किसको जगाना चाह रहे हो भाई सिकन्दर! क्या चलती फिरती लाशों को? नहीं सुनेगा कोई तुम्हारी आवाज़ को, क्योंकि खुदगर्जी ने सब की आंखों पर पर्दा डाल रखा है और उन्हें वही दिखाई देता है जो वह देखना चाहते हैं। बात-बहादुर यह लोग सोशल मीडिया पर मानवता की दुहाई देने और बड़ी-बड़ी डींगें हांकने तक सीमित हैं। अपने आसपास हो रहे अत्याचार, लूट या हत्या-बलात्कार से इनकी सम्वेदना जागृत नहीं होती, जागृत हो भी तो कैसे क्योंकि वह तो मर चुकी है। यह लोग हर दुर्घटना या अनहोनी होने पर पुलिस और सरकार का मुँह देखेंगे और उनकी ही जिम्मेदारी मान कर अपनी आंखें फेर लेंगे, जब कि जिनकी जिम्मेदारी वह मान रहे हैं वह भी हद दर्जे तक गैरजिम्मेदार हैं, कुछ अपवाद छोड़कर। अंधेरा ही अंधेरा है मेरे दोस्त, दूर-दूर तक रौशनी की एक झलक भी दिखाई नहीं देती। बस हम भारत की प्राचीन गौरव-गाथा और हमारी संस्कृति का गुणगान कर कर के खुश होते रहें...