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दिसंबर, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

डायरी के पन्नों से..."शेष है..."

सन्  2017 जाने को है, महज़ कुछ घंटे ही शेष हैं और मेरे द्वारा आज प्रस्तुत की जा

डायरी के पन्नों से ..."हर पत्थर से ठोकर खाई"

यह रचना भी मेरे प्रथम वर्ष, टी.डी.सी. (महाराजा कॉलेज, जयपुर) में अध्ययन (किशोरावस्था व यौवन की वयसंधि ) के समय  की है...प्रस्तुत है बंधुओं- 'हर पत्थर से ठोकर खाई'!       *********

अनुशासन की अनुशासनहीनता

      स्मरण है मुझे श्रीमती इन्दिरा गांधी के समय का आपातकाल! कई विपक्षी नेताओं को जेलों में ठूंस दिया गया था, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सीमित कर दी गई थी; यहाँ तक कि टार्गेट के दबाव के चलते गैरशादीशुदा युवकों की

अंध-भक्ति

         अच्छा है कि वह एक पूर्व न्यायाधीश हैं, अभी तक अगर पद पर होते और वहाँ होते, जहाँ आसा राम का इंसाफ होना है, तब तो आसा राम की बल्ले-बल्ले हो जाती। मैं बात कर रहा हूँ राजस्थान के पूर्व न्यायाधीश

डायरी के पन्नों से ..."प्यार अधूरा रह जाएगा"

     कृपया कोष्टक में अंकित आलेख को अवश्य पढ़ें।     दिल में जब तक तड़पन पैदा न हो, प्यार का रंग कुछ फीका-फीका ही रहता है। कई महानुभावों ने इसे महसूसा होगा। तड़पन का कुछ ऐसा ही भाव आप देखेंगे प्यार की मनुहार वाली मेरी इस कविता में - "प्यार अधूरा रह जाएगा  ..."      (महाराजा कॉलेज, जयपुर में प्रथम वर्ष के अध्ययन के दौरान हमारी वार्षिक पत्रिका 'प्रज्ञा' में यह कविता प्रकाशित हुई थी। कविता के आवश्यक तत्व 'मात्राओं की समानता' का पूर्णतः अनुपालन मैंने इस कविता में किया था। मेरी इस कविता में मुखड़ा मिलाने वाली चार पंक्तियों में प्रत्येक में 16 तथा अन्य पंक्तियों में हर विषम संख्या वाली पंक्ति में 16 मात्राएँ व हर सम संख्या वाली पंक्ति में 14 मात्राएँ आप पाएँगे। आज भी कुछ अच्छे कवियों द्वारा इस मात्रा-धर्म को निभाया जाता है, किन्तु अतुकांत कविताओं का दौर चलने के बाद कुछ ही कवि इस ओर ध्यान देते हैं। मैं भी अब इतना ध्यान मात्राओं के मामले में नहीं रख पाता... हाँ, रिदम का ध्यान यथासम्भव रखता हूँ।)         

डायरी के पन्नों से ...'दो मुक्तक'

प्रिय मित्रों, प्रस्तुत हैं दो मुक्तक ... 

डायरी के पन्नों से ..."लो चाँद उगा..."

       वृन्दावन लाल वर्मा का प्रसिद्ध उपन्यास 'मृगनयनी' मैंने तब पढ़ा था जब मैं पांचवीं कक्षा का विद्यार्थी था। कितना मैं उस उम्र में उस उपन्यास को समझ पाया था, मुझे स्मरण नहीं, लेकिन यह अवश्य ध्यान में है कि मुझे बहुत आनंद आया था पढ़कर। नट-नटनियों की पृष्ठभूमि पर आधारित इस उपन्यास की कुछ घटनायें मेरी स्मृति में आज भी हैं।               इसके बाद सातवीं कक्षा में आने पर मैंने जय शंकर प्रसाद की कालजयी कृति 'कामायनी' को पढ़ा- 'हिमगिरि के उतुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छांह, एक पुरुष भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय-प्रवाह।' - इस पुस्तक की वह प्रारम्भिक पंक्तियाँ थीं जो मेरे मन-मानस में कविता घोल गईं। हिंदी का ठीक-ठाक ज्ञान होने के बावज़ूद भी इस काव्य की भाषा-शैली व भावात्मक सृजनशीलता मुझे उस समय बहुत कठिन लगी थी और यही कारण था कि मैं उसे आधा-अधूरा ही पढ़ सका।       नवीं कक्षा की पढ़ाई पूरी होने तक मैंने उपन्यास-सम्राट मुन्शी प्रेमचंद के उपन्यास 'रंगभूमि', 'कर्मभूमि' तथा 'कायाकल्प' पढ़ डाले थे।       जीवन में मैंने क्या पाया और क्या खोया, इसका उ

डायरी के पन्नों से ..."मन की व्यथा"

मेरे अध्ययन-काल की एक और कविता ...प्रस्तुत है मित्रों- "मन की व्यथा" :-