सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

स्वच्छता अभियान (लघुकथा)

 
      मेरा शहर स्मार्ट सिटी बनने जा रहा था और इस कड़ी में अभियान को चलते एक वर्ष से कहीं अधिक समय निकल चुका था। 

      शहर के एक प्रतिष्ठित दैनिक समाचार पत्र की टीम ने स्वच्छता अभियान के तहत नए वित्त वर्ष में सर्वप्रथम स्थानीय कलक्टर कार्यालय के सम्पूर्ण परिसर की जाँच-पड़ताल की तो समस्त परिसर में गन्दगी का वह आलम देखा कि टीम के सदस्य भौंचक्के रह गये। कहीं सीढियों के नीचे कबाड़ का कचरा पड़ा था, तो कहीं कमरों के बाहर गलियारों की छतें-दीवारें मकड़ियों के जालों से अटी पड़ी थीं। एक तरफ एक कोने में खुले में टूटे-फूटे फर्नीचर का लम्बे समय से पड़े कबाड़ का डेरा था तो सीढियों से लगती दीवारों पर जगह-जगह गुटखे-पान की पीक की चित्रकारी थी। साफ़ लग रहा था कि महीनों से कहीं कोई साफ-सफाई नहीं की गई है।
     समाचार पत्र ने अगले ही दिन अपने मुखपृष्ठ पर बड़े-बड़े अक्षरों में उपरोक्त हालात उजागर कर शहर की समस्त व्यवस्थाओं को सुचारू रखने के लिए ज़िम्मेदार महकमे की प्रतिष्ठा की धज्जियाँ उड़ा दी।
     कहने की आवश्यकता नहीं कि मुखपृष्ठ पर नज़र पड़ते ही कलक्टर साहब की आज सुबह की चाय का जायका ही बिगड़ गया। अनमने ढंग से तैयार होकर दफ्तर पहुंचे तो वहां एक बाजू में किसी अधिकारी की पार्क की हुई कार देखी, जिसे वह वहां पहले भी कई बार देखते आये थे। आज उन्हें लगा कि कार गलत जगह पार्क की गई है सो उस कार के ड्राइवर को बुलवाया और उसे बुरी तरह से झिड़क कर कार वहाँ से हटवाई।
    अपने चैम्बर में जा कर कुर्सी पर बैठते ही कलक्टर साहब ने घंटी बजाई और चपरासी को बुलाकर आदेश दिया कि तुरत पी.ए. साहब और ओ.ए. साहब को उनके पास भेजे।  दोनों के आते ही कलेक्टर साहब बिफर पड़े- "क्या हो रहा है इस कलक्ट्रेट में, कुछ पता भी है आप लोगों को?"
    दोनों अधीनस्थों ने एक-दूसरे की आँखों में अबूझ भाव से देखा और पुनः एक अज्ञात अपराध-बोध के साथ साहब की ओर देखा।
    "आज का अखबार पढ़ा आप लोगों ने? कितनी फजीहत हुई है हमारे महकमे की?"- साहब ने पुनः झुंझलाते हुए कहा और फिर पी.ए. की ओर मुखातिब हुए- "जाइए आप,  देखिये कार्यालय में सभी जगह घूम कर कि कहाँ-कहाँ गन्दगी हो रही है। सभी ज़िम्मेदार लोगों को ताकीद कीजिए कि तीन दिन के भीतर मुझे सब जगह सफाई चाहिए।"
     'जी' कह, सिर झुका कर दोनों साहब के चैम्बर से बाहर निकले। सिर को हल्की-सी जुम्बिश देकर ओ.ए. साहब अपने कक्ष की ओर चल दिए और पी.ए.साहब ने कैन्टीन में जा कर चाय पी और फिर जर्दे का पान खा कर चल पड़े कार्यालय परिसर का मुआयना करने! दो-तीन जगह देख-दाख कर ऊपरी मंजिल के लिए सीढियां चढ़ रहे थे कि सामने से अकाउंटेंट साहब नीचे आते हुए मिल गए, बोले- "क्या बात है पी.ए. सा'ब, आज सुबह-सुबह इधर कैसे?"
     मुंह में भरी जर्दे वाली पीक निगल तो नहीं सकते थे सो दीवार पर उगलते हुए पी.ए. साहब ने तल्खी भरे स्वरों में कहा- "इन अखबार वालों को सालों को कोई और काम तो सूझता नहीं, इधर-उधर मुँह मारते फिरते हैं। अब आज का अखबार तो आपने पढ़ा ही होगा। ऑफिस आते ही कलक्टर साहब हम पर गरम हो गए और पूरे दफ्तर का मुआयना करने मुझे भेजा है।...और अकाउंटेंट सा'ब, आप तो अपने महकमे के इन..(एक भारी-भरकम गाली)..बाबुओं-चपरासियों को जानते ही हो।  निकम्मे, साले काम तो कुछ करते नहीं, इधर-उधर गन्दगी फैलाते रहते हैं।"
     पी.ए. साहब ऊपर की ओर चले और अकाउंटेंट साहब ने भी यह कहते हुए कि इन कर्मचारियों से कौन माथापच्ची करे, अपने मुंह में भर आई जर्दे की पीक दीवार पर थूकी और नीचे की ओर उतर पड़े।
     उधर, ऊपर जाकर पी.ए. साहब बाबू लोगों से गुफ्तगू में लग गए।...थोड़ी देर बाद एक चपरासी पी.ए. साहब के लिए चाय-नाश्ता लाने के लिए सीढ़ियाँ उतर रहा था।
                                 
                              
********



टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

तन्हाई (ग़ज़ल)

मेरी एक नई पेशकश दोस्तों --- मौसम बेरहम देखे, दरख्त फिर भी ज़िन्दा है, बदन इसका मगर कुछ खोखला हो गया है।   बहार  आएगी  कभी,  ये  भरोसा  नहीं  रहा, पतझड़ का आलम  बहुत लम्बा हो गया है।   रहनुमाई बागवां की, अब कुछ करे तो करे, सब्र  का  सिलसिला  बेइन्तहां  हो  गया  है।    या तो मैं हूँ, या फिर मेरी  ख़ामोशी  है यहाँ, सूना - सूना  सा  मेरा  जहां  हो  गया  है।  यूँ  तो उनकी  महफ़िल में  रौनक़ बहुत है, 'हृदयेश' लेकिन फिर भी तन्हा  हो गया है।                          *****  

बेटी (कहानी)

  “अरे राधिका, तुम अभी तक अपने घर नहीं गईं?” घर की बुज़ुर्ग महिला ने बरामदे में आ कर राधिका से पूछा। राधिका इस घर में झाड़ू-पौंछा व बर्तन मांजने का काम करती थी।  “जी माँजी, बस निकल ही रही हूँ। आज बर्तन कुछ ज़्यादा थे और सिर में दर्द भी हो रहा था, सो थोड़ी देर लग गई।” -राधिका ने अपने हाथ के आखिरी बर्तन को धो कर टोकरी में रखते हुए जवाब दिया।  “अरे, तो पहले क्यों नहीं बताया। मैं तुमसे कुछ ज़रूरी बर्तन ही मंजवा लेती। बाकी के बर्तन कल मंज जाते।” “कोई बात नहीं, अब तो काम हो ही गया है। जाती हूँ अब।”- राधिका खड़े हो कर अपने कपडे ठीक करते हुए बोली। अपने काम से राधिका ने इस परिवार के लोगों में अपनी अच्छी साख बना ली थी और बदले में उसे उनसे अच्छा बर्ताव मिल रहा था। इस घर में काम करने के अलावा वह प्राइमरी के कुछ बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाती थी। ट्यूशन पढ़ने बच्चे उसके घर आते थे और उनके आने का समय हो रहा था, अतः राधिका तेज़ क़दमों से घर की ओर चल दी। चार माह की गर्भवती राधिका असीमपुर की घनी बस्ती के एक मकान में छोटे-छोटे दो कमरों में किराये पर रहती थी। मकान-मालकिन श्यामा देवी एक धर्मप्राण, नेक महिल...

"ऐसा क्यों" (लघुकथा)

                                   “Mother’s day” के नाम से मनाये जा रहे इस पुनीत पर्व पर मेरी यह अति-लघु लघुकथा समर्पित है समस्त माताओं को और विशेष रूप से उन बालिकाओं को जो क्रूर हैवानों की हवस का शिकार हो कर कभी माँ नहीं बन पाईं, असमय ही काल-कवलित हो गईं। ‘ऐसा क्यों’ आकाश में उड़ रही दो चीलों में से एक जो भूख से बिलबिला रही थी, धरती पर पड़े मानव-शरीर के कुछ लोथड़ों को देख कर नीचे लपकी। उन लोथड़ों के निकट पहुँचने पर उन्हें छुए बिना ही वह वापस अपनी मित्र चील के पास आकाश में लौट आई। मित्र चील ने पूछा- “क्या हुआ,  तुमने कुछ खाया क्यों नहीं ?” “वह खाने योग्य नहीं था।”- पहली चील ने जवाब दिया। “ऐसा क्यों?” “मांस के वह लोथड़े किसी बलात्कारी के शरीर के थे।” -उस चील की आँखों में घृणा थी।              **********