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मार्च, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

'उदयपुर- हमारा स्मार्ट शहर!

         आज तक नहीं समझ पाया हूँ कि हमारे शहर उदयपुर को 'स्मार्ट शहर' बनाने के लिए क्यों नामजद किया गया है! हमारा उदयपुर तो प्रारम्भ से ही स्मार्ट है। राज्य-प्रशासन या केन्द्रीय शासन को यहाँ की स्मार्टनैस दिखाई नहीं दी- यही आश्चर्य की बात है। यहाँ कौन सी चीज़ स्मार्ट नहीं है?... शहर स्मार्ट बनता है अपने विन्यास से, निवासियों की जीवन-शैली से। यहाँ के स्थानीय प्रशासन से अधिक स्मार्ट तो यहाँ की जनता है और जब जनता ज़रुरत से ज्यादा स्मार्ट है तो प्रशासन अपना सिर क्यों खपाए! आखिर प्रशासन के नुमाइन्दों को अपना समय निकालते हुए अपने अस्तित्व की रक्षा भी तो करनी है।  ... तो हमारे यहाँ की स्मार्टनैस की बानगी जो सभी शहरवासियों ने देख रखी है, वही फिर दिखाना चाहूँगा।     सर्वप्रथम यातायात-व्यवस्था की बात करें। यातायात के नियम यहाँ भी वही हैं जो सब शहरों में होते हैं। शहर में यातायात को माकूल रखने के लिए चौराहों पर कहीं-कहीं इक्का-दुक्का सिपाही तैनात हैं। यदि दो-तीन सिपाही एक ही जगह हैं तो उनका ज्यादातर समय आपस में बातचीत में गुज़रता है और यदि एक ही है तो कुछ एलर्ट रहकर आते-जाते वाहनों को द

डायरी के पन्नों से ..."बोलो वह कौन जुआरी है?"

       रीजनल कॉलेज ऑफ एजुकेशन, अजमेर में तृतीय वर्ष के अध्ययन के दौरान लिखी गई यह कविता भी स्नेही पाठकों को अवश्य पसंद आएगी, ऐसा मानता हूँ।      प्रिय पाठक-बंधुओं! प्रारम्भिक रूप से इस कविता के छः छन्द मैंने लिखे थे। कॉलेज के एक समारोह में मुझे कविता-पाठ करना था और मैं यह कविता पढने के लिए हॉल में पहली पंक्ति में बैठा अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहा था। तभी मेरी नज़र दायीं पंक्ति में बैठी मेरी एक जूनियर 'वसुधा टीके' पर पड़ी। इस समारोह में कुछ लड़कियां साड़ी पहन कर आई थीं, उनमें से एक वसुधा भी थी। वसुधा हरे रंग की साड़ी में बहुत सुन्दर लग रही थी। मेरे कवि-मन में शरारत के कीड़े कुलबुलाये और मैंने अपनी कविता में एक आशुरचित (तुरत रचा गया) छन्द और जोड़ दिया। नाम पुकारे जाने पर मैंने स्टेज पर जाकर यह कविता सुनाई।   अब मैं अकेला खुराफाती तो था नहीं कॉलेज में, सो वसुधा से जुड़ा छन्द आते ही आगे-पीछे के कई साथी छात्र-छात्राओं की ठहाका भरी निगाहें वसुधा पर जम गईं और वसुधा थी कि शर्म से पानी-पानी! सच मानिए, वसुधा फिर भी मुझ पर नाराज़ नहीं हुई, बहुत भली लड़की थी वह!   (नोट :- आशुरचित छन्द को गहरे

क्योंकि मैं नेता नहीं हूँ..

       मुझे कोई शर्मिंदगी नहीं है और न ही कोई गर्व यह स्वीकारते हुए कि मैं धर्मनिरपेक्ष नहीं हूँ। मुझे यह कहने में भी कतई गुरेज नहीं है कि मेरी दृष्टि में धर्मनिरपेक्ष कोई भी नहीं होता सिवाय राजनीतिज्ञों और आडम्बर का लबादा ओढ़े कतिपय बुद्धिजीवियों के। धर्मनिरपेक्षता वह चोला है जिसे गाहे-बगाहे पहन कर मौकापरस्त कोई भी व्यक्ति स्वयं को एक विशेष जाति के मानव-समूह में खड़ा कर लेता है। घिनौना हो गया है धर्मनिरपेक्षता का आज का स्वरूप!       मुझे गर्व है कि मैं एक हिन्दू हूँ और हिंदुत्व में गहन आस्था रखता हूँ, लेकिन किसी भी अन्य धर्म के प्रति हेय दृष्टि नहीं रखता। जैसे मेरे मन में अपने धर्म के प्रति श्रद्धा-भाव है, उसी तरह अपने-अपने  धर्म के प्रति श्रद्धा रखने का अधिकार हर धर्म के अनुयायी को है, ऐसी मेरी मान्यता है। मैं अपने हिन्दू -मन्दिर में अपने आराध्य देवी-देवता के सम्मुख शीश झुकाता हूँ, उन्हें  नमन करता हूँ।      मैं किसी भी अन्य धर्मावलम्बी के आराध्य के सम्मुख भी नतमस्तक होता हूँ, क्योंकि मैं मानता हूँ कि ईश्वरीय सत्ता को इंसान ने नाम भले ही अलग-अलग दे दिए हैं पर है वह एक ही शक्ति

शासन को बाध्य क्यों नहीं कर सकते?

         जिस समाचार की कटिंग को यहाँ संलग्न कर रहा हूँ क्या उसे आपने उसी सहजता से पढ़ा होगा या पढ़ सकेंगे जितनी सहजता से आप अन्य समाचार पढ़ लेते हैं ? दिन-प्रतिदिन ऐसे समाचार देख-पढ़कर मेरा दिल छलनी हो गया है। अलसुबह जब अखबार हाथ में आता है, परत खोलने से पहले मन आशंकित हो उठता है कि  पता नहीं आज फिर कौन सी ह्रदय-विदारक ख़बर सामने आएगी। देश का कोई भाग इस विभीषिका से अछूता नहीं है। अब तो हाल यह हो गया है कि कई लोगों की भ्रकुटियों पर रेखा तक नहीं उभरती होगी- 'भई, यह तो रोज की बात हो गई है'।     संलग्न समाचार में दरिन्दे ने उस नन्ही बालिका के कोमल शरीर को केवल आज के लिए ही क्षत-विक्षत नहीं किया, भविष्य के लिए

उनको समझना होगा...

    मेरा देश धनवान देशों में से नहीं है। यहाँ कई ऐसे गरीब लोग हैं जिन्हें रात को भूखे पेट सोना पड़ता है और उनमें से कुछ ऐसे भी होते हैं जो सोने के बाद कभी उठते ही नहीं। इस तथ्य को केवल उनके निकट सम्बन्धी ही नहीं जानते, हम सभी जानते हैं, देश का शासन भी जानता है। हम लोगों के पास उनके लिए सहानुभूति के चंद शब्द ही होते हैं, उनकी भूख का समाधान नहीं होता। कुछ बुद्धिजीवी मानवतावादी उनके लिए कुछ समय के लिए द्रवित भी हो लेते हैं, लेकिन सिर के एक झटके के साथ उन गरीबों की त्रासदी को उनकी नियति और प्रारब्ध से जोड़कर चिंता-मुक्त हो जाते हैं, क्योंकि समाधान उनके पास भी नहीं है।      तो जब जनता के एक तबके को जीने के लिए दो रोटी भी नसीब नहीं है, हमारे देश के कर्णधारों के लिए यह कहाँ तक उचित है कि प्रधानमंत्री के भाषण-मात्र के लिए एक सभा के आयोजन में 15 करोड़ रुपये फूँक दें! यह सभा झुन्झनूं में 8, मार्च को होने जा रही है।      धन की यह अन्धी बर्बादी रोकी जा सकती है।आज लगभग प्रत्येक घर में टीवी उपलब्ध है। एक सार्वजनिक घोषणा के द्वारा जनता को पूर्व-सूचना दी जा सकती है कि किस समय किस नेता की अमृत-वाणी प

डायरी के पन्नों से ..."एक प्रस्तुति और..."

            विगत माह की रचना ...      दो रुबाइयाँ  -                                                                         ***    ***    ***