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जनवरी, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

डायरी के पन्नों से- एक दोहा, एक तुक्तक

आज की प्रस्तुति --- 1) यदि हर संपन्न व्यक्ति कम से कम एक ज़रूरतमंद को अपनी शक्ति के अनुसार अपना अंशदान दे सके तो ईश्वर मुस्करा उठेगा, धरती स्वर्ग बन जाएगी .... चोरी करना और डकैती, अगर कहीं यह पाप है, लोग हों भूखे, हम पेट भरें, ज़िन्दगी अभिशाप है! 2) 'चलती चाकी देख के, दिया कबीरा रोय...' का आधुनिक संशोधित संस्करण--- चलती चाकी देख के, क्यों किसी का मनवा जागे? पापी सब जब ऐश करें, तो क्यों दूजों को डर लागे?                      ***********

बड़ा आदमी (लघु कथा)

     बहुत देर से नींद खुली मेरी। आज शनिवार था, सो कॉलेज में दो ही क्लास होनी थी इसलिए जल्दी ही घर आ गया था। खाना खाया और लम्बी तान के अपने कमरे में जा कर सो गया था। घडी देखी, पाँच बज रहे थे। 'उफ्फ़! बहुत देर सोता रहा मैं!' शाम छः बजे नवोदय रेस्तरां में दोस्तों ने पार्टी रखी थी। उछला मैं पलंग से और तुरत वॉश रूम में भागा।    तैयार होकर बाहर निकला, बाइक उठाई और पास में ही सामने सड़क किनारे बैठे श्यामू मोची से जूतों की पॉलिश कराने के इरादे से सड़क क्रॉस की। देखा तो महाशय पड़ोस में खड़े नाश्ते के ठेले वाले लड़के से भाव को ले कर जद्दो-जहद कर रहे थे। दो कदम बढ़ा कर ठेले के पास गया तो उसे कहते सुना- ''कल ही तो भेलपूरी खाई थी तुम्हारे यहाँ और आज एक दिन में ही भाव डेढ़ा कर दिया। देख भाई, मगजपच्ची मत कर, वैसे भी आज घर से दुफेर में निकल के आया हूँ काम पे। ले दे के दो-तीन कस्टमर आये हैं अब तक। भूख लग रही है, देना हो तो दे दे कल के भाव से।''   "अब जो भाव है सो है। नहीं चाहिए, तुम्हारी मर्जी।"   क्षुब्ध दृष्टि से ठेले वाले की ओर एक बार देखा श्यामू ने और 'लूट मचा रखी

क्या आपको अपने बच्चों से शिकायत है?

      भाग्यशाली होते हैं वह लोग, जिनके बच्चे (बेटा/बिटिया) उन्हें बहुत प्यार करते हैं।.....लेकिन मेरा यह उद्बोधन उन लोगों के लिए है जिन्हें यह शिकायत रहती है कि उनके बच्चे उन्हें प्यार नहीं करते, उनका ख़याल नहीं रखते। कई बार तो उनको प्यार न पाने से अधिक शिकायत इस बात की होती है कि उनकी अपेक्षा के अनुरूप उनका  ख़याल नहीं रखा जाता है।     बच्चों से प्यार पाने की मानसिक आवश्यकता तो समझ में आती है, लेकिन समग्र रूप से वैसा ही प्यार उन्हें आजीवन मिलता रहे जैसा उन्होंने उनसे तब पाया था जब वह कम उम्र के थे, तो ऐसी अपेक्षा वांछनीय नहीं हो सकती। मेरा यह कथन पुत्र हो या पुत्री, दोनों के सन्दर्भ में है।    बच्चे की किशोरावस्था से पहले उसका संसार अधिकांश रूप से घर में ही केन्द्रित रहता है। किशोरावस्था से प्रारंभ होकर युवावस्था तक की वय में उसका एक और संसार बन जाता है- उसके दोस्तों का। युवावस्था की दहलीज में पाँव रखने के कुछ ही समय में उसका विवाह हो जाता है तब उसका एक और नया संसार निर्मित होता है। इन सब संसारों के अलावा चाहे-अनचाहे एक और संसार भी उसके अस्तित