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अनमोल उपहार

आज तक समझ नहीं सका हूँ कि मात्र एक साल पहले जो प्राणी इस दुनिया में आया है, कभी रो कर, कभी चिल्ला कर, कभी हाथ-पैर पटक कर कैसे अपनी बात वह हम सब से मनवा लेता है? कैसे मान लेता है कि जिस घर में वह अवतरित हुआ है, उस पर उसका असीमित अधिकार है? अभी हाल ही उसका प्रथम जन्म-दिवस हम सब ने मनाया, तो यही प्रश्न मेरे मस्तिष्क में उभरे हैं। मैं बात कर रहा हूँ अपने एक वर्षीय दौहित्र (नाती) चि. अथर्व की। जब उसकी इच्छा होती है, मेरी बाँहों में आने को लपक पड़ता है और जब निकलने की इच्छा होती है तो लाख थामो उसे, दोनों हाथ ऊँचे कर इस तरह लटक जाता है कि सम्हालना मुश्किल पड़ जाता है। जब भी उसका मूड होता है, अपनी मम्मी या पापा, जिस किसी के भी पास वह हो, हाथ आगे बढ़ा कर मेरे पास आ जाता है और जब उसकी इच्छा नहीं होती, तो कितनी भी चिरौरी करूँ उसकी, चेहरा और हाथ दूसरी तरफ घुमा देता है... और मैं हूँ कि उसके द्वारा इस तरह बारम्बार की गई इंसल्ट को हर बार भूल जाता हूँ और उसे अपने सीने से लगाने को आतुर हो उठता हूँ।  जो भी शब्द वह बोलता है, मैंने विभिन्न शब्दकोशों में ढूंढने की कोशिश की, मगर निदान नहीं पा सका हूँ। बस, समझ

छलावा (कहानी)

  प्रवेश की सुगमता की दृष्टि से शहर का ‘गवर्नमेंट कॉलेज’ विद्यार्थियों की पहली पसंद था। समृद्ध पृष्ठभूमि की लड़की धर्मिष्ठा उस कॉलेज में फाइनल ईयर आर्ट्स में पढ़ती थी। पढाई में तो वह ठीक थी ही, सुन्दर भी बहुत थी। बोलती, तो लगता जैसे आवाज़ में मिश्री घुली हो। कॉलेज में सब के आकर्षण का केन्द्र थी वह। कई लड़के उसके दीवाने थे, किन्तु वह उन्हें घास भी नहीं डालती थी। मितभाषी लड़की मधुमिता उसकी विश्वसनीय सहेली थी जिससे वह अपनी हर बात साझा करती थी और सामान्यतः कॉलेज में उसके साथ ही रहती थी। मधुमिता के अलावा प्रायः चार-पाँच सहपाठियों के साथ ही वह मिलती-जुलती थी। इस तरह से बहुत ही छोटी मित्र-मंडली थी उसकी। उसके उन मित्र सहपाठियों में एक शर्मीला लड़का सोमेश भी था, जो पढ़ने में बहुत होशियार था। सुन्दर नहीं, तो बदसूरत भी नहीं कहा जा सकता था उसे। हाँ, एक सुगठित बदन व सौम्य स्वभाव का मालिक अवश्य था वह। कॉलेज में पढाई करते अच्छा वक्त गुज़र रहा था उन सब का।  एक दिन कॉलेज में क्लास ख़त्म होने के बाद सोमेश कॉलेज कम्पाउण्ड में पहुँचा ही था कि उसने अपने पीछे से आती एक सुरीली आवाज़ सुनी- “अकेले-अकेले कहाँ जा रहे हो,

बँटवारा (लघुकथा)

केशव अपने कार्यालय से थका-मांदा घर आया था। पत्नी अभी तक उसकी किटी पार्टी से नहीं लौटी थी। बच्चे भी घर पर नहीं थे। चाय पीने का बहुत मन था उसका, किन्तु हिम्मत नहीं हुई कि खुद चाय बना कर पी ले। मेज पर अपना मोबाइल रख कर वहाँ पड़ी एक पत्रिका उठा कर ड्रॉइंग रूम में ही आराम कुर्सी पर बैठ गया और बेमन से पत्रिका के पन्ने पलटने लगा। एक छोटी-सी कहानी पर उसकी नज़र पड़ी, तो उसे पढ़ने लगा। एक परिवार के छोटे-छोटे भाई-बहनों की कहानी थी वह। कुछ पंक्तियाँ पढ़ कर ही उसका मन भीग-सा गया। बचपन की स्मृतियाँ मस्तिष्क में उभरने लगीं।   'मैं और छोटा भाई माधव एक-दूसरे से कितना प्यार करते थे? कितनी ही बार आपस में झगड़ भी लेते थे, किन्तु किसी तीसरे की इतनी हिम्मत नहीं होती थी कि दोनों में से किसी के साथ चूँ भी कर जाए। दोनों भाई कभी आपस में एक-दूसरे के हिस्से की चीज़ में से कुछ भाग हथिया लेते तो कभी अपना हिस्सा भी ख़ुशी-ख़ुशी दे देते थे। ... और आज! आज हम एक-दूसरे को आँखों देखा नहीं सुहाते। दोनों की पत्नियों के आपसी झगड़ों से परिवार टूट गया। दो वर्ष हो गये, माधव पापा के साथ रहता है और मैं उनसे अलग। पापा के साथ काम करते रह