आज तक नहीं समझ पाया हूँ कि हमारे शहर उदयपुर को 'स्मार्ट शहर' बनाने के लिए क्यों नामजद किया गया है! हमारा उदयपुर तो प्रारम्भ से ही स्मार्ट है। राज्य-प्रशासन या केन्द्रीय शासन को यहाँ की स्मार्टनैस दिखाई नहीं दी- यही आश्चर्य की बात है। यहाँ कौन सी चीज़ स्मार्ट नहीं है?... शहर स्मार्ट बनता है अपने विन्यास से, निवासियों की जीवन-शैली से। यहाँ के स्थानीय प्रशासन से अधिक स्मार्ट तो यहाँ की जनता है और जब जनता ज़रुरत से ज्यादा स्मार्ट है तो प्रशासन अपना सिर क्यों खपाए! आखिर प्रशासन के नुमाइन्दों को अपना समय निकालते हुए अपने अस्तित्व की रक्षा भी तो करनी है।
... तो हमारे यहाँ की स्मार्टनैस की बानगी जो सभी शहरवासियों ने देख रखी है, वही फिर दिखाना चाहूँगा।
सर्वप्रथम यातायात-व्यवस्था की बात करें। यातायात के नियम यहाँ भी वही हैं जो सब शहरों में होते हैं। शहर में यातायात को माकूल रखने के लिए चौराहों पर कहीं-कहीं इक्का-दुक्का सिपाही तैनात हैं। यदि दो-तीन सिपाही एक ही जगह हैं तो उनका ज्यादातर समय आपस में बातचीत में गुज़रता है और यदि एक ही है तो कुछ एलर्ट रहकर आते-जाते वाहनों को देखता रहता है और कभी-कभार सीटी बजा कर अपनी उपस्थिति दर्ज करा देता है। इसके अतिरिक्त वह करे भी तो क्या, वाहन-चालकों को अनुशासित ढंग से चलाने के लिए कोई व्यावहारिक शक्ति तो उसके पास है नहीं। जनता में से वह लोग जो स्मार्ट नहीं हैं या जो यातायात-सिपाही की वर्दी और क़ानून की कुछ इज्ज़त करते हैं, चौराहे की लाल लाइट पर रुकते हैं, सही दिशा में चलते हैं। अन्य स्मार्ट सूरमा उस सिपाही की उपस्थिति को ठेंगा बताते हुए यातायात-व्यवस्था को धत्ता बताने से गुरेज नहीं करते। कभी-कभार जब कोई फ्लाइंग स्क्वेड सड़क पर होती है तो अपने सबसे महत्वपूर्ण कार्य बिना हेल्मेट के वाहन-चालकों को पकड़ने में व्यस्त रहती है। शहर की व्यस्त सडकों पर बेतहाशा हॉर्न की चिंघाड़ के साथ 50 -60 km से ऊपर की रफ्तार से वाहन दौड़ाते स्मार्ट शोहदों का दिखना आम बात है।
क्षमता से अधिक भार वाली (overloaded) बसें भी यदा-कदा सड़कों से गुज़रती हुई देखी जा सकती हैं।
सड़कों पर बमुश्किल कहीं-कहीं फुटपाथ बने हुए हैं जो व्यवसाइयों के लिए सामान रखने का सुविधा-स्थल बने हुए हैं या फिर कई जगह उन पर कुछ लोगों के चाय या सब्जी के ठेले खड़े रहते हैं अथवा कैबिन बने हुए हैं।
शहर के व्यस्त बाज़ारों में भी जहाँ-तहां ठेला-व्यवसाइयों की भरमार देखने को मिलती है। कभी अगर उन्हें उनके स्थान से पुलिस द्वारा खदेड़ भी दिया जाता है तो कुछ देर के लिए वहाँ से ओझल होने के बाद पुनः इन स्मार्ट ठेले वालों को उनकी जगह पर जस-का-तस देखा जा सकता है। पुलिस भी करे तो क्या करे, इनमे से कुछ ठेला-धारक किसी-न-किसी राजनैतिक दल के आत्मीय जो होते हैं। पुलिस व नगर निगम इसी तरह से फुटपाथों को अवैध कब्जाए स्थायी-अस्थायी केबिन-धारकों के आगे भी बेबस हैं।
शहर की टूटी-फूटी सड़कों से सुरक्षित गुजर कर आने वाला व्यक्ति अवश्य ही स्मार्ट होता है जो घर पर सुरक्षित पहुँचने पर भगवान को प्रसाद चढ़ाता है।
परलोक में अच्छा स्थान आरक्षित कर लेने के इच्छुक हमारे शहर के धर्म-प्राण (?) व्यक्ति मवेशियों को खिलाने के लिए सड़क पर रजगा (घास) डलवाते हैं। वहाँ इकठ्ठा मवेशियों की भीड़ में से राह बनाकर कुछ स्मार्ट व्यक्ति ही आगे बढ़ पाते हैं।
यह सभी हालात बदस्तूर कायम हैं और हम सभी स्मार्ट शहरवासी उपरोक्त हालातों के बावजूद हँसते-हँसते जी रहे हैं, ज़िन्दा हैं।
तो फिर मित्रों, क्या ज़रुरत है शहर को और अधिक स्मार्ट बनाने के लिए पैसा फूंकने की?
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