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अगर यह 'ख़ून' होता...

   कितना अराजक है यह शासनतंत्र और कितने बेपरवाह हैं कानून-रक्षक कि वर्षों से जनता को बेवकूफ़ बना कर blood test के नाम पर ठगने वाली व्यावसायिक प्रयोगशालाओं पर प्रतिबन्ध नहीं लगा रहे हैं। हमारे ख़ून की जाँच में यह प्रयोगशालाएं RBC count बताती हैं, haemoglobin बताती हैं, blood group बताती हैं और भी कई प्रकार के टेस्ट करने का ढोंग करती हैं, लेकिन जिसे 'ख़ून' का नाम देकर जाँच की जाती रही है, वह 'ख़ून' कहाँ है ? अगर यह 'ख़ून' होता तो निर्भया बलात्कार/हत्याकाण्ड के मामले में बालिगों वाला कृत्य करने वाले नाबालिग अपराधी की रिहाई की बात सुनते ही उबल न पड़ता ? 

अपना ज़मीर टटोलो...

   क्या खूब कहा है कहने वाले ने - 'कौन कहता है कि आसमां में छेद नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों!' यह लफ्ज़ किसी मुर्दे में भी जान फूंकने की ताक़त रखते हैं, लेकिन क्या यह उन दीवानों पर कुछ थोड़ा भी असर डाल सकेंगे जो मूवी 'दिलवाले' को सिनेमाघरों में देखने को बेताब हैं? अपने ज़मीर को टटोलो दोस्तों! इस फिल्म का हीरो वही शाहरुख़ खान है जिसने हमारे शान्तिप्रिय भारत देश को 'असहिष्णु' कहने वाले कुटिल लोगों की जमात में शामिल होकर हमारे वतन को बदनाम करने की गुस्ताख़ी की है। यह मूवी नहीं देखोगे तो कोई आसमान नहीं टूट पड़ेगा, ज़मीन रसातल में नहीं चली जाएगी। वतनपरस्त बनो और ऐसे शख़्स को ऐसा सबक दो कि फिर कभी ऐसी हिमाकत करने का ख़याल ही उसके ज़ेहन में न आ सके। जय हिन्द! जय भारत!

'असहिष्णुता'

          मुझे हिंदी भाषा का बहुत अधिक ज्ञान नहीं है और न ही शब्दकोषों को अधिक टटोलने का कभी शौक रहा है, लेकिन आजकल बहुत ही अधिक चर्चा में आये शब्द 'असहिष्णुता' को लेकर मेरे दिमाग में एक विचार कौंधा कि शायद इस शब्द ने कुछ चन्द दिनों पूर्व ही शब्दकोष में स्थान पाया है और जाहिलों से लेकर विद्वजनों (साहित्यकार,आदि) तक की जुबाओं पर नाच रहा है, अन्यथा तो वर्षों पहले पूरा शब्दकोष ही इस शब्द 'असहिष्णुता' से भर जाता, जब -     1) कश्मीर में कश्मीरी पण्डित-परिवारों पर अमानवीय जुल्म ढाए गए थे और उन्हें बेइज़्ज़त कर कश्मीर से बाहर              खदेड़ दिया गया था।  (आज तक वह अपने पुश्तैनी आशियानों से महरूम हैं।)     2) दाऊद और उसके गुर्गों ने बम-विस्फोटों द्वारा मुम्बई में लाशों के ढेर बिछा दिए थे। 

कौन हो तुम? हिन्दू, मुसलमान, या कि एक इन्सान?

'आज की रात है ज़िन्दगी' - अमिताभ बच्चन host हैं हर रविवार को दिखाए जा रहे इस serial के। अभी रात्रि के 8.45 बज रहे हैं और मैं TV में आज का इसका एपिसोड देख रहा हूँ । आज के इस एपिसोड में जो कुछ मैंने अभी हाल देखा उससे मेरा तन-मन खिल उठा है, मेरा दिल भविष्य में कुछ और अधिक सुखद देखने की कल्पना कर प्रसन्नता से हिलोरे ले रहा है। क्यों मैं इतना भावाभिभूत हो उठा हूँ - मित्रों, बताना चाहूँगा आप सभी को। आज इस एपिसोड में अमिताभ बच्चन, रणबीर कपूर तथा दीपिका पादुकोण द्वारा सम्मानित किया गया एक बालिका 'मरियम सिद्दीकी' को। 6th में पढ़ रही बारह वर्षीय इस मुस्लिम बालिका की उपलब्धि यह थी कि वह भगवद्-गीता की एक प्रतियोगिता 'Gita Champions Leage Contest', जिसमे 3000 विद्यार्थियों ने भाग लिया था, की विजेता रही है और इसके लिए 11 लाख रुपये से पुरस्कृत की गई थी। सुश्री मरियम ने अपनी यह 11 लाख की पुरस्कार-राशि राज्य सरकार (UP) को लौटा दी ताकि इस राशि का उपयोग ज़रूरतमंद बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए किया जा सके। She said, "Education is the only route to change their destiny

आरक्षण पर पुनर्विचार......???

  राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ-प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण पर पुनर्विचार के बयान से कुछ अवसरवादी नेता ठीक इस तरह कुलबुला उठे हैं  जैसी कुलबुलाहट गन्दी नाली में इकठ्ठा कीड़ों  पर फिनॉइल छिड़कने पर देखी जाती है। भारतीय राजनीति के द्वारा कोने में धकेल दिए गये लालू और मायावती जैसे नेताओं को तो मानो पुनर्स्थापित होने के लिए फुफकारने का अवसर मिल गया है। मोहन भागवत के बयान पर कुछ भी उलटी-सीधी प्रतिक्रिया व्यक्त करने से पहले भारतीय समाज के हर वर्ग के हर बुद्धिजीवी (नेता नहीं) को सोचना-समझना होगा कि वर्तमान आरक्षण नीति क्या आरक्षण की मूल भावना के आदर्शों के अनुकूल है और क्या इसके वांछित परिणाम हम प्राप्त कर सके हैं ?    स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद आरक्षण-व्यवस्था केवल दस वर्षों के लिए लागू की जानी थी, लेकिन अनुकूल परिणाम नहीं मिलने पर इसे अगले दस वर्षों के लिए और बढ़ाया गया था। यहाँ तक तो फिर भी सही था, लेकिन बाद में इसे सत्ता के सिंहासन पर चढ़ने की सीढ़ी ही बना दिया गया। जब आरक्षण के इस स्वरुप की निरर्थकता को सब ने जाँच-परख लिया था तो क्यों नहीं उसे समय रहते समाप्त या संशोधित किया गया ? आज जब मोह

तुम्हें निर्धारित करना है...

    कलर टीवी पर प्रसारित किये जा रहे धारावाहिक 'चक्रवर्ती अशोक सम्राट' के मेधावी  किशोर नायक अशोक के साथ चाणक्य के आज के संवाद का एक अंश, जिसने मेरे मन-मस्तिष्क को कुछ आन्दोलित-सा कर दिया है, प्रस्तुत कर रहा हूँ। चाणक्य अशोक को इस कहानी में परिस्थिति की तत्कालीन विषमता को समझाते हुए निम्नांकित वाक्य के साथ अपना उद्बोधन समाप्त करते हैं -     ' तुम्हें निर्धारित करना है कि आने वाली पीढ़ियों को तुम कैसा राष्ट्र सौंप कर जाओगे!'       क्या आज की परिस्थिति में या किसी भी देशकाल में किसी भी राष्ट्र के लिए यह बात सन्दर्भ नहीं रखती? अवश्य रखती है, बस देश व देशवासियों को प्यार करने वाला, संकल्पित व्यक्तित्व का स्वामी एक.…एक अशोक होना चाहिए और होना चाहिए दूरदर्शी, समर्पित और नीतिवान कुशल राजनीतिज्ञ एक चाणक्य!    ऐसा हुआ, तो क्या मौर्यकालीन 'स्वर्ण-युग' पुनः लौट कर नहीं आ जायेगा !    मेरे देश के कर्णधार! आज की युवाशक्ति! तुम्हें...यह तुम्हें निर्धारित करना है....

सज़ा-ए-मौत ...

 प्रबुद्ध मित्रों,  निम्नलिखित आलेख यद्यपि कुछ विस्तार ले गया है फिर भी चाहूंगा कि आप इसे पढ़ें और मेरे विचारों से सहमति / असहमति से अवगत करावें।    जघन्य अपराधी को भी फांसी न दी जाय और फांसी के दंड का प्रावधान ही समाप्त कर दिया जाये, इस मत के समर्थकों को गहन चिकित्सा सहायता की आवश्यकता है। यदि चिकित्सा से भी उपचार न हो पाये तो ऐसे रोगियों में से कुछ के दिमाग को सर्जरी के द्वारा खोला जाकर गहन अध्ययन किया जाना चाहिए कि कौन से कीटाणुओं ने इनकी सोच को विवेकहीन बना दिया है।     मुझे बहुत उद्वेलित कर दिया है उन दिग्भ्रमित लोगों के comments ने, जो आतंककारी याकूब की फांसी के मसले में मूलतः अपनी-अपनी  रोटी सेंकने के मकसद से किये गये हैं। आश्चर्य तो इस बात का है कि ऐसे  comments उन लोगों ने भी किये हैं जो कानून की बड़ी-बड़ी पोथियाँ पढ़ने के बाद अरसे तक न्यायालयों को अपने तर्कों से विचारने को विवश करने की क्षमता रखते हैं। अपराधियों को बचाने के लिए कानून को तोड़ने-मरोड़ने की रणनीति का उपयोग करना और झूठ से आच्छादित व्यूह-रचना कर सत्य को असत्य और असत्य को सत्य में तब्दील करना इनके पेशे की मज

फिर लौट के आना...

   हरदिल-मसीहा कलाम साहब!     स्वार्थ और छलावे से भरी इस बेमुरब्बत दुनिया को छोड़ जाने का आपका निर्णय कत्तई गलत नहीं कहा जा सकता। मुझे याद आता है वह गुज़रा हुआ कल जब आपको दूसरी बार राष्ट्रपति बनाने के प्रस्ताव का कुछ मतलबपरस्त लोगों ने विरोध किया था। वैसे भी आपने तो निर्लिप्त भाव से कह ही दिया था कि सर्वसम्मति के बिना आप दुबारा राष्ट्रपति बनना नहीं चाहते। आप जैसे निष्पक्ष और स्वतन्त्र व्यक्तित्व को खुदगर्ज राजनीतिबाजों ने पुनः अवसर देने से रोक कर आपको फिर से राष्ट्रपति के रूप में दे खने से देश को महरूम कर दिया था। उन लोगों ने भी आपके चले जाने पर मगरमच्छी आंसू ज़रूर गिराये होंगे पर क्या आपके प्रति कृतज्ञ यह देश उन्हें क्षमा कर सकेगा?    आप चले तो गए हैं पर हर देशभक्त भारतवासी के मनमन्दिर में फ़रिश्ते की मानिन्द ताज़िन्दगी मौजूद रहेंगे।    फिर लौट के आना कलाम साहब,अब आपकी शान में कोई गुस्ताखी नहीं होने देंगे हम !!!  frown emoticon   frown emoticon   frown emoticon

कल्प-वृक्ष

    जुनून की हद तक बागवानी का शौक पालने वाली मेरी धर्मपत्नी जयप्रभा ने सन् 1997 में कल्पवृक्ष का एक शिशु-पौधा ख़रीदा था। पहले एक छोटे गमले में और कुछ बड़ा होने के बाद उसे एक बड़े गमले में सहेजा गया। जयप्रभा के द्वारा की गई नित्य साज-सम्हाल और पूजा- अर्चना से गत् 18 वर्षों में इस पौधे ने लगभग 12 फ़ीट की ऊंचाई हांसिल कर ली थी। पौधे ने अब वृक्ष का रूप तो ले लिया था, लेकिन वह वृहद् आकार अभी तक नहीं पा सका था जो इन 18 वर्षों में ज़मीन में होने पर मिलता। पिछले कुछ माहों से जयप्रभा के मन में  यह विचार उभर रहा था कि क्यों नहीं इस कल्पवृक्ष का रोपण किसी मंदिर जैसे सार्वजानिक स्थान पर कर दिया जाय ताकि इसे इसका स्वाभाविक आकार भी प्राप्त हो और अन्य लोग भी इसकी पूजा-अर्चना का लाभ प्राप्त कर सकें ! विचार को मूर्त रूप देने के लिए उन्होंने हमारी कॉलोनी में ही स्थित एक निजी मंदिर की स्वामिनी सेे बातचीत की और अनुमति प्राप्त कर हम बाग़वान उदयलाल की मदद से आज इस वृक्ष को गमले सहित मंदिर में ले गए। मंदिर में अनूकूल स्थान पर खड्डा खोद कर गमले से निकाले गए इस वृक्ष का रोपण कर दिया और प्रारम्भिक लघुपूजा भी जयप्र

एक पत्र प्रधानमंत्री जी के नाम.…

माननीय प्रधानमंत्री जी, बहुत तकलीफ़ होती है मुझे, जब देखता/सुनता हूँ - 1) जब शहर के चौराहे पर खड़े हुए यातायात-कर्मी (सिपाही) तथा कानून को धत्ता बताते हुए हेलमेट पहनने को अपनी तौहीन समझने वाले कुछ सभ्य (?) दुपहिया-चालक लाल-बत्ती की भी परवाह किये बिना निर्धारित से कहीं अधिक गति से चलते हुए चौराहा पार कर जाते हैं। (ड्यूटी पर मौजूद सिपाही खिसियाकर मजबूरन इसे अनदेखा कर देता है।) 2) हमारी शान्तिपूर्ण व्यवस्था एवं जीवन की सामान्य गतिशीलता को अस्त-व्यस्त या नष्ट करने के लिए विध्वंसक आक्रमण कर रहे विदेशी आतंककारी या कुछ पथभ्रष्ट देश के ही नागरिकों (यथा नक्सली अथवा सामान्य अपराधी-गैंग) के विरुद्ध प्रतिरक्षा तथा प्रत्याक्रमण के लिए भेजे गये सुरक्षा-बल के साथ मुठभेड़ में परिणाम कुछ इस तरह का मिलता है-  'हमारे सात बहादुर सिपाही/ पुलिस अधिकारी शहीद हुए, लेकिन दो आतंककारियों को मार गिराया गया। मौके से आठ आतंककारी भाग निकतने में सफल रहे, जिनकी तलाश की जा रही है।'  3) सीमा पर पाकिस्तानी जब युद्ध-विराम का उल्लंघन कर गोलीबारी करते हैं और हमारे सैनिकों के जवाबी हमले के बाद समा

छोटी सोच छोड़ो ...

  'अनाज महँगा, दालें महँगी, सब-कुछ महँगा …अच्छे दिन नहीं आये अभी तक, मोदी जी ने गच्चा दे दिया, फरेब किया हमारे साथ'- यह कह-कह कर मोदी जी को कोसने वाले अपनी बुद्धि का प्रयोग क्यों नहीं करते?    भैया जी, अपनी छोटी सोच छोड़ो और और आँखें खोल कर बाहर झांको! देखो, सोना कितना सस्ता हो गया है! कुछ ही महीनों में सात हज़ार रू. तक की कमी आ चुकी है इसके भाव में। जरा-सी होशियारी लगाओ और फिर देखो महँगाई कहाँ अड़ती है! करना केवल यह है कि अभी दाल-सब्जी खाना बिल्कुल बंद कर दो और दस-बीस तोला सोना खरीद लो। अगले आम चुनावों के कुछ पहले जब दाल, सब्जी, प्याज़, वगैरह सस्ते हो जाएँ तब खा लेना मज़े से, कौन रोकता है! 

कौन ज़िम्मेदार है...

    कौन ज़िम्मेदार है रेलवे के ताज़ा इंटरसिटी- हादसे में हुए नुकसान के लिए ? राहगीरों और वाहनों के निरन्तर प्रवाह वाली व्यस्त सड़कों पर भी इसी तरह आवारा पशुओं (गायें, भैंसें, कुत्ते, आदि) का जमावड़ा हर समय लगा रहता है जो गाहे-बगाहे कई हादसों का सबब बनता है। त्रस्त जनता अपने किसी प्रिय को या तो अस्पताल में पाती है या कभी उसे हमेशा के लिए खो देती है। कभी सरकारी मुहिम चलने पर आवारा पकड़े गए पशुओं के मालिक मामूली सी पेनल्टी चुका कर अपने पशुओं को छुड़ा लेते हैं और आगे पुनः बेशर्मी का यह आलम कायम रहता है।  समझ से परे  है कि प्रशासन इस मुद्दे पर गम्भीर क्यों नहीं हो पाता। यदि क़ानून कमज़ोर है तो उसे बदला जाय और ऐसी सख्ती की जाये कि पशुओं के मालिक फिर कभी पशुओं को यूँ खुला छोड़ने की जुर्रत न कर सकें। जब सुसंस्कृत अन्य देशों में कोई भी आवारा पशु सार्वजनिक स्थानों पर कभी दिखाई नहीं देता, तो हमारे देश में ऐसी कौन सी विवशता है कि इस समस्या का हल नहीं निकल पा रहा है। केवल और केवल एक ही कारण प्रतीत होता है इसके पीछे और वह है वोटों की राजनीति के चलते राजनेताओं में इच्छा-शक्ति का अभाव ! मैं इस

यह अमानवीय नज़ारा....

   क्या हो गया है मेरे देश को चलाने वाले कर्णधारों की संवेदनशीलता को ? देश में कैसी भी अनहोनी हो जाय, कैसा भी अनर्थ हो जाय, क्या किसी के भी कानों में जूँ नहीं रेंगेगी ? जनता के धैर्य की परीक्षा कब तक ली जाती रहेगी ?    अपनी किशोरावस्था में मैंने जासूसी उपन्यासों में पढ़ा था कि शहर में दो-तीन अस्वाभाविक मौतें होते ही पुलिस-विभाग में तहलका मच जाता था। पुलिस के आला अधिकारी अपने मातहतों को एक बहुत ही सीमित अवधि का समय देते हुए बरस पड़ते थे कि गृह मंत्री को क्या जवाब दिया जाएगा ! बहुत अच्छा लगता था, जब पुलिस अधिकारी / जासूस बहुत ही काम समय में अपराधी को ढूंढ निकालते थे।    यह सही है कि कहानियों के आदर्श नायक, वास्तविक दुनिया में कभी-कभार ही मिला करते हैं, लेकिन दिन-ब-दिन जिस तरह से नायक के भेष में खलनायकों का इज़ाफ़ा हो रहा है, उसे देखते हुए देश के भयावह भविष्य की कल्पना की जा सकती है। आज के समय में अपराधी, पुलिस और नेताओं का जो दोस्ताना गठजोड़ पनप रहा है और दूसरी ओर जिस तरह से न्याय-व्यवस्था को पंगु बनाने का प्रयास किया जा रहा है, उसके चलते एक आम आदमी को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए अब के

कब तक चलेगा यह सिलसिला...

     27 नवम्बर, 1973 की वह काली रात, जब मुंबई के केईएम अस्पताल में चौबीस वर्षीया नर्स अरुणा शानबाग के साथ अस्पताल के ही वार्ड ब्वॉय सोहनलाल भरथा वाल्मीकि ने दुष्कर्म किया था। दुष्कर्म के बाद उस बहशी दरिंदे ने कुत्ते की चैन से अरुणा का गाला घोंटने का प्रयास भी किया था। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि मस्तिष्क में ऑक्सीजन नहीं पहुँचने से अरुणा कौमा में चली गई। वाल्मीकि पकड़ा गया, लेकिन उसे केवल हमले और लूटपाट का अपराधी ठहराया जाकर मात्र सात वर्ष की सजा मिली और सजा काटकर वह जेल से मुक्त हो गया। उसके दुष्कर्म का अपराध हमारे योग्य (?) पुलिस अधिकारियों की जाँच-प्रणाली और आदर्श क़ानून की पेचीदगियों में उलझ कर खो गया। स्त्री होने का अपराध झेलती मासूम अरुणा ने भी 42 वर्षों का मौत से बदतर जीवन बिताकर आखिर में मुक्ति पाई और दि.18 मई, 2015 को उसने अपनी अन्तिम श्वांस ली।     इतने वर्षों तक सुध नहीं लेने वाले परिजनों को अरुणा का शव नहीं सौंपा गया और उनकी मौजूदगी में अस्पताल के स्टाफ ने अरुणा का अन्तिम संस्कार किया।    अरुणा चली गई...अरुणा से जुड़ी यादें भी ऐसे ही अन्य कई हादसों की तरह समय की परतों में ध

प्यार क्या है …?

      बायोलॉजिकली ह्रदय में चार प्रकोष्ठ होते हैं, लेकिन इस बात पर पूरा यकीन नहीं मुझे! मेरे हिसाब से ह्रदय में हजारों प्रकोष्ठ होते हैं तभी तो हम दुनिया के सभी रिश्तों से प्यार कर पाते हैं। हमें कोई भी नया रिश्ता जोड़ने के लिए ह्रदय का कोई कोना खाली नहीं करना पड़ता। वहाँ जगह बनती ही चली जाती है हर नए रिश्ते के लिए।     यह भी सही है (मुझे ऐसा लगता है) कि यदि हमारा प्यार सभी रिश्तों के लिए सच्चा है तो यह कह पाना मुश्किल है कि हम किसे अधिक प्यार करते हैं और किसे कम। हम या तो किसी से प्यार करते हैं या नहीं करते हैं- यही सत्य है। प्यार ही है जो हमें रिश्तों में बांधता है चाहे वह खून का रिश्ता हो चाहे मित्रता का। कभी यह रूमानी होता है तो कभी रूहानी। क्या खूब कहा है किसी ने-'प्यार किया नहीं जाता, प्यार हो जाता है।' और, एक शायर के अनुसार- 'प्यार बेचैनी है, मजबूरी है दिल की, इसमें किसी का किसी पर कोई एहसान नहीं।'     सम्बन्धों का एक नाज़ुक धागा होता है प्यार, चाहे वह माता-पिता और सन्तान के बीच हो, भाई और बहिन के बीच हो, पति और पत्नी के बीच हो या मित्रों के मध्य

बहुत हो गया...

   गहन अध्ययन और शोध के उपरान्त यह तथ्य उजागर हुआ कि भक्तों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-    1) सामान्य भक्त                   2) अन्ध भक्त     तो मित्रों, सन्दर्भ है अभी हाल ही दिल्ली में हुए चुनावों का। चुनाव के परिणामों के बाद सामान्य भक्तों ने वस्तु-स्थिति को समझा, गुणावगुणों के आधार पर अपने भक्ति-भाव की समीक्षा की और अन्ततः सत्य को स्वीकार कर केजरीवाल की विजय का स्वागत भी किया। सत्य की राह पर आने के लिए उन्हें हार्दिक बधाई!    अन्ध भक्त अखाड़े में उतरे उस दम्भी पहलवान के समान हैं जो चित्त होने के बाद भी अपनी टांग ऊँची कर कहे कि वह हारा नहीं है। यह लोग 'खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे' के ही अंदाज़ में अनर्गल प्रलाप कर रहे हैं मानो सच्चाई को ही बदल देंगे। इनको कोई समझाए कि वह उनके नेताओं के झूठ, चापलूसी व अकर्मण्यता से उपजी विफलता को समझें और स्वीकारें।    जितना झूठ और विष केजरीवाल के विरुद्ध उंडेला गया, जितनी भ्रान्तियाँ उनके विरुद्ध फैलाई गईं, उसके कारण जनता में उपजा आक्रोश केजरीवाल को प्राप्त होने वाले वोटों में तब्दील होता चला गया। इसीलिए हालत यह हो गई है कि

राजनीति ने एक खूबसूरत करवट ली है...

 दिल्ली की प्रबुद्ध जनता ने 'मफ़लरमैन' को अपना नेता चुन लिया है- एक बुद्धिमतापूर्ण, दूरदर्शिता से परिपूर्ण चयन। हार्दिक बधाई ! यह कहते हुए मैं गर्व अनुभव कर रहा हूँ कि मेरा सम्पूर्ण विश्वास जिसके साथ  खड़ा था, वह नायक जीत गया। मेरे मित्र कह रहे हैं- 'करिश्मा हो गया', लेकिन मैं इससे सहमत नहीं क्योंकि हुआ वही है जो होना था, होना चाहिए था। पूर्व में अनुशासित कही जाने वाली पार्टी के एक असभ्य नेता ने इस नायक के लिए 'हरामखोर' तथा शीर्ष पर विराजमान नेता ने 'बाज़ारू' शब्दों का जब प्रयोग किया था, उस पार्टी की हार तभी तय हो गई थी। किरण बेदी जो कभी केजरीवाल की हमराह थीं, वह भी केजरीवाल को 'भगोड़ा' कहने से नहीं चूकी थीं। उन्होंने यह भी कहा था कि केजरीवाल का स्तर उनसे बहस करने लायक नहीं हैं। खैर, बेदी तो मोहरा बनाई गई थीं, यह हार तो बीजेपी की समग्र हार है। अहंकार कभी विजयी नहीं हो सकता। केजरीवाल को भगौड़ा, नौटंकी, खुजलीवाल, जैसे अभद्र सम्बोधन देने वाले कटुभाषी भी अवाक् हैं, उनकी वाणी स्पंदन खो चुकी है।     देश भर से बुलाये गए अपने नेताओं की सम्पूर्ण शक्ति लगा

जनता को तलाशना होगा ...

    'जनता के द्वारा, जनता का, जनता के लिए' -  प्रजातन्त्रीय शासन की यह परिभाषा मानी जाती है, लेकिन वर्तमान में यह परिभाषा अपना अर्थ खो चुकी है। 'जनता के द्वारा' चुन कर निर्मित हुआ शासन-तंत्र अब 'जनता का' नहीं होकर, कुछ लोगों का शक्ति-केंद्र बन जाता है और 'जनता के लिए' नहीं होता, अपितु एक वर्ग-विशेष को साधन-संपन्न बनाने के लिए काम करता है। दुर्भाग्य से जनता इसे अपनी नियति मान लेती है और पांच वर्षों तक प्रतीक्षा करती है अगले चुनाव की, पांच वर्षों तक दुबारा ठगे जाने के लिए। यह सिलसिला अब तक यूँ ही चलता आया है। राजनैतिक दल एक ही विषैले साँप के बदले हुए रूप हैं जो अपनी केंचुली बदल कर क्रम से आते और जाते हैं।    दीन दयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद शुक्ल की नैतिकता एवं अटल बिहारी बाजपेयी की ईमानदारी और राजनैतिक उदारता आज के वरिष्ठ बीजेपी के नेताओं में ढूंढे से भी नहीं मिलती। इसी प्रकार लाल बहादुर शास्त्री की चारित्रिक दृढ़ता व सरलता तथा प्रियदर्शिनी इंदिरा गाँधी के नेतृत्व की ओजस्विता को आज के शीर्ष कॉन्ग्रेसी नेताओं में खोजना समय को जाया करना मात्र है। इंदिर

सत्य की जीत होती है...

  देश से 12000 km दूर Hoffman Estates (A suburb of Chicago) में बेटे के साथ रह रहे हैं हम इन दिनों। एक निहायत ही खुशनुमा समय गुज़र रहा है यहाँ, पर स्वदेश की याद तो आती ही है। वहां तो किसी न किसी प्रकार की व्यस्तता रहती थी लेकिन यहाँ करने को कुछ भी नहीं है सो समय ही समय है अतः मूवी देखने के लिए भी खूब समय है।  सुना था, मूवी 'भूतनाथ रिटर्न्स' में चुनावी राजनीति और इसके परिष्करण की संभावनाओं को बहुत बढ़िया तरीके से उजागर किया गया है। दिल्ली में अभी माहौल भी यही चल रहा है अतः सोचा, मौका भी है और दस्तूर भी, यही मूवी क्यों न देख ली जाये! देखा इस मूवी को तो दिल्ली के चुनावी माहौल से इसमें बहुत साम्यता नज़र आई। एक आदर्श चरित्र को निभाया है इसमें अमिताभ बच्चन जी (भूतनाथ) ने एक भूत की भूमिका में रहते हुए। भूत का अस्तित्व होता है या नहीं- यह विवादास्पद बिंदु है, लेकिन छल-कपट एवं दुष्टता से परिपूर्ण जीवित व्यक्ति से तो एक सुसंस्कारित मृतात्मा (भूत) बेहतर ही कहलाएगी न! मूवी में विपक्ष के भ्रष्टाचारी नेता द्वारा भगोड़ा करार दिया गया भूतनाथ अंत में चुनाव में विजयी होता है....अर्थात सत्य की ज

दिमागी दिवालियापन …

       पिछले पांच-छः दिनो से यहाँ (शिकागो में) मौसम जबर्दस्त सर्द है, तापक्रम -9 से -25 डिग्री सेल्सियस के मध्य झूल रहा है और स्नोफॉल के कारण धरती, मकान, वाहन, पेड़-पौधे सभी बर्फ़ से आच्छादित हैं। बर्फ़ किसी-किसी के दिमाग को जमा दे यह भी सम्भव है और ऐसा ही कुछ हुआ भी है। लेकिन...यहाँ की बर्फ का दुष्प्रभाव दूर हमारे भारत के उत्तर प्रदेश में देखने में आया है। बसपा से निष्कासित नेता (?) हाजी याकूब कुरैशी के साथ यह हादसा हुआ है, बर्फ ने उनके दिमाग को जमा दिया है। बर्फ शायद जब दिमाग को जमाती है तो समस्त उर्वरता को तो समाप्त कर देती है, लेकिन आतंक के कीड़े को जन्म दे देती है। आतंक का कीड़ा याकूब कुरैशी के दिमाग से निकल कर जुबान के रास्ते बाहर निकला और उन्होंने पेरिस में आतंकी घटना को अंजाम देने वाले जानवरों को 51 करोड़ रूपये ईनाम की घोषणा कर डाली।     याकूब कुरैशी अपने नाम के साथ हाजी लगाते है लेकिन बिना हज किये वह हाजी कैसे हो गए ! हज करने का उद्देश्य तो ख़ुद को पाक-साफ करना होता है और सम्भवतः वह हज के लिए जाते वक्त बीच रास्ते से वापस लौटे हैं।     पेरिस के फ्रेंच सेटायरीकल न्यूज़ पेपर के कार्

आओ, कुछ अच्छा करें …

    नव वर्ष में सब-कुछ अच्छा-अच्छा हो, इस सुखद कामना के साथ ही एक पुराना दर्द जहन में उभर आया....गोधरा-काण्ड !     गोधरा हत्या-काण्ड का दर्द कभी भुलाया नहीं जा सकता। हमारे भाइयों ने जिस तरह की पीड़ा भोग कर अपने प्राण गंवाए होंगे, उस पीड़ा के जिम्मेदार बहशी राक्षसों को कैसे कोई क्षमा कर सकता है ? यह भी न्यायसंगत होता कि ऐसे पिशाचों को पहचान कर उन्हें भी ऐसी ही मौत दी जाती, भले ही सभ्य समाज का कानून इसकी इज़ाज़त नहीं देता। लेकिन उनके समाज के लोगों में से जिनको ऐसी ही यातनापूर्ण मौत बदले की परिणिति में मिली, उनमें से भी तो कई लोग निर्दोष रहे होंगे। क्या ऐसा बदला जिसमें एक के अपराध की सज़ा किसी दूसरे निर्दोष व्यक्ति को मिले, किसी भी दृष्टिकोण से न्यायोचित कहा जा सकता है ? अपराधी का कोई धर्म नहीं होता और किसी भी धर्म में सभी अपराधी नहीं होते। हमें प्रयास करना होगा कि नफरत के इन अंगारों को हमेशा-हमेशा के लिए दफ़न कर दिया जाये और हम मिल-जुल कर प्यार के साथ रहना सीखें। हमें और मुस्लिम समाज को इस देश में जब साथ-साथ ही रहना है तो वैमनस्य की आग को बनाये रखना क्या दोनों ही सम्प्रदायों के लिए आत्मघात