सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

एक पत्र प्रधानमंत्री जी के नाम.…




माननीय प्रधानमंत्री जी,

बहुत तकलीफ़ होती है मुझे, जब देखता/सुनता हूँ -

1) जब शहर के चौराहे पर खड़े हुए यातायात-कर्मी (सिपाही) तथा कानून को धत्ता बताते हुए हेलमेट पहनने को अपनी तौहीन समझने वाले कुछ सभ्य (?) दुपहिया-चालक लाल-बत्ती की भी परवाह किये बिना निर्धारित से कहीं अधिक गति से चलते हुए चौराहा पार कर जाते हैं। (ड्यूटी पर मौजूद सिपाही खिसियाकर मजबूरन इसे अनदेखा कर देता है।)

2) हमारी शान्तिपूर्ण व्यवस्था एवं जीवन की सामान्य गतिशीलता को अस्त-व्यस्त या नष्ट करने के लिए विध्वंसक आक्रमण कर रहे विदेशी आतंककारी या कुछ पथभ्रष्ट देश के ही नागरिकों (यथा नक्सली अथवा सामान्य अपराधी-गैंग) के विरुद्ध प्रतिरक्षा तथा प्रत्याक्रमण के लिए भेजे गये सुरक्षा-बल के साथ मुठभेड़ में परिणाम कुछ इस तरह का मिलता है-  'हमारे सात बहादुर सिपाही/ पुलिस अधिकारी शहीद हुए, लेकिन दो आतंककारियों को मार गिराया गया। मौके से आठ आतंककारी भाग निकतने में सफल रहे, जिनकी तलाश की जा रही है।' 

3) सीमा पर पाकिस्तानी जब युद्ध-विराम का उल्लंघन कर गोलीबारी करते हैं और हमारे सैनिकों के जवाबी हमले के बाद समाचार मिलता है कि हमलावर पाकिस्तानियों में से एक मारा गया लेकिन सीमावर्ती गांव का हमारा एक नागरिक ज़ख़्मी हुआ तथा दो सैनिक वीर गति को प्राप्त हुए। 

   प्रधानमंत्री जी, दिन में दो-तीन बार टीवी चैनल्स पर आपकी अपील प्रसारित की जाती है जिसमें आप देशवासियों में से सक्षम लोगों से रसोई गैस की सब्सिडी छोड़ने का आग्रह करते हुए कहते दिखाई देते हैं कि आप उस सब्सिडी से उस गरीब नागरिक को गैस-सुविधा देना चाहते हैं जिसके यहाँ लकड़ी का चूल्हा जलता है। मान्यवर, गैस-सब्सिडी तो क्या इस देश का नागरिक रोज का अपना एक समय का भोजन भी त्यागने के लिए तैयार हो जायगा, यदि उसे विश्वास हो जाय कि उसका त्याग देश या साधनविहीन व्यक्ति के उत्थान के लिए काम में आएगा। 
   महोदय, हमारे देश के गरीब माननीयों को संसद की कैन्टीन में खाद्य व पेय पदार्थों पर जो अघोषित सब्सिडी दी जा रही है, उनसे भी उसका त्याग कराने का सुविचार आपके जेहन में अभी तक क्यों नहीं आया? 

  मान्यवर, देश की आन्तरिक सुरक्षा सुरक्षाबलों और पुलिस के हस्ते है तथा बाहरी सुरक्षा सैन्यबलों के हस्ते। आवश्यक सुविधाओं, अत्याधुनिक हथियारों और ट्रेनिंग के अभाव में हमारे जांबाजों की जो जीवन-हानि होती है/ इनका मनोबल गिरने लगता है यदि उसकी ओर आपकी सरकार कुछ ध्यान दे तो इसके लिए गैस सब्सिडी तो क्या, जितना भी आर्थिक संसाधन जुटाना पड़ेगा, उसमें सहयोग के लिए इस देश का कोई भी व्यक्ति पीछे नहीं हटेगा। एक बार, केवल एक बार इस ओर एक सार्थक कदम तो उठवाइये!

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

बेटी (कहानी)

  “अरे राधिका, तुम अभी तक अपने घर नहीं गईं?” घर की बुज़ुर्ग महिला ने बरामदे में आ कर राधिका से पूछा। राधिका इस घर में झाड़ू-पौंछा व बर्तन मांजने का काम करती थी।  “जी माँजी, बस निकल ही रही हूँ। आज बर्तन कुछ ज़्यादा थे और सिर में दर्द भी हो रहा था, सो थोड़ी देर लग गई।” -राधिका ने अपने हाथ के आखिरी बर्तन को धो कर टोकरी में रखते हुए जवाब दिया।  “अरे, तो पहले क्यों नहीं बताया। मैं तुमसे कुछ ज़रूरी बर्तन ही मंजवा लेती। बाकी के बर्तन कल मंज जाते।” “कोई बात नहीं, अब तो काम हो ही गया है। जाती हूँ अब।”- राधिका खड़े हो कर अपने कपडे ठीक करते हुए बोली। अपने काम से राधिका ने इस परिवार के लोगों में अपनी अच्छी साख बना ली थी और बदले में उसे उनसे अच्छा बर्ताव मिल रहा था। इस घर में काम करने के अलावा वह प्राइमरी के कुछ बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाती थी। ट्यूशन पढ़ने बच्चे उसके घर आते थे और उनके आने का समय हो रहा था, अतः राधिका तेज़ क़दमों से घर की ओर चल दी। चार माह की गर्भवती राधिका असीमपुर की घनी बस्ती के एक मकान में छोटे-छोटे दो कमरों में किराये पर रहती थी। मकान-मालकिन श्यामा देवी एक धर्मप्राण, नेक महिल...

तन्हाई (ग़ज़ल)

मेरी एक नई पेशकश दोस्तों --- मौसम बेरहम देखे, दरख्त फिर भी ज़िन्दा है, बदन इसका मगर कुछ खोखला हो गया है।   बहार  आएगी  कभी,  ये  भरोसा  नहीं  रहा, पतझड़ का आलम  बहुत लम्बा हो गया है।   रहनुमाई बागवां की, अब कुछ करे तो करे, सब्र  का  सिलसिला  बेइन्तहां  हो  गया  है।    या तो मैं हूँ, या फिर मेरी  ख़ामोशी  है यहाँ, सूना - सूना  सा  मेरा  जहां  हो  गया  है।  यूँ  तो उनकी  महफ़िल में  रौनक़ बहुत है, 'हृदयेश' लेकिन फिर भी तन्हा  हो गया है।                          *****  

"ऐसा क्यों" (लघुकथा)

                                   “Mother’s day” के नाम से मनाये जा रहे इस पुनीत पर्व पर मेरी यह अति-लघु लघुकथा समर्पित है समस्त माताओं को और विशेष रूप से उन बालिकाओं को जो क्रूर हैवानों की हवस का शिकार हो कर कभी माँ नहीं बन पाईं, असमय ही काल-कवलित हो गईं। ‘ऐसा क्यों’ आकाश में उड़ रही दो चीलों में से एक जो भूख से बिलबिला रही थी, धरती पर पड़े मानव-शरीर के कुछ लोथड़ों को देख कर नीचे लपकी। उन लोथड़ों के निकट पहुँचने पर उन्हें छुए बिना ही वह वापस अपनी मित्र चील के पास आकाश में लौट आई। मित्र चील ने पूछा- “क्या हुआ,  तुमने कुछ खाया क्यों नहीं ?” “वह खाने योग्य नहीं था।”- पहली चील ने जवाब दिया। “ऐसा क्यों?” “मांस के वह लोथड़े किसी बलात्कारी के शरीर के थे।” -उस चील की आँखों में घृणा थी।              **********