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सितंबर, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

डायरी के पन्नों से ..."पांच सूत्री कार्यक्रम"

     विषय भी पुराना है, सन्दर्भ भी पुराना है और मेरी यह व्यंग्य-रचना भी पुरानी है- स्व. श्री संजय गांधी (स्व. श्रीमती इन्दिरा गांधी के पुत्र ) के समय की....लेकिन आज भी लोगों में कहीं-न-कहीं वही सोच काम करती है।                        

डायरी के पन्नों से..."प्यार तुझे सिखला दूंगा"

मानवीय संवेदनाओं से जुड़े हुए रसों में से ही कोई एक रस शब्दों का आकार लेकर कविता को जन्म देता है। मेरी इस रचना ने भी कुछ ऐसे ही जन्म लिया था।             खामोशी में रहने वाले, घुट-घुट आहें भरने वाले, नफरत सबसे करने वाले, प्यार तुझे सिखला दूँगा। क्यों चाह तुझे है नफरत की, कब तूने खुद को जाना है? तू क्या है, तुझमें क्या है, तुझको मैंने पहचाना है होठों पर उल्लास बहुत है. आँखों में विश्वास बहुत है, तेरे दिल में प्यार बहुत ह यह भी मैं दिखला दूँगा।। ‘‘ख़ामोशी में … ‘’ गर थोड़ा सहस तुझमें है, दुनिया जो चाहे कहने दे, पलकों की कोरों से अपनी, यों जीवन-रस ना बहने दे। देख, अभी तुझको जीना है, कभी-कभी विष भी पीना है, दुनिया में फिर भी रहना है, गम तेरे अपना लूँगा।। “ख़ामोशी में … ” तुझसे कब चाहा है मैंने, जीवन का मृदुहास मुझे दे बस यही चाहता मैं तुझसे, तू अपना विश्वास मुझे दे। दिल के ज़ख्मों में पीर भरे, कुछ भाव गहन-गंभीर भरे, आँखों में थोड़ा नीर भरे, मैं खुद को बहला लूँगा।। “ख़ामोशी में … ” *********

डायरी के पन्नों से ... "एक रात..."

जो किशोरवय युवा अभी यौवनावस्था से गुज़र रहे हैं वह इसी काल को जीते हुए और जो इस अवस्था से आगे निकल चुके हैं वह तथा जो बहुत आगे निकल चुके हैं वह भी, कुछ क्षणों के लिए उस काल को जीने का प्रयास करें जिस काल को मैंने इस प्रस्तुत की जा रही कविता में जीया था।…     कक्षा-प्रतिनिधि का चुनाव होने वाला था। रीजनल कॉलेज, अजमेर में प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया था मैंने उन दिनों। कक्षा के सहपाठी लड़कों से तो मित्रता (अच्छी पहचान ) लगभग हो चुकी थी, लेकिन लड़कियों से उतना घुलना-मिलना नहीं हो पाया था तब तक। अब चुनाव जीतने के लिए उनके वोट भी तो चाहिए थे, अतः उनकी नज़रों में आने के लिए थोड़ी तुकबंदी कर डाली। दोस्तों के ठहाकों के बीच एक खाली पीरियड में मैंने कक्षा में यह कविता सुना दी। किरण नाम की दो लड़कियों सहित कुल 12 लड़कियां थीं कक्षा में और उन सभी का नाम आप देखेंगे मेरी इस तुकबंदी वाली कविता में (अंडरलाइन वाले शब्द )। ... और मैं चुनाव जीत गया था।                     

डायरी के पन्नों से ..."महक उठेगा ज़र्रा-ज़र्रा"

मेरा अध्ययन-काल मेरी कविताओं का स्वर्णिम काल था। मेरी उस समय की रचनाओं में से ही एक कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ - "महक उठेगा ज़र्रा-ज़र्रा..."

फिर अवसर नहीं मिलने वाला...

     कठिन परिश्रम और लम्बी प्रतीक्षा के बाद यदि कोई अवसर मिलता है तो समय से उसका पूरा-पूरा सदुपयोग कर लेना ही बुद्धिमानी है। इस सत्य को हर समझदार व्यक्ति जानता है पर सफलता के अहंकारवश अधिकांश व्यक्ति राह से भटक जाते हैं। सफलता की राह में बाधा बनकर कई विपरीत परिस्थितियां आती हैं लेकिन उन पर विजय प्राप्त कर अपनी राह पर निरन्तर आगे बढ़ने वाला सक्षम व्यक्ति ही इतिहास बनाता है।        हमारे समक्ष दो ऐसी हस्तियाँ हैं जिन्होंने राजनीति में चमत्कार कर दिखाया है। मैं बात कर रहा हूँ

डायरी के पन्नों से... "भीगे नयन निहार रहे हैं..."

          "भीगे नयन निहार रहे हैं"- मेरे ही द्वारा चयनित यह शीर्षक था कविता प्रतियोगिता के लिए, जब महाराजा कॉलेज, जयपुर में प्रथम वर्ष में अध्ययन के दौरान मैंने राज्यस्तरीय अंतर्महाविद्यालयीय  कविता-प्रतियोगिता आयोजित करवाई थी। मैं उस वर्ष कॉलेज की साहित्यिक परिषद 'साहित्य-समाज' का सचिव था। राज्य के कुछ स्थापित विद्यार्थी कवियों ने भी भाग लिया था उस प्रतियोगिता में। मैंने भी इस शीर्षक पर लिखी कविता में विरह-तप्त नायिका के उद्गारों को शब्दों में ढाला था। निर्णायकों द्वारा मेरी कविता सराही तो गई थी, लेकिन पुरस्कार नहीं पा सकी थी। उस समय के ख्यात विद्यार्थी-कवि 'मणि मधुकर' ने प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया था।          मेरे उपनाम (तख़ल्लुस ) 'हृदयेश' (अन्य कवियों की तरह उपनाम लगाने का शौक मुझे भी चढ़ा था उन दिनों ) के साथ लिखी वह कविता मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ - ' भीगे नयन निहार रहे हैं '                तन-प्राणों से सजल स्वर, प्रियतम,तुम्हें पुकार रहे हैं।  देव! तुम्हारे सूने पथ को, भीगे नयन निह

मुझे मोक्ष नहीं चाहिए

              मोक्ष की अवधारणा कल्पना मात्र  है या वास्तविकता पर आधारित- यह विवाद का विषय तो हो ही नहीं सकता, क्योंकि विवाद की सार्थकता तभी होती है जब सत्य तक पहुंचा जा सके। यद्यपि पौराणिक ग्रंथों और अन्य धर्म-शास्त्रों में इसका उल्लेख  है और इसका महात्म्य भी बताया गया है, लेकिन इसकी प्रामाणिकता इसलिए संभव नहीं हो सकी है क्योंकि यह विषय ही परालौकिक है।         ईश्वर है या नहीं है, इसका उत्तर

डायरी के पन्नों से ..."जीवन और मृत्यु"

 चलचित्र 'वक्त' के लिए आशा भोंसले की मदहोश आवाज़ में गाया गीत - 'आगे भी जाने न तू , पीछे भी जाने न तू , जो भी है बस यही इक पल है...कर ले पूरी आरज़ू !''- जिसने ध्यान से सुना है और इसके मर्म को समझा है, वह  निश्चित ही अपने जीवन के हर पल को जी रहा होगा। तो जी लो दोस्तों, अपने जीवन के हर पल को तबीयत से जी लो, क्योंकि.....अगले पल क्या होने वाला है किसी को नहीं पता ! ( ईश्वर करे सबके लिए सब-कुछ अच्छा ही हो। )     मेरी यह क्षणिका भी जीवन की क्षण-भंगुरता के कटु-सत्य को प्रदर्शित करती है।            "जीवन और मृत्यु"  सुबह का विश्वास लेकर,  शाम की आस लेकर,  आकाश में उड़ती चिड़िया,  अनायास ही,   दोपहर में   गिर पड़ी   धरती पर,  अपने पंख फड़फड़ा कर।              -----            

डायरी के पन्नों से ..."तृतीय विश्व युद्ध" -------

   तृतीय विश्व-युद्ध सम्भवतः नहीं होगा, लेकिन कुछ देश जिस तरह की गैर ज़िम्मेदाराना हरकतें कर रहे हैं, उससे एक डरावने भविष्य का संकेत मिल रहा है। यदि अनहोनी होती ही है तो परिणाम क्या होगा? इसी कल्पना की उपज है मेरी यह कविता...!

डायरी के पन्नों से ... "ईर्ष्या"

     कोई यदि किसी दूसरे के अधिकार की जगह पर स्थापित हो जाये तो उसके प्रति क्रोध, आक्रोश, दुःख, घृणा, ईर्ष्या या बदले की भावना या ऐसी ही कोई अन्य प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है। ऐसा ही एक भाव मेरी इस क्षणिका में...!           "ईर्ष्या"   नींद पलकों को छूकर चली जाती है, हर रात जब वह आती है, क्योंकि- दिल में बसी हुई तुम्हारी तस्वीर, उसे मेरी आँखों में नज़र आती है।      -----   ki

शर्म के कारण...

       फेसबुक की संरचना से पहले की बात -       पत्नी को जब पति की तारीफ करनी होती थी तो शर्म के कारण सीधे नहीं कहकर बच्चे को कहती थी - 'आज तुम्हारे पापा कितने अच्छे लग रहे हैं!' और बच्चा पापा को बता देता - 'पापा-पापा, मम्मी कह रही हैं कि आप आज बहुत अच्छे लग रहे हो।' यही तरीका पति भी काम में लेता था।     शर्म तो अब भी खूब लगती है, लेकिन फेसबुक होने से तारीफ करने के लिए पति-पत्नी को अब बच्चे पर निर्भर नहीं रहना पड़ता। सामने ही बैठे पति ने जैसे ही फेसबुक में अपनी फोटो पोस्ट की तो झट से पत्नी ने अपनी फेसबुक ओपन कर, फोटो को लाइक किया और नीचे कमेंट चिपका दिया - 'Nice click, बहुत अच्छे लग रहे हो।' 

वर्ष में एक बार ही क्यों ?

     आज सुबह-सवेरे बाज़ार निकलना हुआ। सड़क पर वाहनों का लगभग जाम ही लगा हुआ था। आगे जाकर पता लगा, दो-ढाई माह से जो सड़कें टूटी-फूटी पड़ी थीं, उनकी सुध ली गई है, सुधारा जा रहा है। मन आश्वस्त हुआ कि चलो अब सड़क पर रीढ़ की हड्डी पर बिना जर्क खाए वाहन चलाया जा सकेगा, किसी के वाहन भी अब नहीं गिरेंगे।      जहाँ यह विचार चल रहां था, एक और विचार  दिमाग में उभर आया। अभी सुधारी जाने के बाद वर्षा ऋतु के उपरान्त  इन सड़कों का पुनः उद्धार किया जायगा और यह सिलसिला यथावत यूँ ही हर वर्ष चलता रहेगा। सड़क का काम करवाने वाली सरकारी/ गैरसरकारी संस्थाओं को इस तरह का यह काम वर्ष में केवल एक बार मिलता है। अब बारिश पर तो कोई वश है नहीं क्योंकि वह वार्षिक क्रम से ही आती है, लेकिन यदि सड़क-निर्माण की गुणवत्ता को थोड़ा और कमज़ोर करवा दिया जाय तो इन संस्थाओं को वर्ष में एक से अधिक बार काम मिल सकेगा। 

शौचालय का सच...???

      आज गृहकार्य-सहयोगिनी 'बाई' हमारे घर पर कुछ देरी से आई। शहर के पास ही एक ग्रामीण बस्ती में रहती है वह। मेरी धर्मपत्नी ने देरी का कारण पूछा तो वह अनमनी-सी बोली - 'कईं करूँ मैडम जी, पाणी री घणी इल्लत वेई री ए। हवारे ऊँ हेडपम री लेन म ऊबी री, जद जाअर म्हारो नंबर लाग्यो। ईं खातर  देर वेई गी' (क्या करूँ मैडम जी, पानी की बहुत दिक्कत हो रही है। सुबह से हैण्ड-पम्प पर लाइन में खड़ी रही तब जाकर मेरा नम्बर आया, इसीलिए देर हो गई )।       पानी की दिक्कत की बात सामने आने पर सशंक पत्नी ने पूछा- 'तुम लोगों ने शौचालय तो बनवाया है न ?' बाई ने कहा- 'बणवायो तो है। थोड़ी-घणी मदद बी मिल गी ही' (बनवाया तो है। कुछ मदद भी मिल गई थी )। अब मेरा ध्यान भी पूरी तरह उनकी बातों की ओर आकर्षित हो चला था। पत्नी- 'उसमें सफाई के लिए फ्लश की व्यवस्था भी करवाई है ?  फ्लश का मतलब शायद वह समझती थी, बोली '(कशो फलश अर वलश मैडम जी ) किस फ़्लश की बात कर रहे हो आप ? हमारे पानी पीने के तो लाले पड़ रहे हैं तो शौचालय में पानी कहाँ से आएगा ?' (उसकी अपनी बोली में)       और फिर तो वह श

उत्तर पूरी पुरूष जाति के पास नहीं

एक फेसबुक-मित्र द्वारा शेयर की गई एक प्रेरक कहानी---  एक अमीर आदमी की शादी एक बुद्धिमान स्त्री से हुई। अमीर हमेशा अपनी बीवी से तर्क और वाद-विवाद मेँ हार जाता था। बीवी ने कहा कि स्त्रियाँ मर्दों से कम नहीँ.. अमीर ने कहा मैँ दो वर्षो के लिये परदेश चला जाता हूँ। एक महल,बिजनेस मेँ मुनाफा और एक बच्चा पैदा करके दिखा दो। आदमी परदेश चला गया... बीवी ने सारे कर्मचारियों में ईमानदारी का बोध जगा कर मेहनत का गुण भर दिया। पगार भी बढ़ा दी। सारे कर्मचारी खुश होकर दिल लगा कर काम करने लगे। मुनाफा काफी बढ़ा... बीवी ने महल बनवा दिया.. बीवी ने दस गायें पालीं.. उनकी काफी खातिरदारी की... गायों का दूध काफी अच्छा हुआ.. दूध से दही जमा के परदेश मेँ दही बेचने चली गई वेश बदल के.. अपने पति के पास बदले वेश में दही बेचा...और रूप के मोहपाश में फँसा कर सम्बन्ध बना लिया। एक दो बार और सम्बन्ध बना के अँगूठी उपहार में लेकर घर लौट आई। बीवी एक बच्चे की माँ भी बन गई। दो साल पूरे होने पर पति घर आया। महल और शानो-शौकत देखकर पति दंग और प्रसन्न हो गया। मगर जैसे ही बीवी की गोद मेँ बच्चा देखा, क्रोध से चीख उ

भारत में महिला रक्षा मंत्री बनने के बाद...

एक फेसबुक-मित्र द्वारा शेयर की गई यह हास्य-पोस्ट बहुत अच्छी लगी, यथावत प्रस्तुत कर रहा हूँ :- महिला रक्षा मंत्री बनने के बाद भविष्य में होने वाले रक्षा सौदों के संवाद.... _*"इस टैंक में दूसरी डिजाइन है क्या ?"*_ _*"यह गोला इस तोप के साथ मैच नहीं हो रहा है।"*_ _*"इस राईफल में लटकन नहीं लगाओगे ?"*_ _*"इतने सारे गोले लिए हैं, थोड़े कारतूस फ्री नहीं दोगे ?"*_ _*"थोड़ा बाजिब लगाईये भाईसाब।"*_ _*"रुस वाले तो आप से कम भाव में दे रहे हैं।"*_ _*"हमेशा आपके यहाँ से ही लेते हैं।"*_ _*"पिछली बार कैसे गोले दिये थे, एक भी नहीं फूटा।"*_ _*"जो भी हो, बदलना तो पड़ेंगे ही।"*_ _*"इस राईफल को धोने के बाद जंग तो नहीं लगेगी ?"*_ _*"अभी नहीं लेना, बस टैंक ही देखना था."*_ _*"ये मना कर रहे हैं, राईफल वापिस ले लो."*_ _*"टैंक का कलर तो नहीं जायेगा ?"*_

डायरी के पन्नों से ..."प्रियतमे, तब अचानक..."

   विरहाकुल हृदय प्रकृति के अंक में अपने प्रेम को तलाशता है, उसी से प्रश्न करता है और उसी से उत्तर पाता है।      मन के उद्गारों को अभिव्यक्ति दी है मेरी इस कविता की पंक्तियों ने।    कविता की प्रस्तुति से पहले इसकी रचना के समय-खण्ड को भी उल्लेखित करना चाहूँगा।    मेरे अध्ययन-काल में स्कूली शिक्षा के बाद का एक वर्ष महाराजा कॉलेज, जयपुर में अध्ययन करते हुए बीता। इस खूबसूरत वर्ष में मैं प्रथम वर्ष, विज्ञान का विद्यार्थी था। इसी वर्ष मैं कॉलेज में 'हिंदी साहित्य समाज' का सचिव मनोनीत किया गया था। यह प्रथम अवसर था जब मेरे व अध्यक्ष के सम्मिलित प्रयास से हमारे कॉलेज में अंतरमहाविद्यालयीय कविता-प्रतियोगिता का आयोजन किया जा सका था। मेरा यह पूरा वर्ष साहित्यिक गतिविधियों के प्रति समर्पित रहा था और यह भी कि मेरी कुछ रचनाओं ने इसी काल में जन्म लिया था। साहित्य-आराधना के साइड एफेक्ट के रूप में मेरा परीक्षा परिणाम 'अनुत्तीर्ण' घोषित हुआ।      मुझे पूर्णतः आभास हो गया था कि अध्ययन सम्बन्धी मेरा भविष्य मुझे यहाँ नहीं मिलने वाला है अतः मैंने  जयपुर छोड़कर रीजनल कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन, अजमेर मे

डायरी के पन्नों से..."नारी की व्यथा"

      स्त्री ने त्रेता युग में सीता के रूप में तो द्वापर युग में द्रोपदी बन कर 'स्त्री' होने की पीड़ा को भोगा था और तब से अब तक कलियुग में भी भोगती चली आ रही है। हम अपने आपको कितना भी प्रगतिशील क्यों न कह लें, आज भी पुरुष की सोच नारी-जाति के प्रति संकीर्ण, स्वार्थपरक और भोगवादी है। पुत्री के जन्म पर आज भी अधिकांश माता-पिता उतने  प्रसन्न दिखाई नहीं देते जितने पुत्र के जन्म पर। सम्भवतः इसके पीछे पुत्री की सुरक्षा के प्रति आशंकित सोच ही उत्तरदायी होती है। समाज-सुधारकों के अथक प्रयासों तथा राजनेताओं के दावों / वादों के उपरान्त भी स्त्री आज भी असुरक्षित है। नारी-जीवन की पीड़ा के इसी पक्ष की झलक पाएँगे आप मेरी इस कविता 'नारी की व्यथा' में।      यह कविता मैंने अपने अध्ययनकाल में (रीजनल कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन, अजमेर में ) लिखी थी और कॉलेज के एक कार्यक्रम (कॉलेज हाउसेज़ की प्रतियोगिता ) में, जिसका मैंने सञ्चालन किया था, इसकी प्रस्तुति भी दी थी।