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सितंबर, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

हमें शांतिपूर्वक जीने का हक़ है...

संगठन में शक्ति है, यह कथन यूँ ही नहीं बना है। कई संगठनों ने शक्ति-प्रदर्शन कर अपनी वाजिब-गैरवाजिब मांगें समय-समय पर सरकार से मनवाई हैं। बहुत अधिक सहनशील होना शालीनता नहीं अपितु कायरता का परिचायक है। यदि धौलपुर में एससी-एसटी सम्बन्धी वर्तमान शेखचिल्ली क़ानून का विरोध कर सर्वसमाज के लोगों द्वारा गिरफ़्तारी दी जा सकती है तो राजस्थान के हर शहर में क्यों नहीं, भारत के हर शहर में क्यों नहीं यह ज़ज्बा दिखाया जा सकता है? क्यों सवर्णों की धमनियों में खून पानी से भी पतला हो गया है? सत्य के लिए, न्याय के लिए, संघर्षरत होने की आग हम अपने दिलों में जिंदा क्यों नहीं रख पा रहे हैं? कुम्भकर्णी सरकार को जगाने के लिए मात्र एक दिन का भारत-बंद यथेष्ट नहीं है। गन्दी राजनीति से उगे वर्तमान नेताओं ने, चाहे वह किसी भी दल के हों, सवर्णों को अपनी जेब की चिल्लर समझ रखा है। हम सभी को धौलपुर के जांबाजों से प्रेरणा ले कर 'जेल भरो' आन्दोलन प्रारंभ कर देना चाहिए। यह आन्दोलन इतना बड़ा रूप ले कि सरकार को अपना ध्यान चुनावों से हटाकर नई जेलों के निर्माण में लगाना पड़े। हम किसी के हक़

डायरी के पन्नों से ... "सिमटी-सी वह खड़ी धरा पर..."

    मेरे देश के कुछ अहिन्दीभाषी क्षेत्रों में किसी हिन्दीभाषी व्यक्ति को ढूंढ पाना बहुत मुश्किल हो जाता है, जबकि हिन्दी हमारी मातृभाषा है। पूर्णतः वैज्ञानिक, तार्किक एवं साहित्यिक समृद्धि से परिपूर्ण हमारी हिंदी भाषा हमारे ही देश में इस तरह तिरस्कृत हो रही है, इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है! वहीं, यह बात कुछ सांत्वना देने वाली है कि अभी हाल के दिनों में 'हिन्दी' के प्रति रुझान बढ़ाने हेतु इसके प्रचार-प्रसार का उच्चतम प्रयास सरकारी स्तर पर किया जा रहा है।      आज खुशनुमा दिन है, आज 'हिन्दी-दिवस' है!      मेरे महाविद्यालयीय अध्ययन के प्रारम्भिक काल में मेरे द्वारा लिखी गई यह कविता आज यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ---                          ---०००---        सिमटी-सी वह खड़ी धरा पर                   मानो  चाँद  उतर आया।      पतझड़  मानो  बीत  चला हो,                   नया बसंत निखर आया।      या   ऊषा   ने   ली   अंगडाई,                   नया प्रभात उभर आया।      नदिया कोई  उमड़  पड़ी या                   झरना  कोई  झर आया।      परी  एक  उतरी  नभ स

एक अंदेशा मेरे जेहन में

एक अंदेशा मेरे जेहन में ..... अच्छी है पार्टी, अच्छा है नेतृत्व, और किये भी हैं, कुछ तो अच्छे काम। पर ले डूबे इस सरकार को शायद, सवर्णों का गुस्सा, पेट्रोल के दाम। ...यहाँ मुझे शायर बशर साहब का एक कलाम याद आ रहा है - 'उन्हें कामयाबी में सुकून नज़र आया तो वो दौड़ते गए, हमें सुकून में कामयाबी दिखी तो हम ठहर गए ...! ख्वाहिशों के बोझ में बशर तू क्या क्या कर रहा है... इतना तो जीना भी नहीं जितना तू मर रहा है...!'

एक विनम्र अनुरोध...!

भारत- बंद की अपूर्व सफलता के लिए समता आन्दोलन समिति एवम् सर्व समाज संघर्ष समिति को बधाई तथा आन्दोलन के दौरान वातावरण में शांति व सौहार्दता बनाये रखने के लिए साधुवाद! मेरा आव्हान है अनुसूचित जाति एवम् अनुसूचित जनजाति के उन भाइयों से, जिनका व्यक्तित्व सौजन्यता एवं सकारात्मक सोच से परिपूर्ण हैं, जो वर्ग और जाति की संकीर्णता से परे हैं। मेरा आव्हान इनके नेताओं या सवर्ण वर्ग के नेताओं के प्रति नहीं है क्योंकि नेता अनुसूचित जाति एवम् अनुसूचित जनजाति के वर्ग का या सवर्णों के वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करते। नेताओं की अलग जाति होती है, अलग वर्ग होता है। नेता अनपढ़ हो सकता है, पढ़ा-लिखा हो सकता है, लेकिन सौजन्य एवं सकारात्मक सोच वाला नहीं हुआ करता। तो, मैं दलित वर्ग के सभी भाइयों से विनम्रतापूर्वक अनुरोध करूँगा कि वह देश-हित में, न्याय-हित में तथा सामाजिक समरसता बनाये रखने के लिए सवर्णों की समस्या को समझें, नेताओं की कुटिल चालों को समझें व स्वार्थपरता से ऊपर उठकर अपने विवेक का प्रयोग कर, सवर्णों के द्वारा प्रारंभ किये गए न्यायोचित आन्दोलन को अपना समर्थन दें। दलित