सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

राधे-राधे (लघुकथा)

 


वृद्ध दामोदर जी पिछले कई दिनों से एक जटिल रोग से ग्रस्त थे। लम्बी चिकित्सा के बाद थक-हार कर डॉक्टर्स ने एक दिन कह दिया कि अब उनका अधिक समय नहीं बचा है, तो घर वाले उन्हें घर ले आये थे। बड़ा बेटा भी नौकरी से छुट्टी ले कर कल घर आ गया था। वह पूरी तरह से होश में तो थे, किन्तु हालत कुछ ज़्यादा ख़राब हो रही थी। बेटे भगवती लाल ने आज सुबह फोन कर के निकट के कुछ सम्बन्धियों को बुला लिया था। जानकारी मिलने पर पड़ोस से भी तीन-चार लोग आ गए थे। 

आगन्तुक मेहमानों में से कुछ तो दामोदर जी के कमरे में रखी एक अन्य चारपाई पर और कुछ कुर्सियों पर बैठे थे। 

मोहल्ले में कई लोग ऐसे भी थे, जो सूचना मिलने के बावज़ूद नहीं आये थे। सूचना देने वाले सज्जन को एक महाशय ने तो खुल कर कह भी दिया- “भाई साहब, भगवान उनको जल्दी ठीक करें, पर हम तो उनके वहाँ नहीं जाने वाले।” 

“अरे भैया जी, आप ऐसा क्यों कह रहे हैं? सुना है, वह बेचारे एक-दो दिन के ही मेहमान हैं।”

“आप को तो जुम्मे-जुम्मे चार दिन हुए है इस बस्ती में आये। यह दामोदर जी बच्चों-बूढ़ों सभी से चिड़चिड़ाते रहते थे। अब किसका मन करेगा ऐसे आदमी से मिलने जाने का?”

“आखिर वज़ह क्या थी उनके चिढ़ने की?” -उन्होंने उत्सुकता से पूछा। 

“भाई साहब, दामोदर जी के सामने कोई ‘राधे-राधे’ बोल देता तो वह गुस्सा हो जाते थे। कहते थे, ‘जय श्री कृष्ण’ बोलो। बच्चे भी अगर ‘राधे-राधे’ बोलते तो उन्हें मारने के लिए अपनी छड़ी तक उठा लेते थे। उनकी यह आदत देख कर बच्चे बार-बार ‘राधे-राधे’ कह कर उन्हें चिढ़ाते और भाग जाते थे। बाद में बड़ों ने भी ‘राधे-राधे’ कह कर उन्हें छेड़ना शुरू कर दिया था। पिछले कुछ वर्षों से उनकी यही बानगी रही है। इसी कारण हम उन्हें पसंद नहीं करते। पता नहीं, माता राधा रानी के नाम से क्यों चिढ़ते हैं वह?”

“क्या वह बच्चों को छड़ी से मारते भी थे?”

“नहीं, मारा तो कभी नहीं, डराते ज़रूर थे।”

 

तो, जिनको आना था, आ गए थे और जो नहीं आना चाहते थे, नहीं आये। अचानक दामोदर जी ने पीने के लिए पानी माँगा। दो घूँट हलक से उतार कर उन्होंने अपने चारों तरफ ध्यान से देखा और बोले- “शिबु जी, मांगी लाल जी, वगैरा कोई बी नज़र नईं आय रहे। म्हारे मरते बख़त तो आ जाते कम स कम। अरे भागवा, तू जा नी। मोल्ले में जो बी मिले, म्हारी तरफ से दरखास्त कर देना। बोलना, गुस्सा थूक के आखरी बार आ जावें। सबी से मिलन चाहूँ हूँ।” बेटे भगवती लाल से कहते-कहते उनकी आँखों से दो बूँद आँसू लुढ़क पड़े। 

भगवती वापस आया तो उसके साथ मोहल्ले के दस-बारह लोग और थे। 

दामोदर जी ने एक बार फीकी मुस्कराहट के साथ सब की ओर देखा- “अरे, कोई तो राधे-राधे बोलो भाई। सब को साँप सूंघ गयो है के?”

उपस्थित लोग आश्चर्य से कभी उनको तो कभी एक-दूसरे की ओर देखने लगे। अब तो सच में ही सभी को जैसे साँप सूंघ गया था। एक आदमी ने साहस कर के कहा- “राधे-राधे”

“लेकिन दामोदर जी, आपको तो इस नाम से ही परहेज़ था। आज क्या हो गया आपको?” -एक अन्य व्यक्ति ने पूछा। 

“म्हने म्हारी माँ के नाम से परहेज़ होगो? अरे वो तो म्हारे कान्हा की प्राणाधार है। ऊँको नाम तो अमृत के जैसो पबित्त्तर अर और जीवण देवण वारो है। मैं तो उणके नाम से चिड़ने का ढोंग करतो थो के जितणा मैं उजर करोंगो, उतणा ई सब लोग बार-बार राधा माँ का नाम लेवंगे। सुण-सुण के म्हारा काड़जा (कलेजा) पे आणंद (आनंद) की बरखा होती थी। अबे आप सबी म्हने माफ़ करि दो और परेम से बोलो- राधे-राधे!”

उपस्थित सभी लोगों की आँखें भर आईं, गद्गद स्वर में बोले- “राधे-राधे!”

“राधे-राधे!” -दामोदर जी के कण्ठ से भी रसभीनी, किन्तु डूबती-सी आवाज़ निकली और उनका सिर एक ओर लुढ़क गया। उनके मुख पर दिव्य शांति थी। 


*****






टिप्पणियाँ

  1. बेहतरीन लघुकथा आदरणीय एक-एक शब्द मर्म को स्पर्श कर रहा है।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

"ऐसा क्यों" (लघुकथा)

                                   “Mother’s day” के नाम से मनाये जा रहे इस पुनीत पर्व पर मेरी यह अति-लघु लघुकथा समर्पित है समस्त माताओं को और विशेष रूप से उन बालिकाओं को जो क्रूर हैवानों की हवस का शिकार हो कर कभी माँ नहीं बन पाईं, असमय ही काल-कवलित हो गईं। ‘ऐसा क्यों’ आकाश में उड़ रही दो चीलों में से एक जो भूख से बिलबिला रही थी, धरती पर पड़े मानव-शरीर के कुछ लोथड़ों को देख कर नीचे लपकी। उन लोथड़ों के निकट पहुँचने पर उन्हें छुए बिना ही वह वापस अपनी मित्र चील के पास आकाश में लौट आई। मित्र चील ने पूछा- “क्या हुआ,  तुमने कुछ खाया क्यों नहीं ?” “वह खाने योग्य नहीं था।”- पहली चील ने जवाब दिया। “ऐसा क्यों?” “मांस के वह लोथड़े किसी बलात्कारी के शरीर के थे।” -उस चील की आँखों में घृणा थी।              **********

तन्हाई (ग़ज़ल)

मेरी एक नई पेशकश दोस्तों --- मौसम बेरहम देखे, दरख्त फिर भी ज़िन्दा है, बदन इसका मगर कुछ खोखला हो गया है।   बहार  आएगी  कभी,  ये  भरोसा  नहीं  रहा, पतझड़ का आलम  बहुत लम्बा हो गया है।   रहनुमाई बागवां की, अब कुछ करे तो करे, सब्र  का  सिलसिला  बेइन्तहां  हो  गया  है।    या तो मैं हूँ, या फिर मेरी  ख़ामोशी  है यहाँ, सूना - सूना  सा  मेरा  जहां  हो  गया  है।  यूँ  तो उनकी  महफ़िल में  रौनक़ बहुत है, 'हृदयेश' लेकिन फिर भी तन्हा  हो गया है।                          *****  

बेटी (कहानी)

  “अरे राधिका, तुम अभी तक अपने घर नहीं गईं?” घर की बुज़ुर्ग महिला ने बरामदे में आ कर राधिका से पूछा। राधिका इस घर में झाड़ू-पौंछा व बर्तन मांजने का काम करती थी।  “जी माँजी, बस निकल ही रही हूँ। आज बर्तन कुछ ज़्यादा थे और सिर में दर्द भी हो रहा था, सो थोड़ी देर लग गई।” -राधिका ने अपने हाथ के आखिरी बर्तन को धो कर टोकरी में रखते हुए जवाब दिया।  “अरे, तो पहले क्यों नहीं बताया। मैं तुमसे कुछ ज़रूरी बर्तन ही मंजवा लेती। बाकी के बर्तन कल मंज जाते।” “कोई बात नहीं, अब तो काम हो ही गया है। जाती हूँ अब।”- राधिका खड़े हो कर अपने कपडे ठीक करते हुए बोली। अपने काम से राधिका ने इस परिवार के लोगों में अपनी अच्छी साख बना ली थी और बदले में उसे उनसे अच्छा बर्ताव मिल रहा था। इस घर में काम करने के अलावा वह प्राइमरी के कुछ बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाती थी। ट्यूशन पढ़ने बच्चे उसके घर आते थे और उनके आने का समय हो रहा था, अतः राधिका तेज़ क़दमों से घर की ओर चल दी। चार माह की गर्भवती राधिका असीमपुर की घनी बस्ती के एक मकान में छोटे-छोटे दो कमरों में किराये पर रहती थी। मकान-मालकिन श्यामा देवी एक धर्मप्राण, नेक महिल...