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जुलाई, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

फिर लौट के आना...

   हरदिल-मसीहा कलाम साहब!     स्वार्थ और छलावे से भरी इस बेमुरब्बत दुनिया को छोड़ जाने का आपका निर्णय कत्तई गलत नहीं कहा जा सकता। मुझे याद आता है वह गुज़रा हुआ कल जब आपको दूसरी बार राष्ट्रपति बनाने के प्रस्ताव का कुछ मतलबपरस्त लोगों ने विरोध किया था। वैसे भी आपने तो निर्लिप्त भाव से कह ही दिया था कि सर्वसम्मति के बिना आप दुबारा राष्ट्रपति बनना नहीं चाहते। आप जैसे निष्पक्ष और स्वतन्त्र व्यक्तित्व को खुदगर्ज राजनीतिबाजों ने पुनः अवसर देने से रोक कर आपको फिर से राष्ट्रपति के रूप में दे खने से देश को महरूम कर दिया था। उन लोगों ने भी आपके चले जाने पर मगरमच्छी आंसू ज़रूर गिराये होंगे पर क्या आपके प्रति कृतज्ञ यह देश उन्हें क्षमा कर सकेगा?    आप चले तो गए हैं पर हर देशभक्त भारतवासी के मनमन्दिर में फ़रिश्ते की मानिन्द ताज़िन्दगी मौजूद रहेंगे।    फिर लौट के आना कलाम साहब,अब आपकी शान में कोई गुस्ताखी नहीं होने देंगे हम !!!  frown emoticon   frown emoticon   frown emoticon

कल्प-वृक्ष

    जुनून की हद तक बागवानी का शौक पालने वाली मेरी धर्मपत्नी जयप्रभा ने सन् 1997 में कल्पवृक्ष का एक शिशु-पौधा ख़रीदा था। पहले एक छोटे गमले में और कुछ बड़ा होने के बाद उसे एक बड़े गमले में सहेजा गया। जयप्रभा के द्वारा की गई नित्य साज-सम्हाल और पूजा- अर्चना से गत् 18 वर्षों में इस पौधे ने लगभग 12 फ़ीट की ऊंचाई हांसिल कर ली थी। पौधे ने अब वृक्ष का रूप तो ले लिया था, लेकिन वह वृहद् आकार अभी तक नहीं पा सका था जो इन 18 वर्षों में ज़मीन में होने पर मिलता। पिछले कुछ माहों से जयप्रभा के मन में  यह विचार उभर रहा था कि क्यों नहीं इस कल्पवृक्ष का रोपण किसी मंदिर जैसे सार्वजानिक स्थान पर कर दिया जाय ताकि इसे इसका स्वाभाविक आकार भी प्राप्त हो और अन्य लोग भी इसकी पूजा-अर्चना का लाभ प्राप्त कर सकें ! विचार को मूर्त रूप देने के लिए उन्होंने हमारी कॉलोनी में ही स्थित एक निजी मंदिर की स्वामिनी सेे बातचीत की और अनुमति प्राप्त कर हम बाग़वान उदयलाल की मदद से आज इस वृक्ष को गमले सहित मंदिर में ले गए। मंदिर में अनूकूल स्थान पर खड्डा खोद कर गमले से निकाले गए इस वृक्ष का रोपण कर दिया और प्रारम्भिक लघुपूजा भी जयप्र

एक पत्र प्रधानमंत्री जी के नाम.…

माननीय प्रधानमंत्री जी, बहुत तकलीफ़ होती है मुझे, जब देखता/सुनता हूँ - 1) जब शहर के चौराहे पर खड़े हुए यातायात-कर्मी (सिपाही) तथा कानून को धत्ता बताते हुए हेलमेट पहनने को अपनी तौहीन समझने वाले कुछ सभ्य (?) दुपहिया-चालक लाल-बत्ती की भी परवाह किये बिना निर्धारित से कहीं अधिक गति से चलते हुए चौराहा पार कर जाते हैं। (ड्यूटी पर मौजूद सिपाही खिसियाकर मजबूरन इसे अनदेखा कर देता है।) 2) हमारी शान्तिपूर्ण व्यवस्था एवं जीवन की सामान्य गतिशीलता को अस्त-व्यस्त या नष्ट करने के लिए विध्वंसक आक्रमण कर रहे विदेशी आतंककारी या कुछ पथभ्रष्ट देश के ही नागरिकों (यथा नक्सली अथवा सामान्य अपराधी-गैंग) के विरुद्ध प्रतिरक्षा तथा प्रत्याक्रमण के लिए भेजे गये सुरक्षा-बल के साथ मुठभेड़ में परिणाम कुछ इस तरह का मिलता है-  'हमारे सात बहादुर सिपाही/ पुलिस अधिकारी शहीद हुए, लेकिन दो आतंककारियों को मार गिराया गया। मौके से आठ आतंककारी भाग निकतने में सफल रहे, जिनकी तलाश की जा रही है।'  3) सीमा पर पाकिस्तानी जब युद्ध-विराम का उल्लंघन कर गोलीबारी करते हैं और हमारे सैनिकों के जवाबी हमले के बाद समा

छोटी सोच छोड़ो ...

  'अनाज महँगा, दालें महँगी, सब-कुछ महँगा …अच्छे दिन नहीं आये अभी तक, मोदी जी ने गच्चा दे दिया, फरेब किया हमारे साथ'- यह कह-कह कर मोदी जी को कोसने वाले अपनी बुद्धि का प्रयोग क्यों नहीं करते?    भैया जी, अपनी छोटी सोच छोड़ो और और आँखें खोल कर बाहर झांको! देखो, सोना कितना सस्ता हो गया है! कुछ ही महीनों में सात हज़ार रू. तक की कमी आ चुकी है इसके भाव में। जरा-सी होशियारी लगाओ और फिर देखो महँगाई कहाँ अड़ती है! करना केवल यह है कि अभी दाल-सब्जी खाना बिल्कुल बंद कर दो और दस-बीस तोला सोना खरीद लो। अगले आम चुनावों के कुछ पहले जब दाल, सब्जी, प्याज़, वगैरह सस्ते हो जाएँ तब खा लेना मज़े से, कौन रोकता है! 

कौन ज़िम्मेदार है...

    कौन ज़िम्मेदार है रेलवे के ताज़ा इंटरसिटी- हादसे में हुए नुकसान के लिए ? राहगीरों और वाहनों के निरन्तर प्रवाह वाली व्यस्त सड़कों पर भी इसी तरह आवारा पशुओं (गायें, भैंसें, कुत्ते, आदि) का जमावड़ा हर समय लगा रहता है जो गाहे-बगाहे कई हादसों का सबब बनता है। त्रस्त जनता अपने किसी प्रिय को या तो अस्पताल में पाती है या कभी उसे हमेशा के लिए खो देती है। कभी सरकारी मुहिम चलने पर आवारा पकड़े गए पशुओं के मालिक मामूली सी पेनल्टी चुका कर अपने पशुओं को छुड़ा लेते हैं और आगे पुनः बेशर्मी का यह आलम कायम रहता है।  समझ से परे  है कि प्रशासन इस मुद्दे पर गम्भीर क्यों नहीं हो पाता। यदि क़ानून कमज़ोर है तो उसे बदला जाय और ऐसी सख्ती की जाये कि पशुओं के मालिक फिर कभी पशुओं को यूँ खुला छोड़ने की जुर्रत न कर सकें। जब सुसंस्कृत अन्य देशों में कोई भी आवारा पशु सार्वजनिक स्थानों पर कभी दिखाई नहीं देता, तो हमारे देश में ऐसी कौन सी विवशता है कि इस समस्या का हल नहीं निकल पा रहा है। केवल और केवल एक ही कारण प्रतीत होता है इसके पीछे और वह है वोटों की राजनीति के चलते राजनेताओं में इच्छा-शक्ति का अभाव ! मैं इस

यह अमानवीय नज़ारा....

   क्या हो गया है मेरे देश को चलाने वाले कर्णधारों की संवेदनशीलता को ? देश में कैसी भी अनहोनी हो जाय, कैसा भी अनर्थ हो जाय, क्या किसी के भी कानों में जूँ नहीं रेंगेगी ? जनता के धैर्य की परीक्षा कब तक ली जाती रहेगी ?    अपनी किशोरावस्था में मैंने जासूसी उपन्यासों में पढ़ा था कि शहर में दो-तीन अस्वाभाविक मौतें होते ही पुलिस-विभाग में तहलका मच जाता था। पुलिस के आला अधिकारी अपने मातहतों को एक बहुत ही सीमित अवधि का समय देते हुए बरस पड़ते थे कि गृह मंत्री को क्या जवाब दिया जाएगा ! बहुत अच्छा लगता था, जब पुलिस अधिकारी / जासूस बहुत ही काम समय में अपराधी को ढूंढ निकालते थे।    यह सही है कि कहानियों के आदर्श नायक, वास्तविक दुनिया में कभी-कभार ही मिला करते हैं, लेकिन दिन-ब-दिन जिस तरह से नायक के भेष में खलनायकों का इज़ाफ़ा हो रहा है, उसे देखते हुए देश के भयावह भविष्य की कल्पना की जा सकती है। आज के समय में अपराधी, पुलिस और नेताओं का जो दोस्ताना गठजोड़ पनप रहा है और दूसरी ओर जिस तरह से न्याय-व्यवस्था को पंगु बनाने का प्रयास किया जा रहा है, उसके चलते एक आम आदमी को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए अब के