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सज़ा-ए-मौत ...



 प्रबुद्ध मित्रों,
 निम्नलिखित आलेख यद्यपि कुछ विस्तार ले गया है फिर भी चाहूंगा कि आप इसे पढ़ें और मेरे विचारों से सहमति / असहमति से अवगत करावें।

   जघन्य अपराधी को भी फांसी न दी जाय और फांसी के दंड का प्रावधान ही समाप्त कर दिया जाये, इस मत के समर्थकों को गहन चिकित्सा सहायता की आवश्यकता है। यदि चिकित्सा से भी उपचार न हो पाये तो ऐसे रोगियों में से कुछ के दिमाग को सर्जरी के द्वारा खोला जाकर गहन अध्ययन किया जाना चाहिए कि कौन से कीटाणुओं ने इनकी सोच को विवेकहीन बना दिया है।
  
 मुझे बहुत उद्वेलित कर दिया है उन दिग्भ्रमित लोगों के comments ने, जो आतंककारी याकूब की फांसी के मसले में मूलतः अपनी-अपनी  रोटी सेंकने के मकसद से किये गये हैं। आश्चर्य तो इस बात का है कि ऐसे  comments उन लोगों ने भी किये हैं जो कानून की बड़ी-बड़ी पोथियाँ पढ़ने के बाद अरसे तक न्यायालयों को अपने तर्कों से विचारने को विवश करने की क्षमता रखते हैं। अपराधियों को बचाने के लिए कानून को तोड़ने-मरोड़ने की रणनीति का उपयोग करना और झूठ से आच्छादित व्यूह-रचना कर सत्य को असत्य और असत्य को सत्य में तब्दील करना इनके पेशे की मजबूरी भले ही हो, लेकिन उच्चतम न्यायलय के निर्णय के औचित्य पर उंगली उठाने से भी यह लोग नहीं चूक रहे हैं। क्या यह सर्वोच्च न्यायलय में लोगों के विश्वास और आस्था को डिगाने का प्रयास नहीं है? ऐसे लोगों को चाहिए कि वह शब्दों के तीर मीडिया में चलाने के बजाय अपनी प्रतिभा न्यायलय में दिखाने तक ही स्वयं को सीमित रखें। 
  
  वैसे भी हमारी न्याय-प्रणाली इतनी धीमी है कि न्याय की तह तक पहुँचने की आड़ में वर्षों तक मुकद्दमों को लटकाये रखा जाता है। कम-से-कम देशद्रोह या आतंक के मामलों में तो निर्णय में तत्परता बरतनी ही चाहिए। फरवरी, 94 में गिरफ्तार किये गए जैश-ए-मोहम्मद (आतंककारी संगठन) के संस्थापक अजहर मसूद का मुकद्दमा जल्दी ही निर्णीत कर उसे फंदे से लटका दिया गया होता तो दिसंबर, 1999 में विमान-अपहरण के विरुद्ध उसे रिहा करने की मजबूरी नहीं देखनी पड़ती। आज भी वह पाकिस्तान में रहते हुए समस्त विश्व के लिए आतंक का सबब बना हुआ है। 

    मेरा तो मानना यह भी है कि छोटे अपराधों के मामले में भी यदि अपराधी जेल से छूटने के बाद दुबारा अपराध करता है तो उसे आजीवन जेल की सज़ा का प्रावधान होना चाहिए, ताकि समाज में शांति रह सके। 
   और.… हत्यारों, बलात्कारियों और आतंककारियों को सज़ा-ए-मौत दी ही जानी चाहिए। 

  वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण कहते हैं- 'फांसी की सज़ा क्रूरतम इसलिए भी है क्योंकि व्यक्ति से कहा जाता है कि अब तुम मरने वाले हो और वह अपराधी तिल-तिल मरता रहता है।'
   प्रशांत भूषण यह बताएं कि अपराधी ने जिस को मारा है उसके परिजन जो तिल-तिल मरते रहते हैं, उनके लिए उन जैसे लोगों की मानवीय सोच कहाँ चली जाती है। वह यह भी कहते हैं कि फांसी की सजा से अपराध कम नहीं हो जाते। ज्ञात हो कि अरब देशों में जहाँ भी कठोरतम सज़ा (अंग के बदले अंग और जान के बदले जान) के प्रावधान है, वहां अपराध नहीं के बराबर हैं। 

मैं वरिष्ठ अधिवक्ता उज्ज्वल निकम के कठोरतम दंड के विचारों से पूरी तरह सहमत हूँ कि साजिश रचने वालों पर कैसा रहम! जघन्य अपराध करके उसे स्वीकार कर लेने से अपराध की गुरुता कम नहीं हो जाती। 
  
 रक्षा रणनीति विशेषज्ञ मारूफ रज़ा कहते हैं- 'याकूब मेमन को फांसी दी गई पर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। इससे भारत की छवि बनती है कि भारत लड़खड़ाता हुआ चल रहा है और यूँ ही चलता रहेगा.... कल भी हमारी छवि soft state की थी और आज भी वही है। हमारा पूरा राजनीतिक तंत्र इसे भीतर से soft बना देता है।.… जब संसद में गृहमंत्री पाकिस्तानी आतंककारियों के खिलाफ सबूत देता है तो उसे बोलने नहीं दिया जाता।'
   
 आतंक विश्व के कई देशों के चैनोअमन को नष्ट कर रहा है, ऐसे में ज़रुरत इस बात की है कि सभी आतंकग्रस्त देश मिलकर एक ऐसा आक्रामक सक्षम दल तैयार करें जो पाकिस्तान, ईरान, आदि देशों में छिपे बैठे आतंकियों को उनके घर में ही समूल नष्ट कर सके। 
  

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