मेरा अध्ययन-काल मेरी कविताओं का स्वर्णिम काल था। मेरी उस समय की रचनाओं में से ही एक कविता प्रस्तुत
कर रहा हूँ - "महक उठेगा ज़र्रा-ज़र्रा..."
"महक उठेगा ज़र्रा-ज़र्रा"
महक उठेगा ज़र्रा- ज़र्रा,
अगर पास तुम आ जाओ।
पतझड़ बीता,बीत चला औ’
ली यौवन ने अंगड़ाई।
हौले से भँवरों ने छेड़ा,
घूंघट में कलियाँ शरमाईं।
मन का पंछी चहक उठेगा,
ज़रा अगर तुम मुस्काओ।
‘महक उठेगा…’
खुशियों से जोड़े झूम उठे,
मौसम भी गुलज़ार हुआ।
धरती से बोला आसमां कि
मुझको तुमसे प्यार हुआ।
मनुहार नहीं ज्यादा अच्छी,
अब और न तुम शरमाओ।
‘महक उठेगा…’
सागर की लहरें मचल उठी,
पर्वत भी मानो बोल दिए।
गुन-गुन कर भौंरा डोला तो,
कलियों ने घूंघट खोल दिए।
वीराने भी बहक उठे हैं,
मत और अधिक तड़पाओ।
‘महक उठेगा…’
दूर गगन के उन तारों से,
मैंने शर्त लगाई है।
चन्दा से मेरी रानी ने,
अच्छी सूरत पाई है।
कहीं न कोई नज़र लगा दे,
छुप कर मुखड़ा दिखलाओ।
‘महक उठेगा…’
*****
अगर पास तुम आ जाओ।
पतझड़ बीता,बीत चला औ’
ली यौवन ने अंगड़ाई।
हौले से भँवरों ने छेड़ा,
घूंघट में कलियाँ शरमाईं।
मन का पंछी चहक उठेगा,
ज़रा अगर तुम मुस्काओ।
‘महक उठेगा…’
खुशियों से जोड़े झूम उठे,
मौसम भी गुलज़ार हुआ।
धरती से बोला आसमां कि
मुझको तुमसे प्यार हुआ।
मनुहार नहीं ज्यादा अच्छी,
अब और न तुम शरमाओ।
‘महक उठेगा…’
सागर की लहरें मचल उठी,
पर्वत भी मानो बोल दिए।
गुन-गुन कर भौंरा डोला तो,
कलियों ने घूंघट खोल दिए।
वीराने भी बहक उठे हैं,
मत और अधिक तड़पाओ।
‘महक उठेगा…’
दूर गगन के उन तारों से,
मैंने शर्त लगाई है।
चन्दा से मेरी रानी ने,
अच्छी सूरत पाई है।
कहीं न कोई नज़र लगा दे,
छुप कर मुखड़ा दिखलाओ।
‘महक उठेगा…’
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