है तो अधिकांश मामलों में धन-लोलुपता। इस प्रकार न्याय में जो विलम्ब होता है वह कभी-कभी पीड़ित व्यक्ति का पूरा जीवन लील लेता है। आवश्यकता है इस बात की कि वर्तमान में परिवर्तन की जो आंधी चली है उसका समुचित उपयोग किया जाकर क़ानून में कड़े संशोधन कर जनता को सही मायने में न्याय उपलब्ध कराया जाय और ऐसे न्यायाधीशों को न्यायालयों की बजाय उनकी सही जगह दिखाई जाय।    न्यायालयों के अलावा जिलाधीश कार्यालय, उपखंड अधिकारी कार्यालय, तहसील कार्यालय तथा ऐसे ही अन्य सरकारी कार्यालयों में जहाँ जनता को न्यायिक प्रक्रियाओं से गु

अन्ना जी की यह कैसी सोच ?

     अन्ना जी की यह कैसी सोच ? समाचार पत्र 'राजस्थान पत्रिका', दि. 9-2-14 में प्रकाशित अन्ना जी से सम्बन्धित समाचार में उनके विचार जानकर निराशा हुई। आश्चर्य हुआ कि कैसे इतना अनुभवी और निष्कपट व्यक्ति राजनैतिक पूर्वाग्रहों से ग्रस्त अन्य लोगों के समान सोच रख सकता है ? कहीं यह इस कुंठा का परिणाम तो नहीं कि अरविन्द केजरीवाल ने उनके मार्ग से पृथक मार्ग का चयन किया ? केजरीवाल स्पष्ट रूप से कह चुके हैं कि जिस प्रकार बिना कीचड़ में पांव रखे  कीचड़ की सफाई नहीं की जा सकती, उसी प्रकार राजनीति में प्रवेश किये बिना राजनीति में आई गन्दगी भी साफ नहीं की जा सकती है। सत्याग्रह की भाषा आज की निरंकुश राजनीति नहीं समझती। यह सब-कुछ समझ कर ही अन्ना जी को कोई वक्तव्य जारी करना चाहिए।  वह केजरीवाल से अपनी सारी उम्मीदें मात्र डेढ़-दो माह में पूरी कर देने की अपेक्षा क्यों रखते हैं- ऐसे कार्य जो पूर्व सरकारें पांच-पांच वर्षों में भी पूरा नहीं कर सकी हैं। नहीं भूलना चाहिए कि केजरीवाल के पास जादू की छड़ी नहीं है, उनकी अपनी सीमायें हैं, केन्द्र-सरकार का असहयोगपूर्ण रवैया और सीमित शक्तियां उनके मार्ग की स