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खिदमत (कहानी)




(1)

  कुछ असामाजिक गतिविधियों के चलते सांप्रदायिक दंगा हो जाने के कारण शहर में दो दिन तक कर्फ्यू रहने के बाद पिछले तीन दिनों से धारा 144 लगी हुई थी। प्रशासन की तरफ से किसी भी खुराफ़ात या दंगे से निपटने के लिए माकूल व्यवस्था की गई थी। शहर में हर घंटे-दो घंटे में सायरन बजाती पुलिस और प्रशासन की जीपें व कारें सड़क पर दौड़ रही थीं। 

रात के नौ बज रहे थे। मनसुख शर्मा की तबीयत आज कुछ ठीक नहीं थी। बिस्तर पर अधलेटे पड़े वह अपनी पत्नी मनोरमा के साथ टीवी पर आज की ख़बरें देख रहा था। बेटा उदित और बिटिया अलका दूसरे कमरे में बैठे कैरम खेल रहे थे। किसी के द्वारा ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाया जाने पर मनसुख देखने के लिए बरामदे से हो कर दरवाज़े की तरफ जा रहां था कि मनोरमा ने टोका- "देखो, सावधान रहना। रात का समय है, कोई गुंडा-बदमाश ना हो।" मनसुख प्रत्युत्तर में कुछ भी नहीं बोला। उसने बाहर की लाइट ऑन की और दरवाज़े के पास कोने में रखी छोटी लाठी एक हाथ में थाम कर दरवाज़ा थोड़ा सा खोला। बाहर एक अधेड़ उम्र का आदमी खड़ा था। 

मनसुख ने पूछा- "बोलो भाई, क्या चाहिए?"

"भाई साहब, मैं तकलीफ में हूँ, मुझे भीतर आने दीजिये। कुछ देर बाद चला जाऊँगा।" -उस व्यक्ति ने दयनीय स्वर में जवाब दिया। 

"क्या तकलीफ है आपको? मैं आपको जानता नहीं, भीतर कैसे आने दूँ?" -मनसुख ने कहा। 

"अरे, पता नहीं कौन है? आप तो दरवाज़ा बंद कर के आ जाइये।" -भीतर से मनोरमा तल्खी के साथ बोली। 

बाहर खड़े व्यक्ति ने उसकी आवाज़ सुन कर गिड़गिड़ाते हुए याचना की- "मेहरबानी कर के मुझे अंदर आने दो। आपके समाज के सात-आठ लोगों का ग्रुप मेरे पीछे पड़ा है। बड़ी मुश्किल से उन से बच कर आया हूँ।"  

"क्यों पीछे पड़े हैं आपके, नाम क्या है आपका ?"

"मेरा नाम तौसीफ़ है। सोफिया मार्केट में हार्डवेयर की छोटी सी दुकान है। बड़ी उम्मीद से आपके घर का दरवाज़ा खटखटाया है मैंने। आपको तो पता ही है, इन दिनों रात के वक्त किसी अकेले आदमी का बाहर निकलना कितना जोख़िम भरा हो गया है।"

"चलिए, आ जाइये आप भीतर।" -लाठी वापस कोने में खड़ी कर मनसुख ने दरवाज़ा खोला। 

तौसीफ़ के भीतर आने के बाद मनसुख ने उसे कुर्सी दे कर पूछा- "आप ऐसे माहौल में रात के वक्त इस तरफ पैदल ही क्यों चले आये थे?"

"मेरे बच्चे की तबीयत ख़राब है भाईजान! इस वक्त मेडिकल स्टोर इसी तरफ खुले मिलते हैं, सो मजबूरी थी इधर आने की। यह देखिये, डॉक्टर की पर्ची और दवाइयाँ। बेटे के लिए एक टोपी भी खरीदनी थी, सो दवाई लेने से पहले वह भी खरीद ली। स्कूटी ख़राब हुई पड़ी थी, तो पैदल ही आना पड़ा।"

"हाँ, हाँ, भरोसा हो गया भाई। बहुत ठण्ड है, चाय पिलाते हैं आपको। खाना भी तो नहीं खाया होगा आपने?" -कहते हुए मनसुख ने पत्नी को चाय बनाने के लिए कहा। मनोरमा नाक-भौं सिकोड़ती किचन की तरफ गई। उसे मनसुख की यह दरियादिली बहुत नागवार गुज़र रही थी।

 'इन्हीं लोगों ने तो शहर में आग लगाई है और इनकी ही यूँ आवभगत कर रहे हैं यह। हम लोगों का यही सीधापन तो हमें मार रहा है।', मन ही मन भुनभुना रही थी वह। लेकिन मनसुख ने कहा था तो उनकी बात टालती भी कैसे वह। किचन से सुना उसने, आगंतुक पूछ रहा था- "आप क्या करते हैं? आपको किस नाम से बुला सकता हूँ मैं?"

"सरकारी मुलाजिम हूँ। मनसुख शर्मा कहते हैं मुझे। फ़िक्र न करें, आप पूरी तरह सुरक्षित हैं यहाँ।"

मनोरमा दो कप चाय ले कर आई और टेबल पर रख कर लौट गई। 

"आपने बताया नहीं, आपने खाना खाया है या नहीं? खाना बनवा लें?"

"जी, खाना खा कर ही निकला हूँ। आपने मुझे अपने यहाँ पनाह ही नहीं दी, बल्कि मेहमानवाज़ी भी की है, मैं इसे ताउम्र नहीं भूलूंगा भाई शर्मा जी! अच्छा, मैं अब चलता हूँ। वह लोग भी अब तक इधर-उधर हो गए होंगे।"

"मेरा ख़याल है, आप रात यहीं रुक जाएँ। पुलिस ने अगर आपको इतनी रात देख लिया, तो वह लोग आपको जवाब-तलब करने थाने ले जायेंगे।"

"बहुत शुक्रिया भाईजान! पर आपको तकलीफ़ होगी न!"

"कोई तकलीफ़ नहीं होगी। आपका बिस्तर यहाँ ड्रॉइंग रूम में लगवा देता हूँ।"

मनोरमा को यह सब अच्छा नहीं लग रहा था, किन्तु अपने पति की भलमनसाहत से परिचित थी, सो चुप रहना ही था। ऐसा नहीं था कि धार्मिक स्वभाव की मनोरमा भली औरत नहीं थी, किन्तु शहर के दो मुस्लिम युवकों द्वारा जो खुराफात की गई थी, उससे वह बहुत क्षुब्ध थी। एक मन्दिर में भगवान की मूर्ति से उनके द्वारा अपमानजनक छेड़छाड़ करने और पुजारी द्वारा रोके जाने पर उसके साथ मारपीट करने से जो माहौल बिगड़ा था, उसी ने हिन्दू-मुस्लिम दोनों पक्षों को उग्र कर दिया था और एक बड़े साम्प्रदायिक तनाव को जन्म दे दिया था। 

नई और अनजान जगह होने से तौसीफ़ को ठीक से नींद नहीं आई। अगले दिन सुबह की चाय के बाद करीब सात बजे वह जाने को तत्पर हुआ, तो मनसुख ने अपने बेटे मयंक को उनके साथ भेजने की पेशकश कर कहा- "तौसीफ जी, तबीयत ठीक नहीं होने से मैं नहीं आ रहा, लेकिन आपके साथ मेरा बेटा मयंक आएगा और आपको हमारे मोहल्ले के बाहर तक छोड़ आएगा, ताकि आपको कोई परेशान न करे। यह आस-पास का सारा  का इलाका अच्छी तरह से पहचानता है और मोहल्ले के सभी लोग भी इसे जानते हैं।"

"ओह, बहुत शुक्रिया जनाब!" -तौसीफ़ ने कहा और मयंक के साथ रवाना हो गया। 

अब तो मनोरमा को बहुत क्रोध आया। उसका रात भर का आक्रोश उफन पड़ा- "यह क्या तरीका है जी, बच्चे को उसके साथ भेज दिया, जेसे कि आपका बेटा कोई पहलवान है। बारह वर्ष का मासूम कैसे आपके प्यारे मेहमान को सुरक्षा देगा? कहीं वह खुद मुसीबत में न फँस जाए।"

"भगवान पर भरोसा रखो मनोरमा! हम कौन ग़लत काम कर रहे हैं जो मयंक पर कोई मुसीबत आ जाएगी। वह बेचारा भला आदमी था। उसकी मदद करना हमारा कर्तव्य था।"

"आपकी बात मेरी समझ में नहीं आती। आपकी मर्जी हो सो करो, मगर मेरे लाल को जरा सी भी तकलीफ हुई तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।" -मनोरमा की आँखें भर आईं। वह बेचारी इससे अधिक क्या कहती। 

"कुछ भी नहीं होगा, धीरज धरो तुम!" -मनसुख ने सांत्वना दी और अपने काम में लग गया।


(2)

तौसीफ़ के साथ जा रहा मयंक बड़े आत्मविश्वास के साथ उससे बातें करता हुआ चल रहा था। मॉर्निंग वॉक के लिए निकले दो बुजुर्ग उसे देख कर मुस्कुराये तो उसने 'प्रणाम अंकल' कह कर उनका अभिवादन किया। कुछ और आगे चलने पर अब वह लोग मुस्लिम मोहल्ले से कुछ ही दूरी पर थे। तौसीफ़ उसे विदा करने ही वाला था कि सामने से दो मुसलमान लड़के आते दिखाई दिये। उसने फुर्ती से जेब से अपने बच्चे के लिए खरीदी टोपी मयंक के सिर पर रख दी। पास आने पर उनमें से एक ने पूछा- "सलाम-आलेकुम चाचा, कहाँ से आ रहे हो? और आपके साथ यह लड़का कौन है?"

मोहल्ले के शातिर और बदमाश उन लड़कों को तौसीफ़ अच्छी तरह से पहचानता था, सम्हल कर बोला- "वालेकुम सलाम! यह मेरा भतीजा अकरम है। बसें चालू हुईं तो कल ही गुजरात से आया है। सुबह ताज़ा हवा में थोड़ा घुमा कर लाया हूँ।"

"अच्छा अच्छा! घुमाओ इसे, पर ज़रा संभाल के। अभी क़ाफ़िरों के हौसले ज़्यादा ही बुलन्द हो रहे हैं। वो तो हम जैसे हैं, जो उनको उनकी औकात में रखे हैं।" -और भौंडी हँसी हँसते हुए दोनों आगे बढ़ गए।

अभी मयंक को वापस भेजना खतरे से खाली नहीं था, सो तौसीफ़ उसे अपने घर ले आया। अभी के हालातों से वाकिफ़ अबोध बालक मयंक उन लड़कों की बातें सुन कर ख़तरे को भाँप गया था, अतः ख़ामोशी से तौसीफ़ के साथ चला आया। उसकी बीवी सुल्ताना ने दरवाज़ा खोल कर देखा तो चमक कर बोली- "रात को कहाँ रुक गये थे और यह किसको उठा लाये हो?"

"बताता हूँ, बताता हूँ मोहतरमा! भीतर तो आने दो, सांस तो लेने दो।" -घर में घुसते हुए तौसीफ़ ने जवाब दिया। चारपाई पर बैठ कर दो घूँट पानी पीने के बाद तौसीफ़ ने कल रात से अब तक की सारी कैफ़ियत सुना दी। मयंक ने तब तक तौसीफ़ के बेटे इमरान से दोस्ती कर ली थी। संयोग से दोनों बच्चे छठी कक्षा के विद्यार्थी थे। लगभग समान वय होने से दोनों बच्चे कुछ ही देर में घुल-मिल गए। दोनों घर के चौक में बकरी के मेमने के साथ खेल रहे थे।

महिलाओं की बुद्धि कुछ मामलों में पुरुषों की बुद्धि से दो कदम आगे चलती है। सुल्ताना ने सुझाया- "इस लड़के को अपनी कौम के नेताओं के सुपुर्द कर देते हैं। इससे दो फायदे होंगे- एक तो अपनी कौम की खिदमत होगी, जिससे हमारे लोगों की निगाहों में अपनी इज़्ज़त बढ़ जाएगी और हो सकता है, कुछ ईनाम-विनाम भी मिल जाए। और दूसरा यह कि इस लड़के को अगवा कर लेना बता के इसके बदले फिरौती में हमारे उन दो लड़कों को आज़ाद करवाया जा सकता है, जिन्हें पुलिस ने गिरफ्तार कर रखा है।"

"लाहौलबिलाकुवत, यह क्या बके जा रही हो तुम? इतनी खिदमत, इतनी मेहरबानी की उस आदमी ने मुझ पर और उसकी औलाद के साथ ऐसा सुलूक! खुदा के खौफ़ से डरो बेगम!"

"मैं तो मुनासिब बात ही कह रही थी। आगे तुम्हारी मर्ज़ी है मियाँ।"

'एकाध घंटे बाद मयंक को कुछ दूर तक छोड़ आऊँगा', यह सोच कर तौसीफ़ थोड़ी देर के लिए वहीं चारपाई पर लेट गया। लेटते ही कुछ ही देर में वह खर्राटे लेने लगा। वह पन्द्रह मिनट की नींद भी नहीं ले पाया था कि फोन की घंटी की आवाज़ से उसकी नींद खुल गई। उनींदी आवाज़ में बोला वह- "हैलो, कौन?"

"अरे तौसीफ़ मियाँ, कौम की खिदमत में बहुत ही नेक काम किया है आपने। अब जल्द ही उस काफ़िर बच्चे को उस्मानिया मस्जिद के पास मुसाफिरखाने में ले आओ। मैं मस्जिद से बोल रहा हूँ। मौलवी साहब और कुछ और मौतबिर लोग भी वहाँ पहुँच जाएँगे तब तक।"

'अरे, यह बात बाहर कैसे गई? ज़रूर इस कम्बख़्त सुल्ताना ने ही यह खुराफ़ात की है। अब तो और कोई चारा ही नहीं रहा', सोचते हुए तौसीफ़ मन ही मन परेशान हो रहा था, बोला- "हाँ जनाब, बस घंटे-दो घंटे में पहुँचता हूँ।"

चारपाई से उठ खड़ा हुआ तौसीफ़। सुल्ताना को आवाज़ लगाई, पर कोई जवाब नहीं आया। कुछ पकने की महक आ रही थी। समझ गया कि सुल्ताना नाश्ता बना रही है। बच्चे अभी भी चौक में खेल रहे थे। बकरी और उसके मेमने का मिमियाना बदस्तूर जारी था। वह सीधा किचन में आया और झल्ला कर बोला- "यह क्या मज़ाक है? वह बच्चा हमारे यहाँ है, मस्जिद तक यह बात कैसे गई?"

"ये लो, नेकी कर कुएँ में डाल! एक तो मैंने आपकी इज़्ज़त में इज़ाफ़ा करवाया है और मेरी ही तौहीन कर रहे हो। मैंने उन्हें फोन कर के बताया कि कौम की खिदमत की ख़ातिर तुमने एक काफ़िर बच्चे को अगवा किया है, तो पता है कितनी वाहवाही हुई तुम्हारी?"

सिर पकड़ कर नीचे बैठ गया तौसीफ़- "उफ्फ़! यह तुमने क्या किया सुल्ताना?"

"मैंने वही किया जो हमारी कौम के हक़ में था। तुम भी अपनी आँखों से नेकनीयती की पट्टी उतारो और मुसलमान होने का अपना फ़र्ज़ अता करो।"

“अच्छा यह बताओ, इस बच्चे को कुछ खाने को दिया या नहीं?”

“कहाँ से देती, अभी नाश्ता तैयार ही कहाँ हुआ है? वैसे एक-एक केला दोनों को दे दिया है।”

तौसीफ़ आश्वस्त हो कर वापस कमरे में आ गया।

कुछ देर तक सोचता रहा, अपने दिलोदिमाग़ में तौलता रहा तौसीफ़! आखिर में वह इस नतीजे पर पहुँचा कि सुल्ताना ने जो हालात पैदा किये हैं, उसके मद्देनज़र अब शराफ़त पर टिके रहना मुनासिब नहीं होगा। जब वह इस दिशा में सोचने लगा, तो उसे सुल्ताना द्वारा बताये फायदों में भी यकीन होने लगा। 'लेकिन मनसुख पुलिस में रिपोर्ट ज़रूर दर्ज़ करायेगा। तब क्या होगा?’ उसे चिंता हो रही थी।

आखिर में कुछ सोच-विचार के बाद तौसीफ़ ने इसका हल ढूँढ़ लिया और मस्जिद से आये फोन नंबर पर कॉल बैक किया।

“हेलो!” -आवाज़ आई।

“जनाब, मैं तौसीफ़ बोल रहा हूँ। अभी कुछ कुछ आधा घंटे पहले आपका फोन आया था।”

“हाँ, हाँ। कितनी देर में पहुँच रहे हो?”

“बस नाश्ता कर के आ रहा हूँ। एक गुज़ारिश थी आप से।”

“हाँ, बोलो मियाँ।”

“मुझे कुछ ज़रूरी काम से कहीं जाना है। आप ऐसा करें, मुसाफिरखाने वाली गली के मोड़ तक किसी को भेज दें। मैं गंगाधर चौराहे पर लड़के को छोड़ दूँगा और आपके बंदे को इशारा कर के आगे निकल जाऊँगा। वहाँ से आपका बंदा लड़के को अपने कब्जे में ले कर मुसाफिरखाने चला आएगा। इन दिनों सड़क पर कोई आलतू-फालतू घूमता नहीं, इसलिए कोई दिक्कत पेश नहीं आएगी। इस पेशकश की असली वज़ह मैं आप लोगों को बाद में बताऊँगा।”

“मुनासिब है। हमारा बंदा वहाँ तुम्हारा इन्तज़ार करेगा।”

(3)

तौसीफ़ का दिमाग़ उसकी योजना के मुताबिक तेजी से चल रहा था, ‘मैं इस लड़के मयंक को मुसाफिरखाने की गली के पास गंगाधर चौराहे पर यह कह कर छोड़ दूँगा कि वहाँ से वह अपने घर चला जाए। मैं काम से जाने का बहाना कर के आगे रफीक के वहाँ चला जाऊँगा और उधर इन्तज़ार कर रहा वह बंदा मेरा इशारा पा कर मयंक को पकड़ लेगा। जब पुलिस पूछेगी तो कह दूँगा कि मैं मयंक को सुरक्षित कुछ दूरी तक छोड़ कर अपने किसी ज़रूरी काम से चला गया था।’

यह योजना बना कर तौसीफ़ ने राहत की सांस ली। उसे मनसुख के साथ गद्दारी करने का अफ़सोस था, लेकिन अपनी बीवी के कारण जिस तरह के हालात में वह फँस गया था, उसके चलते और कोई तरीका उसे नहीं सूझा। सुल्ताना नाश्ता ले कर आ गई थी। तौसीफ़ ने पूछा- “बच्चों को नाश्ता करा दिया है न?”

“मयंक ने केला तो ले लिया था, पर नाश्ते के लिए मना कर दिया था, सो इमरान को नाश्ता दे आई हूँ।” -सुल्ताना ने बताया।

नाश्ता करने के बाद तौसीफ़ ने मयंक को बुला कर कहा- “बेटा, चलो, अब कोई दिक्कत नहीं है। मैं तुम्हारे साथ कुछ दूरी तक आ रहा हूँ। मुझे किसी काम से आगे जाना है, सो तुम्हें रास्ते में सही जगह देख कर छोड़ दूँगा। वहाँ से तुम आराम से अपने घर जा सकोगे।”

“जी अंकल।” -मयंक ने कहा और जूते पहन कर तैयार हो गया।

नाश्ते से निपट कर तौसीफ़ ने मयंक को साथ लिया और चल पड़ा। गंगाधर चौराहे से बहुत पहले, तौसीफ़ के घर से लगभग सौ मीटर की दूरी पर बायीं तरफ की एक गली से हो कर दो मोड़ निकलने के बाद मयंक के घर जाया जा सकता था। सुबह तौसीफ़ इसी रास्ते से मयंक को अपने साथ आया था।

गंगाधर चौराहे पर बायीं तरफ का रास्ता एक बाज़ार था। इस बाज़ार में बायें हाथ पर स्थित अस्पताल के आगे वाली गली से भी मनसुख के घर जाया जा सकता था। चौराहे पर सामने वाला रास्ता भी बाज़ारनुमा हो कर शहर के घनी आबादी वाले हिस्से की तरफ जाता था। इसी रास्ते पर कुछ पचास-साठ फीट की दूरी पर दायीं ओर की गली मुसाफिरखाने की तरफ निकलती थी। चौराहे के दायीं ओर के रास्ते पर अधिकांशतः मुसलमानों के मकान तथा छिटपुट हार्डवेयर, वगैरह की कुछ छोटी-बड़ी दुकानें थीं।

वह दोनों घर से चल कर मयंक के घर की तरफ जाने वाली गली तक पहुँच गये थे। मयंक ने उस गली से जाने को कहा तो अपनी योजना के अनुसार तौसीफ़ गली अभी सुनसान होने से सुरक्षित नहीं होने का बहाना कर उसे आगे ले चला। मयंक निश्चिन्त और प्रसन्नचित्त उसके साथ चल रहा था।

“अंकल, इमरान मेरा अच्छा दोस्त बन गया है। मुझे आपके यहाँ बकरी और मेमने के साथ खेलने में बहुत मज़ा आया। मैं इमरान के साथ खेलने आपके यहाँ आया करूँगा। आप भी इमरान को मेरे घर भेजना। मैं उसे कैरम खेलना सिखाऊँगा। खूब मज़े आएँगे। भेजेंगे न अंकल?” -मयंक ने तौसीफ़ से आग्रहपूर्वक कहा।

तौसीफ़ ठिठक कर दो पल के लिए रुक गया और मयंक की ओर देखने लगा। मयंक के निर्दोष अनुरोध और चेहरे की मासूम मुस्कुराहट ने उसका मन मोह लिया। उसकी निगाहें मयंक के चेहरे से हट न सकीं।

उसका मन आन्दोलित हो उठा। मनसुख के द्वारा उसे की गई मदद, इमरान के साथ मयंक की पल भर में हुई दोस्ती और मयंक के लफ़्ज़ों की पाकीज़गी, एक-एक कर उसके मन-मस्तिष्क को झकझोरने लगीं। उसकी आँखों का दरिया झर-झर बहने लगा। सुल्ताना के नापाक इरादों की बदौलत उस के दिल पर काबिज़ हुई कालिख की परतें एक-एक कर बिखरने लगीं। उसे लगा, अल्लाह का नूर उसके दिल में उतर रहा है। “हाँ बेटा हाँ, ज़रूर भेजूंगा।” कहते हुए उसने पंकज को अपनी बाँहों में उठा कर सीने से लगा लिया। दिल ही दिल में उसने अपनी ग़लतियों के लिए तौबा किया व मयंक को जमीन पर उतार कर उसका हाथ पकड़ कर पीछे छूट गई उस गली तक लौटा, जो मनसुख के घर की तरफ जाती थी।

मयंक कभी सामने, तो कभी तौसीफ़ का चेहरा देख रहा था। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक अंकल को क्या हो गया है।

शायद ऊपर वाले का ही करिश्मा था कि गली में उनको पुलिस की एक जीप इधर की तरफ आती दिखाई दी। जीप करीब आई, तो युसूफ ने मयंक के उसके यहाँ आने का सारा ब्यौरा बता कर ऑफिसर से उसे उसके घर छोड़ने की गुज़ारिश की। पुलिस ऑफिसर ने कुछ सवाल-जवाब के बाद मयंक से तसदीक कर उसे जीप में बैठा लिया।

तौसीफ़ घर लौट रहा था तो उसके मन में ऐसा सुकून था, जो शायद उसने अपनी ज़िन्दगी में पहली बार महसूस किया था।

घर पहुँचा, तो सुल्ताना ने खुश होते हुए तुरंत पूछा- “छोड़ आए उसे मुसाफिरखाने में?”

“नहीं, उसे उसके घर भिजवा दिया।”

“या अल्लाह! तुमने उस काफिर के यहाँ का पानी क्या पी लिया, तुम्हारी तो अक़्ल ही ख़राब हो गई है।”

‘सट्टाक’ की आवाज़ के साथ सुल्ताना के गाल पर ऐसा झन्नाटेदार थप्पड़ पड़ा कि वह दोहरी हो गई।

“अगर इस घर में रहना है तो मुझसे पूछे बिना ऐसी कोई बेजा हरकत आइन्दा मत करना।”

सुल्ताना अपने कान पकड़ कर रोती हुई वहीं जमीन पर बैठ गई।

अब तौसीफ़ ने मस्जिद में उसी बन्दे को फ़ोन लगाया। उधर से फोन उठाने पर तौसीफ़ ने कहा- “बेहद अफ़सोस है जनाब!, मैं लड़के को मुकम्मल जगह पर ले कर आ रहा था कि कम्बख़्त पुलिस की जीप सामने मिल गई। उन्होंने पूछताछ की तो मुझे असल बात बतानी पड़ी और मैं मकसद में कामयाब नहीं हो सका। सारा गुड़-गोबर हो गया।”

तौसीफ़ ने उसके साथ पिछली रात गुज़रा सारा वाक़या भी कह सुनाया और फिर बोला- “जनाब, मैं तो उस मनसुख की दरियादिली को ताक पर रख कर अपने मकसद में कामयाब होना चाहता था, मगर शायद मेरा नसीब ही ख़राब था।”

“कोई बात नहीं, जैसी अल्लाह की मर्ज़ी। अल्लाह हाफ़िज़!”

“अल्लाह हाफ़िज़ जनाब!” -कह कर तौसीफ़ ने फोन स्विच ऑफ किया और राहत की एक लम्बी साँस ली।


*********








टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही मार्मिक संदेशप्रद कहानी ऐसा लग रहा था कि हर दृश्य आंखों के सामने घटित हो रहा है।सादर

    https://experienceofindianlife.blogspot.com/2023/01/blog-post_13.html?m=1

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    उत्तर
    1. आपकी सहृदय सराहना के लिए आभारी हूँ महोदया!

      हटाएं
  2. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कलरविवार (15-1-23} को "भारत का हर पर्व अनोखा"(चर्चा अंक 4635) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
    ------------
    कामिनी सिन्हा

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. धन्यवाद महोदयाउपस्थित हुआ था मैं, किन्तु यहाँ प्रत्युत्तर देने में विलम्ब हुआ, तदर्थ खेद है।

      हटाएं
    2. मुझे स्मरण हो रहा है कि मैंने सभी की टिप्पणियों के जवाब दिए थे। संभवतः किसी कारण प्रकाशित नहीं हो पाए।

      हटाएं
  3. मानो स्थिति के उतार चढ़ाव के साथ हृदय स्पर्शी कथा ।
    प्रेरक कहानी है काश व्यक्ति समय रहते सही निर्णय ले ले तो सब अच्छा होता है।

    जवाब देंहटाएं
  4. संवेदना से भरी कहानी, बहुत ही सार्थक और सामयिक संदेश दे गई।
    इंसान का ज़मीर ऐसे ही जागता रहे यही कामना है।
    इस कहानी का कथानक मैने अपनी आंखों से अपने घर में देखा है जब मेरे बाबाजी और पिताजी ने कस्बे में दंगे में घायल होने के बाद चार पांच तौसीफ जैसे ही लोगों को पनाह दे उनका इलाज करवाया था, मैंने कई बार लिखने को सोचा पर लिख नहीं पाई ।
    आपका लेखन मनोबल बढ़ा गया । फिर कोशिश होगी ।बधाई और शुभकामनाएं आदरणीय।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. क्या वह सभी तौसीफ़ भी मेरी कहानी के तौसीफ़ की तरह गुमराह हुए थे जिज्ञासा जी? कृपया बताएँजानने को उत्सुक हूँ।

      हटाएं
  5. बेहतरीन भावपूर्ण अभिव्यक्ति

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