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बिछड़ा प्यार (कहानी)

कानपुर शहर के एक मोहल्ले में रहने वाले रिया और अमन बचपन के दोस्त थे, जो एक ही पड़ोस में पले-बढ़े थे। दोनों की ज़िन्दगी हँसते-खेलते अच्छे से गुज़र रही थी। कभी-कभी बचपन की उनकी आपसी चुहल कुछ इस सीमा तक बढ़ जाती थी कि दोनों आपस में झगड़ भी पड़ते थे। दोनों को फोटोग्राफी का शौक था और यदा-कदा जगह-जगह के कई तरह के फोटो लिया करते थे। कभी-कभार ऐसा भी होता था कि ‘मेरा फोटो तुझसे अच्छा’, कह कर एक-दूसरे के फोटो फाड़ डालने की नौबत भी आ जाती थी। बचपन का यह लड़ना-झगड़ना कब उनकी एक-दूसरे के प्रति आसक्ति में बदल गया, इसका उन्हें पता ही नहीं चला। उन्होंने अपने सपनों से लेकर अपने सभी रहस्यों तक को एक-दूसरे के साथ साझा किया था। वे अविभाज्य थे, एक शरीर और दो प्राण बन चुके थे। लेकिन अचानक उनकी किस्मत ने पलटा खाया और अमन का परिवार भीषण आर्थिक विषमता की जकड़न में आ गया। एक दिन अमन को अपने परिवार के साथ दूसरे शहर में जाना पड़ा। उन्होंने सम्पर्क में रहने का वादा किया और कुछ समय तक उन्होंने सम्पर्क बनाए भी रखा। उन्होंने एक-दूसरे को पत्र लिखकर अपने नये अनुभव और भावनाएँ साझा कीं। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, पत्रों का

खिदमत (कहानी)

(1)    कुछ असामाजिक गतिविधियों के चलते सांप्रदायिक दंगा हो जाने के कारण शहर में दो दिन तक कर्फ्यू रहने के बाद पिछले तीन दिनों से धारा 144 लगी हुई थी। प्रशासन की तरफ से किसी भी खुराफ़ात या दंगे से निपटने के लिए माकूल व्यवस्था की गई थी। शहर में हर घंटे-दो घंटे में सायरन बजाती पुलिस और प्रशासन की जीपें व कारें सड़क पर दौड़ रही थीं।  रात के नौ बज रहे थे। मनसुख शर्मा की तबीयत आज कुछ ठीक नहीं थी। बिस्तर पर अधलेटे पड़े वह अपनी पत्नी मनोरमा के साथ टीवी पर आज की ख़बरें देख रहा था। बेटा उदित और बिटिया अलका दूसरे कमरे में बैठे कैरम खेल रहे थे। किसी के द्वारा ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाया जाने पर मनसुख देखने के लिए बरामदे से हो कर दरवाज़े की तरफ जा रहां था कि मनोरमा ने टोका- "देखो, सावधान रहना। रात का समय है, कोई गुंडा-बदमाश ना हो।" मनसुख प्रत्युत्तर में कुछ भी नहीं बोला। उसने बाहर की लाइट ऑन की और दरवाज़े के पास कोने में रखी छोटी लाठी एक हाथ में थाम कर दरवाज़ा थोड़ा सा खोला। बाहर एक अधेड़ उम्र का आदमी खड़ा था।  मनसुख ने पूछा- "बोलो भाई, क्या चाहिए?" "भाई साहब, मैं तकलीफ में हूँ, मुझे भीतर आ

राधे-राधे (लघुकथा)

  वृद्ध दामोदर जी पिछले कई दिनों से एक जटिल रोग से ग्रस्त थे। लम्बी चिकित्सा के बाद थक-हार कर डॉक्टर्स ने एक दिन कह दिया कि अब उनका अधिक समय नहीं बचा है, तो घर वाले उन्हें घर ले आये थे। बड़ा बेटा भी नौकरी से छुट्टी ले कर कल घर आ गया था। वह पूरी तरह से होश में तो थे, किन्तु हालत कुछ ज़्यादा ख़राब हो रही थी। बेटे भगवती लाल ने आज सुबह फोन कर के निकट के कुछ सम्बन्धियों को बुला लिया था। जानकारी मिलने पर पड़ोस से भी तीन-चार लोग आ गए थे।  आगन्तुक मेहमानों में से कुछ तो दामोदर जी के कमरे में रखी एक अन्य चारपाई पर और कुछ कुर्सियों पर बैठे थे।  मोहल्ले में कई लोग ऐसे भी थे, जो सूचना मिलने के बावज़ूद नहीं आये थे। सूचना देने वाले सज्जन को एक महाशय ने तो खुल कर कह भी दिया- “भाई साहब, भगवान उनको जल्दी ठीक करें, पर हम तो उनके वहाँ नहीं जाने वाले।”  “अरे भैया जी, आप ऐसा क्यों कह रहे हैं? सुना है, वह बेचारे एक-दो दिन के ही मेहमान हैं।” “आप को तो जुम्मे-जुम्मे चार दिन हुए है इस बस्ती में आये। यह दामोदर जी बच्चों-बूढ़ों सभी से चिड़चिड़ाते रहते थे। अब किसका मन करेगा ऐसे आदमी से मिलने जाने का?” “आखिर वज़ह क्या थी उ

अनमोल उपहार

आज तक समझ नहीं सका हूँ कि मात्र एक साल पहले जो प्राणी इस दुनिया में आया है, कभी रो कर, कभी चिल्ला कर, कभी हाथ-पैर पटक कर कैसे अपनी बात वह हम सब से मनवा लेता है? कैसे मान लेता है कि जिस घर में वह अवतरित हुआ है, उस पर उसका असीमित अधिकार है? अभी हाल ही उसका प्रथम जन्म-दिवस हम सब ने मनाया, तो यही प्रश्न मेरे मस्तिष्क में उभरे हैं। मैं बात कर रहा हूँ अपने एक वर्षीय दौहित्र (नाती) चि. अथर्व की। जब उसकी इच्छा होती है, मेरी बाँहों में आने को लपक पड़ता है और जब निकलने की इच्छा होती है तो लाख थामो उसे, दोनों हाथ ऊँचे कर इस तरह लटक जाता है कि सम्हालना मुश्किल पड़ जाता है। जब भी उसका मूड होता है, अपनी मम्मी या पापा, जिस किसी के भी पास वह हो, हाथ आगे बढ़ा कर मेरे पास आ जाता है और जब उसकी इच्छा नहीं होती, तो कितनी भी चिरौरी करूँ उसकी, चेहरा और हाथ दूसरी तरफ घुमा देता है... और मैं हूँ कि उसके द्वारा इस तरह बारम्बार की गई इंसल्ट को हर बार भूल जाता हूँ और उसे अपने सीने से लगाने को आतुर हो उठता हूँ।  जो भी शब्द वह बोलता है, मैंने विभिन्न शब्दकोशों में ढूंढने की कोशिश की, मगर निदान नहीं पा सका हूँ। बस, समझ

'हिन्दी दिवस' (लघु कविता)

हिन्दी भाषा की जो आन-बान है,  किसी और की कब हो सकती है!   मेरे देश को परिभाषित करती,   हिन्दी तो स्वयं मां सरस्वती है। *****

फेल होने की मिठाई (लघुकथा)

बच्चों की अंकतालिका देने के लिए सभी अभिभावकों को स्कूल में बुलाया गया था। अतः शिवचरण भी अपने बेटे राजीव के स्कूल पहुँचे। आज स्कूल में छोटी कक्षाओं के बच्चों का परीक्षा-परिणाम घोषित किया जाने वाला था।  शिवचरण अपने बच्चे का परीक्षा-परिणाम पहले से ही जानते थे और इसीलिए उदास निगाह लिये प्रधानाध्यापक के कक्ष में पहुँचे। प्रधानाध्यापक ने उनका स्वागत किया और वहां पर बैठे अन्य  सभी अभिभावकों के साथ उन्हें भी स्कूल के मैदान में पहुँचने के लिए कहा गया।  एक माह पूर्व राजीव के सिर में बहुत तेज दर्द हुआ था और एक प्रतिष्ठित डॉक्टर के क्लिनिक में जाँच कराने पर पता चला था कि बच्चे के मस्तिष्क में कैंसर है, जो तीसरी स्टेज में है। शिवचरण एक प्राइवेट स्कूल में लिपिक थे जहाँ से प्राप्त हो रहे वेतन से बामुश्किल परिवार का गुज़ारा होता था। राजीव का कोई महँगा इलाज करना उनके बस की बात नहीं थी, सो एक वैद्य की सलाह से वह राजीव को काली तुलसी का रस और जवारे का रस पिला कर जैसे-तैसे राजीव का इलाज करने का टोटका कर रहे थे। साथ ही वह और उनकी पत्नी ईश्वर से राजीव के जीवन के लिए दिन-रात प्रार्थना करते थे। राजीव को उन्होंन

एक नन्ही कविता

चलते-चलते बस यूँ ही 😊...      कल अचानक तपती दुपहर में, ठंडी-भीनी    फुहार   आ  गई, बारिश नहीं, यह तुम आई थी,  जलते दिल  में  बहार आ गई।   ***

'गीता-ज्ञान' (लघुकथा)

                                                तीन दिन पहले की ही बात है, जब मैंने गुरुवार को सुबह-सुबह चाय पीते वक्त अख़बार में चन्द्र  प्रकाश के बेटे अवधेश का चयन राजस्थान की रणजी टीम में हो जाने की खबर पढ़ी थी। मुझे यह तो पता था कि अवधेश क्रिकेट का बहुत अच्छा खिलाड़ी है, किन्तु प्रतिस्पर्धा व वर्तमान सिफारिशी दौर में बिना लाग-लपेट वाले किसी बन्दे का चयन हो जाना इतना सहज भी नहीं होता। चंद्र प्रकाश एक निहायत सज्जन किस्म का व्यक्ति है और उसका बेटा अवधेश भी खेलने के अलावा क्रिकेट-राजनीति से कोई वास्ता नहीं रखता था, अत; उसका चयन मेरे लिए आश्चर्य का कारण बन रहा था। बहरहाल उसका चयन हुआ है, यह तो सच था ही, सो मैंने चाय के बाद फोन कर के बाप-बेटा दोनों को बधाई दे दी थी।    फोन पर तो उन्हें बधाई दे दी थी, किन्तु मैं चन्दर (चंद्र प्रकाश को मैं 'चन्दर' कहता हूँ😊) के चेहरे पर ख़ुशी की रेखाएँ देखने को आतुर था। ख़ुशी में जब वह मुस्कराता है, तो बहुत अच्छा लगता है। सोचा- 'आज चन्दर के घर जा कर एक बार और बधाई दे आता हूँ, कई दिनों से मिलना नहीं हुआ है तो मिलना भी हो जाएगा और गप-शप भी हो जाएगी।

मन का कोरोना (कहानी)

                                                 धर्मिष्ठा कल से बुरी तरह परेशान थी। निखिल पूरे एक साल बाद दो दिन पहले ही जर्मनी से लौटा था, किन्तु आया तभी से घर में किसी से मेल-जोल ही नहीं रख रहा था। उसका कहना था कि कोरोना-संक्रमण की शंका के कारण वह कुछ दिनों के लिए सब लोगों से अलग अपने कमरे में रह रहा है।  'मुझसे दूरी रखने के लिए ही वह मम्मी जी, पापा जी से भी दूरी रखने का नाटक कर रहा है। एयरपोर्ट पर उसकी जांच हो चुकी है फिर भी वह ऐसा क्यों कर रहा है, मैं समझ चुकी हूँ। उसकी यह बेरुखी मैं बर्दाश्त नहीं कर सकती। देखती हूँ, कब तक वह मुझसे दूर रहता है।', धर्मिष्ठा मन ही मन उलझ रही थी।  आज शाम जब उससे नहीं रहा गया तो उसने निखिल के कमरे के पास जाकर उसे आवाज़ दी। निखिल ने दरवाजा तो खोला,किन्तु नेट वाला दरवाजा नहीं खोला और दूर से ही बोला- "बोलो धर्मिष्ठा, क्या चाहिए तुम्हें?"   "क्यों नाटक कर रहे हो तुम कोरोना का बहाना बना कर और फिर कब तक कर सकोगे यह? तुम्हें मैं पसन्द नहीं हूँ, समझ सकती हूँ। मुझसे दूर रहना है तुम्हें, लेकिन घर के अन्य लोगों से अलग इस कमरे में क्यों

'सागर और सरिता'

स्नेही पाठकों, प्रस्तुत है मेरे अध्ययन-काल की एक और रचना--- सागर-सरिता संवाद सागर-  कौन हो तुम, आई कहाँ से? ह्रदय-पटल पर छाई हो।  कहो, कौन अपराध हुआ,  इस तपसी को भाई हो।।   गति में थिरकन, मादक यौवन, प्रणय की प्रथम अंगड़ाई हो। मेरे एकाकी जीवन में, तुम ही तो मुस्काई हो।।  तुम छलना हो, नारी हो, प्रश्वासों में है स्पंदन।  कहो, चाह क्या मुझसे भद्रे, दे सकता क्या मैं अकिंचन? सरिता- तुम्हारे पवन चरणों की रज, मुझे यथेष्ट है प्रियतम।  मुझको केवल प्रेम चाहिए, तन की प्यास नहीं प्रियतम।।  तुम ही से जीवन है मेरा, होता संशय क्यों प्रणेश? प्रकृति का नियम है यह तो, हमारा मिलान औ’ हृदयेश।।  *******  

डायरी के पन्नों से ... "एक रात..."

जो किशोरवय युवा अभी यौवनावस्था से गुज़र रहे हैं वह इसी काल को जीते हुए और जो इस अवस्था से आगे निकल चुके हैं वह तथा जो बहुत आगे निकल चुके हैं वह भी, कुछ क्षणों के लिए उस काल को जीने का प्रयास करें जिस काल को मैंने इस प्रस्तुत की जा रही कविता में जीया था।…     कक्षा-प्रतिनिधि का चुनाव होने वाला था। रीजनल कॉलेज, अजमेर में प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया था मैंने उन दिनों। कक्षा के सहपाठी लड़कों से तो मित्रता (अच्छी पहचान ) लगभग हो चुकी थी, लेकिन लड़कियों से उतना घुलना-मिलना नहीं हो पाया था तब तक। अब चुनाव जीतने के लिए उनके वोट भी तो चाहिए थे, अतः उनकी नज़रों में आने के लिए थोड़ी तुकबंदी कर डाली। दोस्तों के ठहाकों के बीच एक खाली पीरियड में मैंने कक्षा में यह कविता सुना दी। किरण नाम की दो लड़कियों सहित कुल 12 लड़कियां थीं कक्षा में और उन सभी का नाम आप देखेंगे मेरी इस तुकबंदी वाली कविता में (अंडरलाइन वाले शब्द )। ... और मैं चुनाव जीत गया था।