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Showing posts with the label श्रृंगार

डायरी के पन्नों से ..."प्रियतमे, तब अचानक..." (कविता)

                  विरहाकुल हृदय प्रकृति के अंक में अपने प्रेम को तलाशता है, उसी से प्रश्न करता है  और उसी से उत्तर पाता है।  मन के उद्गारों को अभिव्यक्ति दी है मेरी इस कविता की  पंक्तियों ने।  कविता की प्रस्तुति से पहले इसकी रचना के समय-खण्ड को भी उल्लेखित करना चाहूँगा।  मेरे अध्ययन-काल में स्कूली शिक्षा के बाद का एक वर्ष महाराजा कॉलेज, जयपुर में अध्ययन करते हुए बीता। इस खूबसूरत वर्ष में मैं टी. डी. एस. प्रथम वर्ष (विज्ञान) का विद्यार्थी था। इसी वर्ष मैं कॉलेज में 'हिंदी साहित्य समाज' का सचिव मनोनीत किया गया था। मेरा यह पूरा वर्ष साहित्यिक गतिविधियों के प्रति समर्पित रहा था और यह भी कि मेरी कुछ रचनाओं ने इसी काल में जन्म लिया था। साहित्य-आराधना के साइड एफेक्ट के रूप में मेरा परीक्षा परिणाम 'अनुत्तीर्ण' घोषित हुआ। मुझे पूर्णतः आभास हो गया था कि अध्ययन सम्बन्धी मेरा भविष्य मुझे यहाँ नहीं मिलने वाला है, अतः मैंने  जयपुर छोड़कर रीजनल कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन, अजमेर में प्रवेश लिया। वहाँ की आगे की कहानी अभी न कह कर, इसका ...

तुम आओ तो... (कविता)

      हृदय में कुछ भाव उमड़े, भावों ने श्रृंगार रस में डूबे शब्दों का रूप लिया और अन्ततः इस कविता ने जन्म लिया। प्रस्तुत कर रहा हूँ अपने रस-मर्मज्ञ, स्नेही पाठकों के लिए...                     "तुम आओ तो..." ठुकरा दे गर कोई अपना, तुम किञ्चित ना घबराना, पथ भूल न जाना मेरा तुम, मेरे पास चली आना, बस जाना मेरी आँखों में, पलकों की सेज बिछा दूँगा, तुम आओ तो! दुनिया रोके मेरी राहें, चाहे उल्टी घड़ियाँ हों, जंजीर पड़ी हो पाँवों में, हाथों में हथकड़ियाँ हों, सारे बंधन तोड़ूँगा  मैं, बाधा हर एक मिटा दूँगा, तुम आओ तो! प्यासी हो धरती कितनी भी, छाती उसकी तपती हो, आसमान से शोले बन कर, चाहे आग बरसती हो, मौसम हो पतझड़ का तो भी, मैं दिल को चमन बना दूँगा, तुम आओ तो! वसन कभी जो काटें तन को, हृदय कभी जो घबराये, आभूषण भी बोझ लगें जब, मन उनसे भी कतराए, मैं सूरज, चांद, सितारों से, तुम्हारे अंग सजा दूँगा, तुम आओ तो! जब तन में, मन में हो भटकन, सखियों से मन न...