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बेटी (कहानी)

 


“अरे राधिका, तुम अभी तक अपने घर नहीं गईं?” घर की बुज़ुर्ग महिला ने बरामदे में आ कर राधा से पूछा। राधिका इस घर में झाड़ू-पौंछा व बर्तन मांजने का काम करती थी। 

“जी माँजी, बस निकल ही रही हूँ। आज बर्तन कुछ ज़्यादा थे और सिर में दर्द भी हो रहा था, सो थोड़ी देर लग गई।” -राधिका ने अपने हाथ के आखिरी बर्तन को धो कर टोकरी में रखते हुए जवाब दिया। 

“अरे, तो पहले क्यों नहीं बताया। मैं तुमसे कुछ ज़रूरी बर्तन ही मंजवा लेती। बाकी के बर्तन कल मंज जाते।”

“कोई बात नहीं, अब तो काम हो ही गया है। जाती हूँ अब।”- राधिका खड़े हो कर अपने कपडे ठीक करते हुए बोली। अपने काम से राधा ने इस परिवार के लोगों में अपनी अच्छी साख बना ली थी और बदले में उसे उनसे अच्छा बर्ताव मिल रहा था। इस घर में काम करने के अलावा वह प्राइमरी के कुछ बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाती थी। ट्यूशन पढ़ने बच्चे उसके घर आते थे और उनके आने का समय हो रहा था, अतः राधिका तेज़ क़दमों से घर की ओर चल दी।


चार माह की गर्भवती राधिका असीमपुर की घनी बस्ती के एक मकान में छोटे-छोटे दो कमरों में किराये पर रहती थी। मकान-मालकिन श्यामा देवी एक धर्मप्राण, नेक महिला थीं। वह एक छोटे बच्चे की माँ थीं और उनके पति एक प्राइवेट बैंक में मैनेजर थे। जब राधिका उनसे मकान किराये पर लेने आई थी तो उसने उन्हें बताया कि एक साल पहले उसकी शादी हुई थी। पति का देहान्त एक आकस्मिक दुर्घटना में आज से तीन माह पहले हो गया था। पति के देहान्त के बाद बदनीयत देवर के कारण उसका जीवन दुश्वार हो गया था। उसकी शिकायत करने पर सासू ने उस पर ही दोषारोपण कर के उसे दुश्चरित्र ठहरा दिया। स्थिति असह्य हो जाने पर अपनी इज़्ज़त बचाने के लिए वह घर व शहर छोड़ कर आ गई है। उसके पास इतना रुपया नहीं है कि अग्रिम किराया दे सके। राधिका ने उन्हें विश्वास दिलाया कि वह दसवीं तक पढ़ी-लिखी है तथा ट्यूशन करके और यहाँ तक कि लोगों के घरों में काम करके भी वह अपनी आजीविका लायक पैसा कमायेगी और किराया भी चुकाती रहेगी। इस बात से श्यामा देवी को उसके प्रति सहानुभूति हो आई। उन्होंने बिना अग्रिम किराया लिये राधिका को एक कमरा किराये पर दे दिया। कमरा किराये पर लेने के बाद राधिका ने अपने साथ लाया अटैची व थैले का सारा सामान, जो कि मुख्यतः उसके कपड़े, वगैरह थे, कमरे में व्यवस्थित किया। कुछ पैसे उसके पास थे, जिससे उसने बहुत ज़रूरी कुछ सामान ख़रीदा। राधिका का यह कमरा उसके लिए रसोईघर भी था। 


पढ़ने वाले बच्चों का जुगाड़ करने में उसकी मकान-मालकिन श्यामा देवी ने मदद की थी। शुरुआत में राधा को एक घर में झाड़ू-पौंछे का काम मिल गया था और कुछ ही दिनों में श्यामा जी ने अपने परिचितों के तीन बच्चों को राधा के यहाँ ट्यूशन पर लगवा दिया था। और फिर तो संपर्क बढ़ने से धीरे-धीरे करके दो माह में ही पढ़ने आने वाले बच्चों की संख्या बारह हो गई। अब राधिका ने एक और पास वाला कमरा भी किराये पर ले लिया था। राधा दो बैच में इन बच्चों को पढ़ाती थी। इस तरह से गुज़ारे लायक ठीक-ठाक पैसा आ जाता था। राधिका अपने आने वाले बच्चे के लिए भी कुछ पैसा बचा कर बैंक में जमा करवा देती थी। संघर्ष के इस समय में उसकी पहली प्राथमिकता आने वाला बच्चा था। 


एक दिन राधिका ने श्यामा जी से उपकृत होने के अहसास से उनके घर के काम में मदद करने का प्रस्ताव रखा, तो श्यामा स्नेह से झिड़क कर बोलीं- “ना रे, अभी तुम पेट से हो और फिर इतना व्यस्त रहती हो। तुम क्यों हाथ बंटाओगी मेरे काम में? मेरे यहाँ काम ही कितना होता है और खुद काम नहीं करूँगी तो मेरा यह मुस्टण्ड शरीर किस काम आएगा, पड़ा-पड़ा थुल-थुल न हो जावेगा?- कह कर वह हँस पड़ीं। राधिका उनके प्रति सम्मान से अभिभूत हो उठी।

 श्यामा देवी राधिका से मात्र दस-बारह वर्ष ही बड़ी थी, किन्तु उसके साथ व्यवहार इस तरह करती थीं, मानों बहुत बुज़ुर्ग हों। श्यामा जी का वरद्हस्त राधिका के एकाकी जीवन में वरदान बना हुआ था। उसकी दिनचर्या उनके स्नेहिल सामीप्य में सहजता से चल रही थी। श्यामा जी के मना करने के बावज़ूद वह तीसरी कक्षा में पढ़ रहे उनके बेटे राहुल को शाम के वक्त घंटा-आधा घंटा पढ़ा दिया करती थी। उसे ऐसा कर के बहुत ख़ुशी मिलती थी। राहुल भी राधिका से बहुत हिल-मिल गया था। 


फिर एक दिन वह आया, जब राधिका दोपहर में अपने घर में बिस्तर पर पड़ी प्रसव-पीड़ा से कराह रही थी। श्यामा जी ने आवाज़ सुनी तो भागी-भागी आईं और राधिका को धीरज दे कर अपने पति को फोन किया। पत्नी की बात सुन कर प्रदीप जी बैंक से बाहर निकले और अपनी कार ले कर दस मिनट में घर पहुँच गए। राहुल अभी स्कूल गया हुआ था। श्यामा जी राधिका को ले कर अपने पति के साथ अस्पताल पहुँचीं। राधिका को अस्पताल में भर्ती कर लिया गया। श्यामा जी को राधिका के पास छोड़ कर प्रदीप जी बैंक न जा कर घर चले आये, क्योंकि राहुल के स्कूल से घर लौटने का समय हो रहा था।

शाम होते-होते राधिका ने एक प्यारी-सी बच्ची को जन्म दिया। एक नर्स को राधिका की ज़िम्मेदारी दे कर पुष्पा जी ने प्रदीप जी को फोन किया। प्रदीप जी राहुल के साथ अस्पताल आये और पुष्पा जी राधिका से बात कर उनके साथ घर लौट गईं। रोज़ एक बार समय निकाल कर वह राधिका को सम्हाल आती थीं। राधा को बहुत संतोष था कि श्यामा जी उसका इतना ख़याल रख रही थीं। 

तीन दिन बाद राधिका अपनी बच्ची के साथ सकुशल घर आ गई। लगभग एक माह तक श्यामा जी ने राधिका की पूरी साज-सम्हाल की। राधिका नित्य ईश्वर का धन्यवाद करती थी कि श्यामा जी के रूप में एक ज़िम्मेदार संरक्षक उसे मिल गई थी। ससुराल से निष्कासित कर दिए जाने के बाद वह इस अनजान शहर में चली आई थी और कठिनाई के समय में श्यामा जी के रूप में परमात्मा ने उसे एक मज़बूत सहारा दिया था। 

बच्ची का नाम रखने का दायित्व या कहें कि सम्मान, राधिका ने श्यामा जी को ही दिया। एक छोटे-से समारोह का आयोजन कर बच्ची का नामकरण संस्कार किया गया। श्यामा जी और उनके पति द्वारा बच्ची को दिया गया नाम ‘नेहा’ राधिका को बहुत भाया। 


राधिका के पास पढ़ने आने वाले बच्चों की संख्या बढ़ कर अब सोलह हो गई थी। बच्ची को सम्हालने के साथ इतने बच्चों को पढ़ाने की ज़िम्मेदारी राधिका के लिए कठिन होता जा रहा था, लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी और अपना परिश्रम जारी रखा। हाँ, झाड़ू-पौंछे, वगैरह का अपना काम उसने नेहा के जन्म के समय से ही छोड़ दिया था। 

नेहा बड़ी हो रही थी और माह-दर-माह खिलती जा रही थी। माँ के प्यार के साथ ही श्यामा जी के परिवार का भी प्यार-दुलार उसे बखूबी मिल रहा था। कुछ बड़ी होने के बाद वह राहुल के साथ खेलने लायक हो गई। जब चार वर्ष की हुई, तो उसे राहुल के स्कूल में ही भर्ती करा दिया गया। राहुल इस समय सातवीं कक्षा में पढ़ रहा था। स्कूल में राहुल उसका बहुत ख़याल रखता था। स्कूल की छुट्टी के दिनों में नेहा अधिकांश समय राहुल के साथ श्यामा जी के वहाँ ही रहा करती थी। श्यामा जी उसके साथ अपनी बच्ची की तरह व्यवहार करती थीं। जो राहुल को खिलाती, बिना भेदभाव के, वही चीज़ नेहा को खिलातीं। वह दोनों को अपने साथ बिठा कर हितोपदेश, आदि की ज्ञानवर्धक कथाएँ सुनाती थीं। शारीरिक और मानसिक विकास के साथ-साथ श्यामा जी की दयालुता और परोपकारी स्वभाव के प्रभाव से दोनों बच्चों में अच्छे संस्कार भी पनप रहे थे। 

समय गुज़रता रहा। राहुल पढ़ने में बहुत होशियार था। पहले स्कूल व फिर कॉलेज में, वह पढाई में हर दर्जे को उच्च श्रेणी से पास कर रहा था। राधिका भी अपनी बेटी को पालने और उसका भविष्य संवारने के लिए दिन-रात मेहनत करती रही। उसने उसे हमेशा खुश रखा और उसकी हर ज़रुरत को पूरा किया, उसे कभी कोई कमी महसूस नहीं होने दी। नेहा भी अपनी पढ़ाई के साथ न्याय कर रही थी। दोनों बच्चे साथ-साथ बड़े हो रहे थे। 

समय के साथ मनुष्य के जीवन में क्या-क्या तब्दीलियाँ आ जाती हैं। राहुल ने अपनी पढाई पूरी करने के बाद लोक सेवा आयोग की प्रशासनिक सेवा परीक्षा पास की और एक अन्य शहर में एसडीएम के पद पर काबिज़ हो गया। श्यामा जी के परिवार के साथ ही राधिका और नेहा भी राहुल के इस पदस्थापन से बहुत खुश थे। कुछ ही वर्षों के अन्तराल में नेहा ने भी भूभौतिकी विषय में अध्ययन करते हुए जीओफिज़िक्स में एमएससी की उपाधि प्राप्त कर ली। उसने भी लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित परीक्षा उत्तीर्ण की और अपने शहर में ही भूजल विभाग में ‘तकनीकी सहायक’ पद पर नियुक्ति पा ली। राधिका अपनी बेटी की उपलब्धि से बहुत प्रसन्न व गर्वित थी। श्यामा जी और उनके पति ने नेहा व राधा को जी भर कर बधाई दी। 


नेहा अब बाईस वर्ष की हो गई थी। राधिका के सिर में सफेदी झाँकने लगी थी और श्यामा जी तो चौपन-पचपन के  आस-पास थीं। बहुत कुछ बदल गया था। न बदला था तो वह था, दोनों परिवारों के बीच का अपनापन।

नेहा की नौकरी लगने से उसकी आवश्यकता को देखते हुए राधिका ने दो कुर्सियां और एक छोटी टेबल खरीद ली। इससे अधिक फर्नीचर के लिए घर में पर्याप्त जगह नहीं थी। कुछ दिन तक सब अच्छा चलता रहा।


नेहा श्यामा जी के परिवार को बहुत प्यार करती थी, सबके लिए बहुत सम्मान था उसके मन में, लेकिन उसे अब इस घर में रहना दुविधाजनक लग रहा था। उसके एक-दो मित्र व सहकर्मी कभी-कभार घर आते थे, तो उसे अपने इस छोटे घर के कारण बहुत शर्मिंदगी महसूस होती थी। इस मकान में अधिक कमरे किराये के लिए उपलब्ध नहीं थे, अतः वह चाहती थी कि उसकी मम्मी मकान बदल ले। 

उस दिन ऑफिस से आने के बाद रात को राधिका से जब उसने अपने मन की बात कही, तो राधिका विचलित हो उठी, उसकी आँखें भरभरा आईं- “बिटिया, इस मकान में रहते तू पली-बढ़ी है। जब मुझे कहीं कमरा किराये पर नहीं मिल रहा था, उस समय श्यामा जी ने मुझे यहाँ आसरा दिया था। इन लोगों ने परिवार का स्नेह हमको दिया है। हम यहाँ से कैसे जा सकते हैं?”

“मुझे सब मालूम है मम्मा! मैं भी इन लोगों को बहुत प्यार करती हूँ। यहाँ से जाना मुझे भी अच्छा नहीं लगेगा। लेकिन आप ही बताओ, क्या यह मकान हमारे लिए छोटा नहीं पड़ता? हमारे पास  अलग से रसोईघर तक नहीं है। मुझे भी अपना काम करने के लिए एक अलग कमरे की ज़रुरत होती है। मैं बच्ची थी, तब की बात अलग थी, लेकिन अब, जब हम कुछ अच्छी स्थिति में आये हैं, तो क्या बेहतर ज़िन्दगी जीने का हक़ हमें नहीं मिलना चाहिए? …और फिर मुझे सरकारी क़्वार्टर भी मिल रहा है।”

राधिका को नेहा का तर्क समझ में आया और उसकी परेशानी भी। अगले दिन सुबह उठने पर नेहा ने देखा कि उसकी माँ की आँखें लाल-सुर्ख थीं। उसने माँ से गले लिपट कर पूछा- “मम्मी क्या आप रोई थीं? आपकी आँखें सूज रही है और लाल भी हो रही हैं। क्या मकान बदलने की मेरी बात से आप दुःखी हुई हैं? अगर ऐसा है, तो आप परेशान न हों, हम यहीं रह कर गुज़ारा कर लेंगे।”

“नहीं नेहा बेटा, ऐसी कोई बात नहीं है। शायद किसी मच्छर ने काट लिया है।”

नेहा जानती थी कि माँ उसे कभी अपना दर्द नहीं बताएगी। वह जान गई थी कि या तो माँ रोई है या उसे रात को ठीक से नींद नहीं आई, प्यार से माँ को चूम कर बोली- “ठीक है, मैं आज ऑफिस से आते हुए मरहम ले आऊँगी।” 


नेहा के ऑफिस जाने के बाद जब बच्चे पढ़ने आये, तो राधिका ने उन्हें आज की छुट्टी दे दी। वह इस नई समस्या के बारे में सोच-सोच कर परेशान हो रही थी। उसे अपनी बच्ची की तकलीफ़ का तो अहसास था, लेकिन वह श्यामा जी से कैसे कहे कि वह मकान छोड़ कर जाना चाहती है। बहुत सोच-विचार के बाद राधिका हिम्मत कर के श्यामा जी के पास गई। कुछ देर वह उनके पास बैठी रही, लेकिन अधिक समय तक खामोश ही रही। वह कुछ कहने का साहस नहीं जुटा पा रही थी।

श्यामा जी ने उसकी हालत भाँप कर पूछा- “क्या बात है बहन, तुम कुछ परेशान नज़र आ रही हो। आज बच्चों को भी नहीं पढ़ा रही हो। कोई बात है?”

“नहीं जीजी, बस सिर में कुछ दर्द हो रहा है।” -राधिका ने मुस्कुराने ने की कोशिश करते हुए कहा। 

“अरे, मैं अभी चाय बना कर लाती हूँ तुम्हारे लिए।” -श्यामा जी ने कहा और राधिका के मना करते-करते भी रसोईघर की ओर चल दीं। 

राधिका चाय पीते हुए श्यामा जी से बतिया रही थी और उसकी नज़रें श्यामा जी की स्नेहिल आँखों में डुबकी लगा रही थी।

“बहना, कभी मन नहीं लगे, तबियत ठीक न हो तो बेझिझक अपनी इस दीदी के पास आ जाया करो।” 

राधिका ने उसके सम्मान में अपना सिर झुका दिया। 

वह मकान के सम्बन्ध में कुछ भी न कह सकी और चाय ख़त्म करने के बाद धन्यवाद दे कर अपने कमरे में लौट आई। घर में आने के बाद भी नेहा की बातें उसके दिमाग़ में उथल-पुथल मचा रही थीं- ‘मैं इस मकान को छोड़ कर नहीं जा सकती, चाहे कुछ भी हो, मुझे नेहा को समझाना होगा।’


इस घटना के बाद एक सप्ताह होने को आ गया था, लेकिन नेहा ने फिर मकान का मुद्दा दुबारा नहीं उठाया। आज नेहा के साथ उसके दो अधीनस्थ सहकर्मी, एक युवक और एक युवती घर आये थे। राधिका ने उनके अभिवादन का जवाब दिया और लौटने के लिए मुड़ी ही थी कि नेहा ने उससे कहा- “मम्मी, कल हमें दो दिन के लिए टूर पर जाना है। इसी सिलसिले में कुछ देर हम लोग यहाँ बैठ कर अपना प्रोग्राम डिस्कस करेंगे।”

और तीनों दूसरे कमरे में बातचीत के लिए चले गये। 

राधिका ने उनके लिए चाय बनाई और चाय ले कर कमरे में पहुँची, तो देखा तीनों दरी बिछा कर जमीन पर बैठे थे और एक फाइल खोले कुछ बातचीत कर रहे थे। राधिका को दुःख हुआ कि मात्र दो कुर्सियां होने के कारण उन्हें इस तरह नीचे बैठना पड़ा है। नेहा ने माँ को हाथ में चाय की ट्रे लिए आते देखा तो खड़ी हो कर बोली- “अरे मम्मा, मुझे आवाज़ लगा दी होती, मैं न आ जाती? नाहक आपने तकलीफ की।”- और आगे बढ़ कर माँ के हाथ से चाय की ट्रे थाम ली। 

“मम्मी जी, आपने इतनी तकलीफ क्यों की? हम तो ऑफिस में चाय ले कर ही आये थे। दरअसल ऑफिस में बाहर से आये कुछ अफसरों के साथ हमारे बॉस की मीटिंग थी, इसलिए हमें कल की तैयारी के लिए यहाँ आना पड़ा।” -नेहा की सहकर्मी युवती ने कहा। 

“अरे बेटा, इसमें तकलीफ काहे की? तुम लोग भी तो बच्चे हो मेरे।” -राधिका ने मुस्कुरा कर जवाब दिया और बाहर चली आई। वह मन ही मन अपराध-बोध से ग्रस्त हो रही थी, ‘मेरे कारण इनको इतनी असुविधा हो रही है। बच्ची एक अच्छा, बड़ा मकान चाह रही है, तो क्या ग़लत कर रही है? कितनी शर्मिंदगी लगी होगी उसे अपने मेहमानों को इस तरह जमीन पर बैठा कर? मुझे अपनी भावनाओं पर काबू पाना होगा, मैं कल ही बात करूँगी श्यामा जी से।’


अगले दिन ट्यूशन वाले बच्चों को पढ़ाने के उपरान्त राधा श्यामा जी के पास पहुँची। कुछ देर की कश्मकश के बाद राधिका ने झिझकते हुए कहा- “जीजी, आपसे कुछ कहना था।”

“हाँ-हाँ, बोलो राधिका! मुझसे संकोच कैसा? बताओ क्या बात है?” -राधा ने उसकी झिझक मिटाने की गरज़ से पूछा। 

“जीजी, वो…वो…!”

“अरे, कुछ बोलोगी भी या यूँ ही ‘वो-वो’ करती रहोगी। बताओ, क्या बात है?”

“जी, मुझसे कहा नहीं जा रहा…वो…यह बात है कि… “

श्यामा जी सवालिया निगाहों से राधिका की ओर देखती रहीं। 

“वो…जीजी, नेहा के ऑफिस के काम के कारण दो कमरे कम पड़ रहे हैं।”

“मैं समझ सकती हूँ। पर, तुम्हें तो पता है राधिका, हमारे पास और कोई कमरा नहीं है।”

“जी, जी, इसीलिए अब यह मकान खाली करना हमारी मजबूरी बन रही है।”

श्यामा जी चौंक पड़ीं। वह राधिका और नेहा को एक तरह से अपने परिवार का ही हिस्सा मानती थीं। यह लोग जाना चाहते हैं, यह समझ पाना उनके लिए मुश्किल हो रहा था। डूबते स्वर में वह राधिका से बोलीं- “बहना, तुम दोनों को कभी अपने से अलग नहीं समझा मैंने, मगर तुम्हारी परेशानी समझ सकती हूँ। तुम लोग जाओगी, तो मुझे अच्छा तो नहीं लगेगा, लेकिन कब तक तुम्हें अपने से बांधे रख सकती हूँ। तुम लोगों की अपनी ज़रूरतें हैं। क्या तुमने नया मकान देख लिया है?”

“नेहा को सरकारी क़्वार्टर मिल रहा है।”

“ओह, यह तो बहुत अच्छा है। कब जाना चाहती हो तुम लोग?”

राधिका ने देखा, श्यामा जी की आवाज़ भरभरा गई थी, उनकी आँखों में आंसू थे। राधिका बेतहाशा रो पड़ी और श्यामा जी से लिपट गई। भावनाओं का ज्वार शांत हुआ तो राधिका सिसकते हुए बोली- “जीजी, सगी बहन होती तो भी शायद आप जैसा प्यार मुझे न दे पाती। कठिन समय में आपने जिस तरह से मुझे सहारा दिया था, उसे नहीं भूलूँगी, ऐसा कह कर आपके उपकार की महत्ता को कम नहीं करना चाहती। आपका मेरे लिए जीवन में जो स्थान है, हमेशा अद्वितीय रहेगा।”

“अच्छा-अच्छा पगली! अब चुप कर।” -स्नेहातिरेक से श्यामा जी का सम्बोधन ‘तुकारे’ पर आ गया था। उन्होंने राधा को अपने से पृथक किया और उसका माथा चूम लिया।  

“कब जा रही हो तुम लोग?” -श्यामा जी ने पुनः पूछा।

“अभी सूचित किया है आपको, तो नियमानुसार एक माह तो हमें यहाँ रहना ही होगा न जीजी!”

“तुम्हारे लिए ऐसी कोई बाध्यता हो सकती है भला? तुम लोग जब चाहो, जा सकते हो।” -श्यामा जी मुस्कुराईं।

राधिका ने श्यामा जी की ओर स्निग्ध दृष्टि से देखा। उस दृष्टि में कृतज्ञता का भाव था, गहन प्यार था। 


क़्वार्टर अलॉट होने की सरकारी औपचारिकता पूरी होने में एक सप्ताह लग गया। भारी मन लिए राधिका और नेहा ने श्यामा जी से विदाई ली और मिलते रहने का वादा कर के सामान के साथ अपने क़्वार्टर में आ गए। नेहा के कहने से अब राधिका ने ट्यूशन पढ़ाना बंद कर दिया। 


नेहा को जो क़्वार्टर मिला था, बहुत खुला-खुला था। उसके आस-पास चारों ओर हरियाली थी। सुबह-सुबह पक्षियों की चहचहाहट और ताज़गी भरी हवा राधिका को प्रसन्न कर देती थी। राधिका रोज़ शाम को अपने बरामदे में रखे पौधों को पानी देती और जब भी नेहा को फुर्सत होती, उसके साथ बैठकर फूलों की मोहक खुशबू मेम खो जाती। नेहा ने महसूस किया, पहले उसकी मम्मी कभी-कभी अचानक उदास हो जाती थी और उसकी उदासी लम्बे समय तक रहती थी। पूछने पर कोई कारण नहीं बता कर वह बात टाल देती थी। यहाँ आने के बाद प्राकृतिक वातावरण मिलने से वह अपेक्षाकृत खुश रहने लगी थी। नेहा खुश थी कि यहाँ क़्वार्टर में शिफ्ट होने का उसका निर्णय हर तरह से अच्छा रहा है। 

वह अपनी माँ से कहती, “माँ, यह जगह कितनी सुंदर है। आपकी मेहनत ने इन पौधों में जान डाल दी है। जब यहाँ आये थे, कितने निर्जीव-से हुआ करते थे यह।”

“हाँ बेटा, हरियाली मुझे बहुत सुकून देती है। पौधों की हरियाली और फूलों की महक ने मेरी ज़िन्दगी को और ताज़गी दी है।” -कुछ ऐसा ही जवाब राधिका दिया करती। 


राधिका यहाँ आ कर बहुत खुश थी, लेकिन उसे श्यामा जी की बहुत याद आती थी। कभी अकेले तो कभी नेहा के साथ माह-दो माह में एकाध बार वह उनसे मिलने अवश्य चली जाती थी। एक दिन ऐसे ही जब राधिका, श्यामा जी के घर से लौटीं, तो उन्होंने देखा, नेहा एक कुत्ते के मरियल से पिल्ले को मालिश कर के नहला रही है। 

“अरे-रे, यह क्या कर रही है? कहाँ से उठा लाई इसे?” -राधिका ने पूछा। 

“मम्मी, मैं ऑफिस से आई, तो आप घर पर नहीं थीं। सोचा, कॉलोनी की दूकान से कुछ साग-सब्ज़ी ले आऊँ। वहाँ से लौट रही थी, तो गली के मोड़ पर एक कोने में कचरे में पड़ा यह पिल्ला दिखाई दिया। गन्दगी में पड़ा था बेचारा, इसलिए नहला रही हूँ।” 

“अरे पर, मुझे तो यह बीमार लग रहा है। होम करते कभी-कभी हाथ भी जल जाते हैं बिटिया! कहीं तुझे कोई बीमारी न लग जाए। इससे तो अच्छा है, इसे यहाँ के पशु-चिकित्सालय में ले जा।”

“हाँ माँ, ऐसा ही करती हूँ फिर।” -नेहा को लगा, माँ शायद सही कह रही है। अगर कहीं यह पिल्ला बीमार ही है, तो पशु-चिकित्सालय ले जाना इसके हक़ में भी ठीक ही रहेगा।”

“चल, मैं भी चलती हूँ तेरे साथ।” -राधिका ने कहा। 

“नहीं मम्मा, आप श्यामा आंटी के वहाँ गई थीं न? थक गई होंगी आप, आराम करो। मैं कर आती हूँ यह काम।” -नेहा ने कहा और पिल्ले को एक थैले में रख कर स्कूटी से पशु-चिकित्सालय पहुँच गई। 


नेहा ने अस्पताल में डॉक्टर से मिल कर वहाँ भर्ती होने वाले पशुओं के सम्बन्ध में आवश्यक जानकारी जुटाई व पिल्ले के बारे में बताते हुए उसकी जांच करने की प्रार्थना की। जाँच से पता चला कि पिल्ले की हालत वाकई बहुत ख़राब है और उसे भर्ती करना पड़ेगा। उसने कहा कि पिल्ले के इलाज के लिए जो भी खर्च होता है, उसके भुगतान के लिए वह तैयार है, लेकिन वह अच्छा हो जाना चाहिए, तो डॉक्टर ने कहा- “मैडम, यह सरकारी अस्पताल है और यहाँ इलाज निशुल्क होता है। आप बेफिक्र रहें, हम पूरा ध्यान देंगे।” भर्ती करने की कार्यवाही करवा के उसकी ठीक से देखभाल का आग्रह कर वह यह कह कर वहाँ से लौटी कि दो-तीन दिनों में वह इसके स्वास्थ्य की प्रगति जानने के लिए आएगी। 

दो दिन बाद ऑफिस से आते वक्त नेहा पिल्ले के विषय में जानकारी लेने वापस  पशु-चिकित्सालय गई। उसे बताया गया कि पिल्ले को बचाया नहीं जा सका और आज सुबह ही वह मर गया है, तो वह परेशान हो उठी और शिकायत का भाव लिए डॉक्टर से मिली। 

डॉक्टर ने कहा- “मैडम, मैं आपकी परेशानी समझ सकता हूँ। आप सड़क पर पड़े पिल्ले को इलाज के लिए लाई थीं, इसलिए आपकी संवेदनशीलता के मद्देनज़र हमने इसे बचाने की पूरी कोशिश भी की, वरना तो सड़क पर कितने ही कुत्ते मर जाते हैं, किसको इलाज मिल पाता है।”

डॉक्टर के इस कथन से ही नेहा समझ गई कि पिल्ले के इलाज के लिए कितनी कोशिश की होगी इन लोगों ने। उदास मन लिए वह घर पहुँची। राधिका ने जाना, तो बोली- “नेहा, दुनिया ऐसी ही है। लोग ज़िन्दा इन्सान की फ़िक्र नहीं करते, लावारिस कुत्ते पर क्या ध्यान देंगे।” उसकी आवाज़ में गहरा दर्द था। 


अगले ही दिन, राधिका अचानक अस्वस्थ हो गई। शाम होते-होते उसे 101 डिग्री बुखार हो आया। नेहा ने तुरंत डॉक्टर को बुलाया। डॉक्टर ने राधिका की जाँच कर कहा, “तुम्हारी माँ को आराम की ज़रूरत है। शायद इन्हें कुछ मानसिक तनाव है। उसी से इन्हें बुखार आ गया है। इन्हें तनाव से बचना चाहिए। मैं दवा लिख रहा हूँ, बाज़ार से ले आना।”

नेहा ने चिंतित होकर कहा, “आप अपनी सेहत का ध्यान क्यों नहीं रखतीं? मैंने देखा था, दो-तीन दिन से कुछ परेशान थीं आप। किस बात की परेशानी है माँ? मुझे कुछ बतातीं क्यों नहीं?”

“बेटा, कुछ बात हो तो बताऊँ। मैं ठीक हूँ, तू चिंता मत कर। थोड़ा बुखार ही तो आया है।” -राधिका ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया। 

दो-तीन दिन दवा लेने से राधिका स्वस्थ हो गई। 

क़्वार्टर में आये तीन वर्ष हो गए थे। नेहा अब आर्थिक रूप से कुछ मज़बूत हो गई थी। उसने बैंक लोन की मदद से एक छोटी कार भी ले ली थी। राधिका को अब नेहा की शादी की चिंता सताने लगी थी । उसका अपना कोई नज़दीकी रिश्तेदार नहीं था कि किसी से मदद के लिए कहती। उसने नेहा से ही कहा- “बिटिया, अब तुझे शादी कर लेनी चाहिए। श्यामा जी से कुछ विशेष मदद मिल नहीं सकती, वरना उनसे बात करती। उनकी और अपनी जाति अलग है। और कोई मेरा जानकार है नहीं। आजकल तो ज़्यादातर शदियाँ मेट्रीमोनियल के जरिये ही होती हैं। तू ही किसी साइट पर मेरी तरफ से विज्ञापन डाल दे।”

“नहीं मम्मी, मेरा अभी शादी का कोई इरादा नहीं है। आप बिल्कुल टेंशन न लें।”

जब भी राधिका शादी की बात छेड़ती, नेहा यूँ ही टाल दिया करती। 

दो साल और गुज़र गए, पर नेहा टस से मस नहीं हुई। एक बार तो उसने साफ़ कह दिया- “मम्मा, मैं शादी नहीं करुँगी। मुझे आपके साथ ही रहना है।”

“ऐसा कभी होता है बिटिया? पता नहीं मैं कब तक हूँ? क्या हमेशा तेरे साथ रह सकूँगी?

“आप को कुछ नहीं होगा। हम हमेशा साथ रहेंगे।”

“अगर ऐसा है तो हम तेरी शादी के बाद भी तो साथ रह सकते हैं। शादी कर के क्या मुझे साथ नहीं रखना चाहेगी?” -राधिका ने मुस्कुरा कर कहा। 

“क्यों नहीं रहेंगे साथ? पर मुझे तो शादी करनी ही नहीं है न। और अब इस विषय में हम बात नहीं करेंगे। मैं अपने कमरे में जा रही हूँ, मुझे कुछ काम करना है।” -नेहा ने प्रत्युत्तर में कहा और उठ कर चली गई। 


एक सोमवार को, नेहा जब अपने ऑफिस जा रही थी, उसने एक वृद्ध व्यक्ति को लड़खड़ा कर सड़क पर गिरते देखा। उसके पास पहुँच कर उसने अपनी कार रोकी। घनी अधकचरी सफ़ेद दाढ़ी-मूँछों वाला वह व्यक्ति बहुत दुबला पतला और कमज़ोर लग रहा था, लेकिन शायद वह भिखारी नहीं था। तब तक एक और आदमी भी वहाँ आ गया था। उसकी मदद से उसने वृद्ध को उठा कर बिठाया। 

“शायद पी रखी है इसने।” -मददगार व्यक्ति ने टिप्पणी की। 

“आपने मदद की, उसके लिए शुक्रिया! मैं सम्हाल लूंगी इन्हें।” -नेहा ने उससे बहस करना अनुचित समझा। उसे वृद्ध पीये हुए कतई नहीं लग रहा था। वह व्यक्ति अजीब-सा मुँह बना कर चलता बना। एक हाथ से सहारा देते हुए नेहा ने वृद्ध से पूछा- “बाबा, ठीक तो हो? अचानक कैसे गिर गए?”

“बिटिया, दो दिन से कुछ खाया नहीं, कमज़ोरी के कारण गिर गया था।” -वृद्ध ने जवाब दिया। 

“आपका नाम क्या है?” -नेहा ने उससे पूछा।

 उस व्यक्ति ने क्षीण आवाज़ में जवाब दिया- “मैं बैरागी हूँ बेटा!”

नेहा ने अपने ऑफिस में अवकाश के लिए फोन कर दिया और वृद्ध को सहारा दे कर कार में पिछली सीट पर बिठाया और पास के एक रेस्तरां में ले गई। वहाँ उसे भरपेट भोजन कराया। वृद्ध में अब कुछ जान आ गई थी। रेस्तरां से बाहर आ कर उसने पूछा- “बाबा, अब ठीक हो न आप? आपको कहाँ छोड़ूँ?” 

   “बस यहीं छोड़ दो बिटिया।”

“कहाँ रहते हो आप? मैं वहीं छोड़े देती हूँ।”

वृद्ध ने कहा, “मेरा कोई ठिकाना नहीं है। मेरे बेटे ने मुझे घर से निकाल दिया। एक सेठ के यहाँ मिन्नत कर के तीन महीने से काम पर लगा था। वहाँ घर का छोटा-मोटा काम कर लेता था, जो वह बताते थे। उनके घर के बरामदे में सो जाता था। दो दिन पहले उन्होंने भी घर से निकाल दिया।”

“क्यों? -चौंक कर पूछा नेहा ने।”

“बेटा, सात-आठ दिन से बीमार था, तो कुछ काम नहीं कर पाता था। अब बिना कुछ काम किये कोई कब तक रोटी खिलाता, अपने यहाँ रखता, सो निकाल दिया।”

नेहा को उस व्यक्ति के प्रति दया हो आई। सावधानीवश उसने उससे पूछा- “बैरागी बाबा, आपको क्या बीमारी है?”

“कोई ख़ास नहीं। बस, कुछ दिनों से बुखार आता है, मिट जाता है, फिर आ जाता है। यूँ ही चल रहा है।”  

“बाबा, मैं आपको वृद्धाश्रम में ले चलती हूँ।”

“बेटा, सुना है, वृद्धाश्रम में कुछ पैसा जमा कराना पड़ता है। मेरे पास तो फूटी कौड़ी भी नहीं है।”

“हम्म, मुझे पता है।” वृद्ध की आँखें ख़ुशी से चमक उठीं। 

नेहा ने फोन कर राधिका को यह सब बताया और कहा कि वह इस बुज़ुर्ग वृद्धाश्रम ले जा रही है। 

राधिका ने कहा -”नेहा बिटिया, तूने उस आदमी को खाना-वाना खिलाया, ठीक है। लेकिन पता नहीं, कौन है, किस किस्म का आदमी है? हम क्यों पचड़े में पड़ें? दुनिया में ऐसे जाने कितने लोग होंगे। हम किस-किस की मदद करेंगे?”

“मम्मा, थोड़ा पैसा लगेगा, पर इस बेचारे को एक ठिकाना मिल जायगा। क्या कहती हो आप?” -नेहा ने माँ से प्रार्थना के स्वर में कहा। 

“ठीक है बेटा, जैसा तू चाहे। मेरी बात थोड़े न मानेगी। तू बहुत अच्छी है बिटिया!”

“आपकी बेटी हूँ। आपके साये में इतनी बड़ी हुई हूँ, तो ख़राब कैसे हो सकती हूँ।” -नेहा ने चहक कर कहा।  

नेहा ने नैट पर वृद्धाश्रम का फोन नंबर तलाश कर फोन लगाया और वहाँ की पूरी औपचारिकताओं की जानकारी ली। नेहा ने अपना क्रेडिट कार्ड अपने पर्स में टटोला और वृद्ध को कार में बैठने के लिए कह कर कार स्टार्ट की।   


नेहा ने वृद्धाश्रम की औपचारिकता पूरी कर निर्धारित शुल्क जमा करवा के बैरागी को वहाँ जगह दिलवा दी। कुछ हाथ-खर्च का पैसा भी उसने बैरागी को दे दिया। आश्रम के हॉल में भेजे जाते समय बैरागी अपने भाग्य पर चकित होता मूक बना नेहा की ओर देख रहा था। उसकी दृष्टि में नेहा के प्रति असीम कृतज्ञता का भाव था। सोच रहा था, ‘कितनी पुण्यात्मा होगी इसकी माता, जिसने इस देवी को जन्म दिया है।’

“आपकी क्या रिश्तेदारी है इन से? आपको रेफ़रेन्स के लिए आश्रम के इस रजिस्टर में अपना नाम लिख कर अपने हस्ताक्षर करने पड़ेंगे।” -वृद्धाश्रम के मैनेजर ने टेबल पर रखे रजिस्टर की तरफ इशारा कर के नेहा से कहा। वहाँ मौज़ूद दो आदमी उसकी तरफ उत्सुकता से देख रहे थे। 

“रिश्तेदारी तो नहीं है, पर लाइए, कर देती हूँ।” -नेहा ने रजिस्टर के कॉलम में आवश्यक खानापूर्ति कर दी। 

वह लौट कर कुछ कदम ही चली थी कि उसने किसी को कहते सुना, ‘अजी, बिना नज़दीकी रिश्तेदारी के कौन किसी के लिए यह सब यह सब करता है? लोग किसी अपने को अपने साथ रखना नहीं चाहते, तो यहाँ छोड़ जाते हैं।“ 

नेहा को इस प्रपञ्च पर क्रोध तो बहुत आया, किन्तु स्वयं पर काबू रख कर चुपचाप चली आई। 

राधिका को अंततः ख़ुशी अमुभव हुई कि उसकी बेटी ने एक बहुत ही नेक काम किया है। 


कुछ दिनों बाद, नेहा के पास वृद्धाश्रम से फोन आया। बैरागी की तबियत अचानक बिगड़ गई थी और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा था। नेहा तुरंत अस्पताल पहुँची। बैरागी से हाल-चाल पूछ कर उसने डॉक्टर से भी संपर्क कर के उसके सम्बन्ध में जानकारी ली। डॉक्टर ने बताया कि रोगी की आंत में सूजन है और उसका उपचार चल रहा है। कुछ समय वह बैरागी के पास बैठी रही। इस दौरान, बैरागी ने नेहा से अपने अतीत के बारे में बात की और बताया कि उसने अपनी पत्नी के साथ बहुत अन्याय किया था और अब उसे अपनी ग़लती का एहसास हो रहा है।

नेहा को यह सुनकर बहुत धक्का लगा, उसने पूछा, “आपने ऐसा क्यों किया था?”

बैरागी की आँखों में आँसू भर आये- “मुझे नहीं पता मैं क्यों इतना कठोर बन गया था।”

नेहा को बहुत बुरा लगा। उसने अधिक कुछ नहीं पूछा और वहाँ से निकल आई। 

नेहा ने घर पहुँच कर अपनी माँ को यह बात बताई। राधिका को यह जान कर दुःख तो हुआ, लेकिन फिर भी कुछ कठोरता से बोली- “इंसान को उसके कर्मों की सज़ा कभी न कभी मिलती ही है।” 

नेहा इतनी व्यथित हुई थी कि दुबारा अस्पताल नहीं गई। 


कुछ दिन बाद आश्रम से औपचारिक फोन आया कि बैरागी के स्वास्थ्य में कुछ सुधार होने पर उसे अस्पताल से वापस आश्रम में भेज दिया गया है।  


कुछ माह  ठीक से गुज़रे थे कि एक दिन फिर आश्रम से फोन आया- “बैरागी जी की हालत फिर बिगड़ गई है और उन्हें फिर से अस्पताल में भर्ती कराया है।”

नेहा को चिंता हुई। वह यह सुन कर अपने-आप को रोक न सकी और सुनते ही अस्पताल चली आई। बैरागी की हालत देखी, तो उसके प्रति उसका रोष कुछ कम हुआ। वहाँ मौजूद नर्स ने बताया कि मरीज की कुछ जांचें हो रही हैं। रिपोर्ट आने के बाद पता चल सकेगा कि मर्ज क्या है। नेहा अगले चार-पाँच दिन में ऑफिस से आते वक्त दो-एक बार बैरागी को देखने गई। अस्पताल सरकारी था, सो इलाज के लिए पैसा खर्च करने की ज़रुरत तो नहीं थी, लेकिन नेहा बैरागी के लिए कुछ फल, वगैरह अवश्य ले जाती थी। वह इस तरह से उसकी देखभाल कर रही थी, जैसे कि वह उसकी रिश्तेदार हो। पिल्ले वाली घटना के बाद अब वह कोई रिस्क लेना नहीं चाहती थी। इतने दिनों के सम्पर्क से उसे इस वृद्ध से लगाव हो चला था। वह उससे मिलने आती रही। डॉक्टर और अस्पताल का स्टाफ आश्चर्यचकित था कि वृद्धाश्रम से आये इस बेसहारा आदमी का यह लड़की इतना ध्यान रख रही है, क्योंकि बैरागी ने उन्हें बताया था कि यह बच्ची उसकी कुछ नहीं लगती, मात्र सेवा-भाव से उसका ख्याल रख रही है। 

अगले सप्ताह, एक दिन जब नेहा बैरागी से मिलने गई तो नर्स ने बताया कि बैरागी को आँत का कैंसर है, जो अपनी अंतिम अवस्था में है। नेहा काँप उठी। बैरागी ने रोते हुए उससे कहा, “बेटी, मैंने अपनी पत्नी के साथ बहुत ग़लत किया था। मैं अपने-आप को माफ़ नहीं कर पा रहा हूँ। लगता है, मुझे मेरे किये की सज़ा मिल रही है।”

नेहा की आँखों में आँसू आ गए। उसने बैरागी को खामोश रहने को कहा। जब वह घर लौटी, बहुत उदास थी। 

अस्पताल से आई बेटी को उदास देख कर राधिका आशंकित हो उठी, पूछा उससे- “बेटा, उस आदमी की तबीयत तो ठीक है न? तू इतनी उदास क्यों है?”

नेहा ने बताया-  “वह ठीक नहीं हैं माँ, उन्हें आँत  का कैंसर है।”

“ओह, मेरी तबियत ठीक हो जाए तो एक-दो दिन में मुझे भी अपने साथ ले चलना। बेचारे के साथ कल क्या हो, पता नहीं। एक बार मैं भी चल कर उसकी हालत पूछ लेती हूँ।”

अगले दिन नेहा ने अनायास ही राधिका से कहा- “मम्मी, आपने तो आजकल मेरी शादी की बात करना ही छोड़ दिया है।”

“अरे, शुक्र है कि देर से ही सही, तुझे यह बात सूझी तो!…लेकिन अचानक तुझे शादी का ख़याल कैसे आ गया?” -उल्लसित राधिका बोली। 

“मम्मा, सोचा मैंने। ईश्वर करे, आप की उम्र लम्बी हो और आप हमेशा मेरे साथ रहें, लेकिन दिमाग़ में एक बात आती है कि इन्सान का अकेला होना कितना तकलीफ़दायक होता है। अब बैरागी जी को ही लें। उनका कोई नहीं है। ईश्वर की कृपा से उस दिन सड़क पर मैंने उन्हें देख लिया था और देवयोग से अभी तक उनसे जुड़ी हुई भी हूँ। इसमें मैं मेंरा कोई उपकार नहीं मानती। मैं नहीं तो, भगवान और किसी को उनकी मदद के लिए भेज देता। लेकिन मम्मी, हर किसी को तो यूँ सहारा नहीं मिलता होगा न।”

“सही सोच है बिटिया। अब हम जल्दी ही तेरी शादी के लिए कुछ करते हैं।” -राधिका खुश थी कि अन्ततोगत्वा परमात्मा ने बेटी को समझ दी। 


आज नेहा को ऑफिस में अधिक काम नहीं था, सो जल्दी घर आ गई और राधिका को उनकी इच्छानुसार साथ ले कर अस्पताल पहुँची। 

अस्स्पताल के उस जनरल वॉर्ड में आज भीड़ काफी कम थी। 

बैरागी के बैड के पास पहुँच कर राधिका को इस तरफ पड़ी कुर्सी पर बैठने का इशारा कर नेहा ने बैरागी के चहरे की ओर दूसरी तरफ बैड पर ही बैठते हुए पूछा- ““क्या बात है बाबा? आज वॉर्ड में कई बैड खाली हैं।”

“हाँ बेटा, तीन-चार लोग स्वस्थ हो कर अपने घर चले गए हैं। मैं भी यहाँ ज़्यादा दिन का मेहमान नहीं हूँ, जल्दी ही मैं भी अपने घर चला जाऊँगा।” -कुछ गहरी आवाज़ में बैरागी ने कहा। 

“आपका घर?” -नेहा ने चकित हो कर पूछा। फिर बैरागी का आशय समझ कर खिन्न स्वर में बोली- “ऐसा न कहें बाबा! आप जल्दी ही ठीक हो जाओगे।”

“नहीं बेटा, अब  मैं जीना नहीं चाहता। वैसे भी मैं मरा हुआ ही हूँ, अपनी आत्मा पर बस एक लाश को ढ़ो रहा हूँ।”

राधिका खामोश बैठी सुन रही थी। 

“मेरी प्यारी मम्मी भी साथ आई हैं बाबा! उनकी तबीयत कुछ खराब चल रही है, इसलिए मैंने उनको उधर कुर्सी पर बिठाया है।” -नेहा ने बात बदली। 

“नमस्ते मैडम जी।” -बैरागी ने राधिका को सम्बोधित किया और फिर वापस नेहा से कहा- “बेटा, मुझसे तो करवट भी नहीं ली जा रही है।”

“नमस्ते बैरागी जी!... कोई बात नहीं। आप आराम करें।” -राधिका ने बैरागी को जवाब दिया। 

“मेरा मन बहुत डूबा-डूबा सा हो रहा है, बिटिया, शायद आखिरी समय आ गया है। तुमने मेरे लिए अब तक जो किया है, शायद मेरी सगी बेटी भी नहीं करती। सगी बेटी!…लेकिन बेटी तो मेरे भाग्य में थी ही कहाँ?...मैं तुमसे कुछ छिपाना नहीं चाहता। शायद तुम्हें अपने कुकर्मों के बारे में बता कर ही शांति से मर सकूंगा। मैं बहुत निकम्मा इंसान हूँ, बेटा! मेरा असली नाम बैरागी नहीं है। मेरे माँ-बाप ने मेरे कर्मों से उलट मेरा नाम रख दिया था, जबकि मैं धरती का एक नाकारा कंकड़ हूँ। मुझे अपने नाम से नफरत हो गई थी, इसलिए अपने-आप को बैरागी कहना शुरू कर दिया।”

बैरागी ने लम्बी सांस ली। नेहा अवाक् बैरागी की बातें सुन रही थी। उसने पूछा- “बाबा, फिर आपका नाम क्या है?”

राधिका की जिज्ञासा भी बढ़ रही थी। 

बैरागी ने अपनी ही रौ में बोलना जारी रखा- “मैंने अपनी देवी जैसी पत्नी को केवल इसलिए घर से निकाल दिया था कि वह लड़की को जन्म देने वाली थी। उफ्फ़, न जाने क्या बीती होगी उस पर। मुझे उसकी कोई खबर नहीं हुई कि वह कहाँ गई और जीवित भी है या नहीं। सच कहूँ तो मैंने उसके बारे में जानने की कभी कोशिश ही नहीं की। मुझे अफ़सोस है कि उससे माफ़ी मांगे बिना ही चला जाऊँगा।…इस कुकर्म के लिए मेरी माँ ने ही मुझे उकसाया था। वह भूल गई थी कि वह भी एक औरत है।…मैंने दूसरी शादी कर ली और उससे एक लड़का हुआ। मैं और मेरी माँ दोनों ने मान लिया कि हमने जन्नत हासिल कर ली है। समय गुज़रा और हमने बेटे की शादी भी करा दी। उसकी शादी के एक साल बाद मेरी माँ का देहान्त हो गया और दो-तीन साल बाद ही मेरी दूसरी पत्नी की भी पक्षाघात के कारण मौ…त हो…गई ”

बैरागी की आँखों से आँसू झर रहे थे, उसकी आवाज़ टूट रही थी- “उसी…उसी लड़के…ने मुझे…इस बुढ़ा…पे में…घर से नि…निका… ल… दि….या।  मैं… मैं…. स…”

बैरागी के मुँह से आवाज़ निकलनी बंद हो गई। 

राधिका जान गई कि वृद्ध का अंतिम समय आ गया है। उसकी कहानी सुन कर वह बेसाख़्ता अपनी जगह से उठी और बैड के दूसरी तरफ बैरागी के सामने की ओर नेहा के पास आ गई। बैरागी ने उसे देखा, उसकी आँखों में एक रौशनी कौंधी। उसने अपना चेहरा कुछ ऊपर उठाने की कोशिश की, लेकिन सिर बिस्तर पर लुढ़क गया। 

नेहा की आँखें भर आईं। एकबारगी उसे नहीं सूझा कि वह क्या करे। उसके मुख से केवल यह निकला- “बेचारे बाबा, अपना सही नाम भी नहीं बता सके।”

राधिका ने बैरागी को ध्यान से देखा। उसने पहचाना, यह उसका पति मोती लाल था। इस अजब संयोग ने उसे विचलित कर दिया। मोती लाल के शब्द उसके कानों में गूँजने लगे- ‘मेरे माँ-बाप ने मेरे कर्मों से उलट मेरा नाम रख दिया था, जबकि मैं धरती का एक नाकारा कंकड़ हूँ।’

नेहा की निगाहें माँ के चेहरे पर टिकी हुई थीं, लेकिन राधिका कुछ बोल कर उसे आभास नहीं होने देना चाहती थी कि उसके साथ क्या हुआ था। वह नहीं चाहती थी कि नेहा के समक्ष मोती लाल की पहचान उजागर हो और उसके निर्मल मन में पुरुष-समाज के प्रति किसी प्रकार की कटुता जागे। 


…राधिका अनायास ही अपने अतीत में खो गई। 

‘राधिका का बचपन अभावों में गुज़रा था। जब तीन वर्ष की थी, तभी उसकी माँ दुनिया छोड़ कर चली गई थी। पिता ने चंद दिनों में ही दूसरी शादी कर ली थी। पिता पूरी तरह से राधिका की नई माँ के वश में थे। सौतेली माँ राधिका के छः साल की होते-होते उससे घर का काम भी करवाने लगी थी। पिता और सौतेली माँ ने राधिका को आठ वर्ष की उम्र में स्कूल पढ़ने भेजा था और जैसे-तैसे कर के…रोते-पीटते उसे दसवीं तक पढ़ाया था। वह भी इसलिए कि उसकी जल्दी ही शादी करवाई जा सके, ताकि उनका यह बोझ कम हो सके। माता-पिता अधिक पैसा खर्च नहीं करना चाहते थे, इसलिए राधिका के लिए कोई ढंग का लड़का नहीं मिल रहा था। ऐसी सूरत में उसकी शादी उसकी उम्र से पन्द्रह-सोलह वर्ष अधिक उम्र के और कम पढ़े-लिखे मोती लाल से करवा दी गई। 

राधिका का पति मोती लाल, एक व्यापारी की दूकान पर काम करता था और सासू माँ कमला, एक अनपढ़ और रूढ़िवादी औरत थी। शादी के बाद के दो-तीन वर्ष राधिका के लिए बहुत अच्छे नहीं तो, ठीक-ठाक ही गुज़रे थे। अनमेल विवाह के बावज़ूद वह अपने रिश्ते को ठीक-से निभा रही थी।

फिर एक समय वह आया, जब राधिका ने मोती लाल से कहा- “सुनो, मुझे आप से कुछ कहना है।”

“हाँ, बोलो राधिका!” -मोती लाल ने मुस्कुराते हुए कहा। 

राधिका ने कहा, “आप पिता बनने वाले हो।”

यह सुनकर मोती लाल के चेहरे पर खुशी की जगह चिंता की लकीरें आ गईं। उसने कहा- “यह कैसे हो सकता है? अभी हम इस स्थिति में नहीं हैं कि एक बच्चे की जिम्मेदारी उठा सकें।”

राधिका ने कहा, “लेकिन यह हमारा बच्चा है। हमें खुश होना चाहिए। ईश्वर ने हमें बच्चा दिया है, तो उसके किये सारी व्यवस्था भी वही करेगा।”

मोती लाल ने कहा, “नहीं, हमें एबॉर्शन कराना होगा।”

राधिका ने दृढ़ता से इसका विरोध किया। उसने कहा, “मैं अपने बच्चे को जन्म दूंगी, चाहे इसके लिए हमें किसी भी कठिनाई का सामना क्यों न करना पड़े।”

राधिका की बात सुन मोती लाल नर्म पड़ा- “जैसी तुम्हारी इच्छा।”

कमला ने सुना तो उसे खुशी हुई कि घर में नया मेहमान आएगा। 

कुछ समय और गुज़रा। राधिका का गर्भ तीन माह का हो रहा था। कमला ने मोती लाल को सुझाया- “हमें लड़का चाहिए मोती, अगर लड़का नहीं हो कर लड़की हुई तो? हम जाँच तो करा लें।”

मोती लाल को यह बात ठीक लगी। अगले ही दिन वह राधिका को हॉस्पिटल ले गया। राधिका ने पूछा- “हम अभी अस्पताल क्यों जा रहे हैं?”

“हमें हर महीने जांच करानी चाहिए, ताकि किसी किस्म की दिक्कत न आये।”

जांच के बाद मोती लाल ने राधिका को बताया- “डॉक्टर साहब कह रहे थे, कोई चिंता की बात नहीं, सब ठीक है।”

राधिका बहुत खुश हुई, ‘कहाँ तो बच्चा चाहते ही नहीं थे और अब इन्हें इतनी चिंता हो रही है।’

मोती लाल ने माँ को अकेले में जानकारी दी कि राधिका लड़की को जन्म देगी, तो वह भड़क कर बोली- “नहीं, हमें लड़की नहीं चाहिए। उसका गर्भ गिरवा दो।”

“कैसे कहूँ उससे, वह मानने वाली नहीं।”

“अरे, उसे कुछ कहने की ज़रुरत ही क्या है? अगले महीने जाँच के बहाने ले जाना और चुपचाप काम करवा देना।”

“ऐसा करने पर उसे पता तो चल ही जायेगा। फिर क्या होगा?”

“अरे, डॉक्टर उसे बेहोश कर के काम करेगा न। बाद में पता चलेगा तो चलता रहे।” -कमला ने समझाया। 

अगले माह मोती लाल राधिका को एक प्राइवेट क्लिनिक में ले गया। 

“सुनो जी, आज हम अस्पताल नहीं जा कर यहाँ क्यों आये हैं?” -राधिका ने आश्चर्य से पूछा। 

“मेरे एक दोस्त ने बताया था कि सरकारी अस्पताल में जांच सही नहीं होती। प्राइवेट वाले पैसा तो लेते हैं, मगर जांच ठीक से करते हैं।” -मोती लाल ने समझाया। 

राधिका को जब ऑपरेशन टेबल पर लाया गया और नर्स को प्रारंभिक तैयारी करने के लिए कह कर डॉक्टर बाहर गया, तो नर्स ने, जो शायद नई ही थी, यह समझ कर कि यह काम राधिका की सहमति से ही हो रहा है, पूछा- “तुम्हारे कितने बच्चे हैं?”

“पहला ही बच्चा है यह। अभी शादी हुए आठ-नौ महीने ही तो हुए हैं।”

“फिर बच्ची का एबॉर्शन क्यों करवा रही हो?”

राधिका चौंकी, उछल कर ऑपरेशन टेबल पर बैठ गई, बोली- “क्या?, तुम्हें किसने कहा, मैं एबॉर्शन करवाना चाहती हूँ। दूर हटो।“

राधिका टेबल से नीचे उतर आई और फुर्ती से अपने कपड़े पहनना शुरू कर दिया। वह समझ गई कि पिछले महीने जाँच के बहाने उसका भ्रूण-परीक्षण करवाया गया था और लड़की है, यह जान कर उसका एबॉर्शन करवाया जा रहा था। 

घबराई हुई नर्स दौड़ कर बाहर आई और डॉक्टर को बुला कर लाई, तब तक राधिका ने अपने कपड़े पहन लिए थे। 

“अरे... अरे, आप यह क्या कर रही हो? खड़ी क्यों हो गईं? जाँच तो कर लेने दो।”

“मुझे नहीं करवानी जाँच।” -लगभग चीखते हुए राधिका ऑपरेशन रूम से बाहर निकली। उस की चीख सुन कर दो-तीन मरीज़ व क्लिनिक-स्टाफ के लोग उस तरफ आ गए। डॉक्टर नहीं चाहता था कि अन्य लोगों को मामले की भनक लगे, अतः लगभग भागते हुए वह प्रतीक्षालय में आया और वहाँ बैठे मोती लाल को सारा मामला बता कर कहा- “सॉरी, हमारी नर्स नई है, उसने सब गुड़-गोबर कर दिया।”

मोती लाल कुछ समझे, इसके पहले ही राधिका वहाँ आ गई और आक्रोश के साथ बोली- “तो इसलिए आप मुझे लाये थे यहाँ?” 

किंकर्तव्यविमूढ़ मोती लाल ने पहले डॉक्टर की तरफ देखा व फिर राधिका का हाथ पकड़ कर बोला- “चलो, घर चलो।”

रास्ते भर दोनों खामोश रहे। मोती लाल नहीं समझ पा रहे था कि हालत से कैसे निपटें। 

आहत राधिका घर पहुँचने पर किसी से नहीं बोली। उसका दिल टुकड़े-टुकड़े हो रहा था। आम-तौर पर संयमित रहने वाली राधिका ने अपना आक्रोश निकालने के लिए कमरे में रखी कुछ चीज़ें उठा कर इधर-उधर फेंकी। उधर मोती लाल अपनी माँ को सारी बात बता रहे था। दो दिन तक इस मामले पर सभी चुप्पी साधे रहे। गुस्से में भरी राधिका चुपचाप घर के काम करती रही। 

दो दिन बाद कमला ने राधिका को स्त्री-जीवन की विषमताओं का उल्लेख करते हुए उसे गर्भपात के लिए तैयार करने

का प्रयास किया, लेकिन राधिका ने उससे ही प्रश्न किया- “माँजी, आप मुझे यह बतायें कि यदि आपकी माँ ने आपको नहीं जना होता, तो क्या अभी हम तीनों यहाँ इकट्ठे मौज़ूद होते?” 

“बहस मत करो। तुम्हें हम जो कह रहे हैं, करना पड़ेगा।” -कमला की बजाय मोती लाल ने कुछ सख्ती से कहा।  

 राधिका उखड़ गई- “आप लोगों ने क्या समझ रखा है? आप मेरी बच्ची को मार डालना चाहते हो, पर मैं ऐसा नहीं होने दूँगी। 

कमला भी आपे से बाहर हो कर बोली- “अगर तुम हमारी बात नहीं मानती, तो इस घर में तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं है।” 

राधिका ने यह सोच कर कोई जवाब नहीं दिया कि दो-चार दिन में मामला शान्त हो जाएगा। अगले दिन रविवार था। राधिका ने देखा, सुबह से कमरे में बैठे दोनों माँ-बेटा काफी देर तक खुसर-फुसर कर रहे थे। कुछ ही देर में मोती लाल बाहर राधिका के पास आ कर गम्भीर स्वर में बोला- “तो तुम बच्चा गिराने को तैयार नहीं हो। क्या यह तुम्हारा आखिरी फैसला है?”

राधिका ने संक्षिप्त जवाब दिया- “हाँ।”

“फेंक दो इसका सामान और निकाल दो घर से बाहर।” -भीतर से कमला चिल्लाईं। …और सचमुच आधे ही घंटे में राधिका का सामान एक अटैची और थैले में ठूँस कर उसे दे दिया गया। मोती लाल ने दो सौ रुपये राधिका के हाथ में पकड़ाये और उसे घर से बाहर निकाल कर दरवाज़ा भीतर से बंद कर दिया। मानिनी राधिका ने कोई मिन्नत नहीं की और चुपचाप वहाँ से अपने अनजाने सफ़र के लिए निकल पड़ी। 


वह अब इस शहर में नहीं रहना चाहती थी। ऐसी जगह चले जाना चाहती थी, जहाँ इन लोगों से दुबारा सामना न हो। वह बस स्टैण्ड पर गई और जो भी बस रवाना होने वाली थी उसी में चढ़ गई। बस में बहुत भीड़ थी, अतः उसे खड़े ही रहना पड़ा। बड़ी मुश्किल से अपना सामान रखने के लिए बस की ऊपरी रैक पर थोड़ी जगह मिली। सड़क निर्माण विभाग मंत्री के वादों की ही तरह कच्ची सड़क पर पुरानी बस खड़खड़ करती चल रही थी, जिससे राधिका और कुछ अन्य लोगों को खड़े-खड़े सफ़र करने में बहुत परेशानी हो रही थी। कुछ देर बाद पीछे वाली सीट से एक युवक उठ कर आया और उसे अपनी सीट पर बैठने के लिए कहा। राधिका ने पहले तो ‘शुक्रिया’ कह कर मना किया, लेकिन उसके द्वारा आग्रह किये जाने पर वह बैठ गई। बस अपने आखिरी स्टॉप असीमपुर पर रुकी और राधिका किराया अदा कर उस अनजान शहर में अपना भविष्य तलाशने उतर गई। अपना सामान उठाये राधिका ने बस-स्टैण्ड की ही एक दूकान से जानकारी हासिल कर इस शहर की एक मध्यम दर्जे वाली बस्ती में किराये के मकान के लिए कुछ घरों में पूछताछ की, लेकिन बिना अग्रिम किराया लिये एक अजनबी औरत को मकान किराये पर देने को कोई राजी नहीं हुआ। निराश राधिका ने इस बार एक कहानी गढ़ी। वह अपने गुज़रे कल को दफ़न कर देना चाहती थी, ताकि कोई उसकी पिछली ज़िन्दगी और उसके पति के बारे में कुछ न जान सके। अंतिम प्रयास के रूप में उसने एक और मकान का दरवाज़ा खटखटाया। मकान मालकिन का नाम श्यामा देवी था। राधिका ने उनसे कहा- “मुझे एक कमरा चाहिए। क्या आपके यहाँ किराये पर देने के लिए एक कमरा है?”

 श्यामा देवी ने पूछा- “आप कहाँ रहती हो और आपके साथ कौन-कौन रहेगा?” 

राधिका ने जवाब दिया- “दीदी, मेरा नाम राधिका है। प्लीज़, मेरी कहानी ध्यान से सुनें। क्या आप समय देंगी मुझे?”

“हाँ-हाँ, बोलो।”

राधिका ने अपनी गढ़ी हुई कहानी सुनाई। “श्यामा जी एक सज्जन और दयालु महिला थीं। अंततः राधिका को वहाँ रहने का ठिकाना मिल गया।’ 


राधिका वर्तमान में लौटी, उसकी पलकें नम हो आई थीं। 

“मम्मी, आप कहाँ खो गई थीं? खड़े-खड़े आप थक गई होंगी। क्या सोच रही थीं आप?” -नेहा आश्चर्य से अभी तक माँ को देखे जा रही थी। 

राधिका ने स्वयं को संयत कर बात सम्हाली- “कुछ नहीं, सोच रही थी, ईश्वर कभी-कभी इंसान को कैसी गति देता है। बिटिया, तूने इस बैरागी को इसके आखिरी समय तक सहारा दिया है, सम्हाला है, तो क्यों न इस बेसहारा आदमी का अन्तिम संस्कार हम ही कर दें।”

“मम्मी, बहुत अच्छा सोचा है आपने। हम ऐसा ही करेंगे। मैं अस्पताल के मैनेजमेंट से बात कर के बैरागी बाबा की बॉडी ले लेती हूँ।”


राधिका और नेहा ने विधिवत रूप से बैरागी (मोती लाल) का अन्तिम संस्कार किया। मुखाग्नि राधिका ने नेहा के हाथ से ही दिलवाई। जलती चिता के सम्मुख खड़ी राधिका ने मन ही मन कहा- ‘देखो, आज तुम्हारी बेटी ने ही तुम्हारा अग्नि-संस्कार किया है।’ सजल-नेत्र राधिका ने मोती लाल को क्षमा कर दिया और प्रभु से उसकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की। यह काम हिन्दू-परम्परा के अनुसार राधिका ने करवाया, एक ऐसे व्यक्ति के लिए, जिसने अपने दाम्पत्य धर्म की पवित्रता को नष्ट किया था। और हाँ, नेहा कभी नहीं जान सकी कि बैरागी ही उसका पिता था। उसे बचपन से ही राधिका ने यही बताया था कि उसके पिता मोती लाल की मौत एक दुर्घटना में हो गई थी। 

कुछ माह के शोक-निवारण के उपरान्त मैट्रिमोनियल की सहायता से एक सुयोग्य डॉक्टर युवक से नेहा का विवाह करा के राधिका ने अपने एक और दायित्व का निर्वाह किया। 

बेटी के स्नेहपाश में बंधी राधिका नेहा के साथ ही रहती है और नेहा व उसका पति डॉ. सौहार्द भी उसे आत्मीय सम्मान देते हैं। राधिका ने मकान के एक कमरे में अपने रहने की पृथक व्यवस्था कर ली है। वह कुछ समय उनके साथ गुज़ारती है, तो शेष समय में कुछ अध्ययन, आदि में स्वयं को व्यस्त रखती है, ताकि वह अपनी पुत्री-दामाद के साथ तो रहे, लेकिन उनके दाम्पत्य जीवन की स्वतंत्रता में किसी प्रकार का व्यवधान न बने। 


एक वर्ष बाद:-

चिकित्सालय के प्रसूति-कक्ष के बाहर खड़ी राधिका बेचैनी से खुशखबरी की प्रतीक्षा कर रही थी। पास ही सौहार्द भी खड़े थे। तभी प्रसाविका नर्स मुस्कुराती हुई बाहर आई और बोली- “आप लोग लड़का चाहते हैं या लड़की?”

सौहार्द ने कहा- “लड़का।”

राधिका के मुँह से निकला- “लड़की।”

“बधाई दोनों को! नेहा जी ने जुड़वाँ बच्चों को जन्म दिया है- एक लड़का और एक लड़की।” -नर्स ने मुस्कुराते हुए कहा। 

प्रसन्नतातिरेक में राधिका का मुँह खुला का खुला रह गया। दोनों ने नर्स के हाथों को नोटों से भर दिया। 


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"ऐसा क्यों" (लघुकथा)

                                   “Mother’s day” के नाम से मनाये जा रहे इस पुनीत पर्व पर मेरी यह अति-लघु लघुकथा समर्पित है समस्त माताओं को और विशेष रूप से उन बालिकाओं को जो क्रूर हैवानों की हवस का शिकार हो कर कभी माँ नहीं बन पाईं, असमय ही काल-कवलित हो गईं। ‘ऐसा क्यों’ आकाश में उड़ रही दो चीलों में से एक जो भूख से बिलबिला रही थी, धरती पर पड़े मानव-शरीर के कुछ लोथड़ों को देख कर नीचे लपकी। उन लोथड़ों के निकट पहुँचने पर उन्हें छुए बिना ही वह वापस अपनी मित्र चील के पास आकाश में लौट आई। मित्र चील ने पूछा- “क्या हुआ,  तुमने कुछ खाया क्यों नहीं ?” “वह खाने योग्य नहीं था।”- पहली चील ने जवाब दिया। “ऐसा क्यों?” “मांस के वह लोथड़े किसी बलात्कारी के शरीर के थे।” -उस चील की आँखों में घृणा थी।              **********

तन्हाई (ग़ज़ल)

मेरी एक नई पेशकश दोस्तों --- मौसम बेरहम देखे, दरख्त फिर भी ज़िन्दा है, बदन इसका मगर कुछ खोखला हो गया है।   बहार  आएगी  कभी,  ये  भरोसा  नहीं  रहा, पतझड़ का आलम  बहुत लम्बा हो गया है।   रहनुमाई बागवां की, अब कुछ करे तो करे, सब्र  का  सिलसिला  बेइन्तहां  हो  गया  है।    या तो मैं हूँ, या फिर मेरी  ख़ामोशी  है यहाँ, सूना - सूना  सा  मेरा  जहां  हो  गया  है।  यूँ  तो उनकी  महफ़िल में  रौनक़ बहुत है, 'हृदयेश' लेकिन फिर भी तन्हा  हो गया है।                          *****  

दलित वर्ग - सामाजिक सोच व चेतना

     'दलित वर्ग एवं सामाजिक सोच'- संवेदनशील यह मुद्दा मेरे आज के आलेख का विषय है।  मेरा मानना है कि दलित वर्ग स्वयं अपनी ही मानसिकता से पीड़ित है। आरक्षण तथा अन्य सभी साधन- सुविधाओं का अपेक्षाकृत अधिक उपभोग कर रहा दलित वर्ग अब वंचित कहाँ रह गया है? हाँ, कतिपय राजनेता अवश्य उन्हें स्वार्थवश भ्रमित करते रहते हैं। जहाँ तक आरक्षण का प्रश्न है, कुछ बुद्धिजीवी दलित भी अब तो आरक्षण जैसी व्यवस्थाओं को अनुचित मानने लगे हैं। आरक्षण के विषय में कहा जा सकता है कि यह एक विवादग्रस्त बिन्दु है। लेकिन इस सम्बन्ध में दलित व सवर्ण समाज तथा राजनीतिज्ञ, यदि मिल-बैठ कर, निजी स्वार्थ से ऊपर उठ कर कुछ विवेकपूर्ण दृष्टि अपनाएँ तो सम्भवतः विकास में समानता की स्थिति आने तक चरणबद्ध तरीके से आरक्षण में कमी की जा कर अंततः उसे समाप्त किया जा सकता है।  दलित वर्ग एवं सवर्ण समाज, दोनों को ही अभी तक की अपनी संकीर्ण सोच के दायरे से बाहर निकलना होगा। सवर्णों में कोई अपराधी मनोवृत्ति का अथवा विक्षिप्त व्यक्ति ही दलितों के प्रति किसी तरह का भेद-भाव करता है। भेदभाव करने वाला व्यक्ति निश्चित रूप से धिक्कारा जाने व कठो