मोक्ष की अवधारणा कल्पना मात्र है या वास्तविकता पर आधारित- यह विवाद का विषय तो हो ही नहीं सकता, क्योंकि विवाद की सार्थकता तभी होती है जब सत्य तक पहुंचा जा सके। यद्यपि पौराणिक ग्रंथों और अन्य धर्म-शास्त्रों में इसका उल्लेख है और इसका महात्म्य भी बताया गया है, लेकिन इसकी प्रामाणिकता इसलिए संभव नहीं हो सकी है क्योंकि यह विषय ही परालौकिक है।
ईश्वर है या नहीं है, इसका उत्तर
भी मनुष्य की आस्था पर निर्भर है। व्यक्तिगत रूप से मैं ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखता हूँ और इसके पीछे धार्मिक विश्वास या निजी आस्था मात्र ही कारण नहीं हैं, अपितु तर्कसम्मत दृष्टिकोण भी है।
मोक्ष की अवधारणा का कोई वैज्ञानिक या तार्किक आधार नहीं है, वहीं पूर्वजन्म/ पुनर्जन्म के कुछ दृष्टान्त देखने में अवश्य आये हैं लेकिन इनकी प्रमाणिकता भी गहन अनुसन्धान का विषय है।
अब यदि मान भी लिया जाय कि मोक्ष की अवधारणा सही है तो भी मैं तो मोक्ष कदापि नहीं चाहता, अपनी आत्मा के अस्तित्व को पूर्ण रूप से विलीन होने देना नहीं चाहता। मैं ऐसा मानता हूँ कि जीवन आनन्ददायक है और जब यह आनन्ददायक है तो आगे भी जन्म लेकर आनन्द क्यों नहीं लिया जाए ! जीवन तो ईश्वर-प्रदत्त वरदान है जबकि मोक्ष की आकांक्षा में पलायन का भाव होता है। माना कि जीवन में सुख और दुःख दोनों.भोगने होते हैं पर जीवन जीने के कर्तव्य से विमुख होना नियति से भागना ही तो है।
ईश्वर ने सृष्टि की रचना की है। संसार में जन्म लेना, अपना सम्पूर्ण जीवन जीना और अन्त में मृत्यु को प्राप्त होना- संक्षेप में यही प्राणी का जीवन-चक्र है। जीवन-चक्र से मुक्ति चाहना ईश्वरीय विधान के प्रति विद्रोह का सूचक है।
कई संत और महात्मा मोक्ष के लिए तप करते हैं और औरों को भी इसके लिए प्रेरणा देते हैं। मैं नहीं कहता कि वह अनुचित कर रहे हैं, किन्तु मैं इससे सहमत नहीं, मुझे मोक्ष नहीं चाहिए। मैं अपने इस जीवन के बाद फिर आउँगा, बारम्बार आउँगा।
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