"भीगे नयन निहार रहे हैं"- मेरे ही द्वारा चयनित यह शीर्षक था कविता प्रतियोगिता के लिए, जब महाराजा कॉलेज, जयपुर में प्रथम वर्ष में अध्ययन के दौरान मैंने राज्यस्तरीय अंतर्महाविद्यालयीय कविता-प्रतियोगिता आयोजित करवाई थी। मैं उस वर्ष कॉलेज की साहित्यिक परिषद 'साहित्य-समाज' का सचिव था। राज्य के कुछ स्थापित विद्यार्थी कवियों ने भी भाग लिया था उस प्रतियोगिता में। मैंने भी इस शीर्षक पर लिखी कविता में विरह-तप्त नायिका के उद्गारों को शब्दों में ढाला था। निर्णायकों द्वारा मेरी कविता सराही तो गई थी, लेकिन पुरस्कार नहीं पा सकी थी। उस समय के ख्यात विद्यार्थी-कवि 'मणि मधुकर' ने प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया था।
मेरे उपनाम (तख़ल्लुस ) 'हृदयेश' (अन्य कवियों की तरह उपनाम लगाने का शौक मुझे भी चढ़ा था उन दिनों ) के साथ लिखी वह कविता मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ -
'भीगे नयन निहार रहे हैं '
तन-प्राणों से सजल स्वर,
प्रियतम,तुम्हें पुकार रहे हैं।
देव! तुम्हारे सूने पथ को,
भीगे नयन निहार रहे हैं।
तन, मन ’औ’ अभिलाषाएँ,
सब चरणों में अर्पित थीं।
चेहरे की मुस्कान-हँसी,
सब तुम ही पर केन्द्रित थीं।
आश्वासन तुम्हारे अब तो,
जीवन के आधार रहे हैं।
'तन-प्राणों से...'
कल-कल के मृदु कलरव से,
जीवन का झरना बहता था,
तुम मेरे हो, केवल मेरे,
रोम-रोम तब कहता था।
अब तो आशा और निराशा,
श्वासों के आधार रहे हैं।
'तन-प्राणों से...'
पलकों में छाये जीवन-धन,
मैं कैसे भुला सकती हूँ ?
युग जो मुझको लगते वह पल,
मैं कैसे बिता सकती हूँ ?
कैसे भूलूँ ओ ‘हृदयेश’,
यत्न सभी अब हार रहे हैं।
‘तन-प्राणों से...'
********
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें