सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

शासन को बाध्य क्यों नहीं कर सकते?

   

     जिस समाचार की कटिंग को यहाँ संलग्न कर रहा हूँ क्या उसे आपने उसी सहजता से पढ़ा होगा या पढ़ सकेंगे जितनी सहजता से आप अन्य समाचार पढ़ लेते हैं ? दिन-प्रतिदिन ऐसे समाचार देख-पढ़कर मेरा दिल छलनी हो गया है। अलसुबह जब अखबार हाथ में आता है, परत खोलने से पहले मन आशंकित हो उठता है कि  पता नहीं आज फिर कौन सी ह्रदय-विदारक ख़बर सामने आएगी। देश का कोई भाग इस विभीषिका से अछूता नहीं है। अब तो हाल यह हो गया है कि कई लोगों की भ्रकुटियों पर रेखा तक नहीं उभरती होगी- 'भई, यह तो रोज की बात हो गई है'।
    संलग्न समाचार में दरिन्दे ने उस नन्ही बालिका के कोमल शरीर को केवल आज के लिए ही क्षत-विक्षत नहीं किया, भविष्य के लिए
प्रकृति-प्रदत्त मातृत्व के अधिकार से भी उसे वंचित कर दिया है। उफ्फ! उसकी स्थिति को बयां करते मेरी लेखनी भी अवरुद्ध हो रही है।
    मानवीय मूल्यों में गिरावट का स्तर जिस सीमा तक पहुँच गया है, उसे देखते हुए इन पिशाचों की मानसिकता में कोई परिवर्तन देखने को मिलने वाला नहीं है लेकिन मेरी शिकायत समाज से है, आज की नई पीढ़ी से है। हम वेतन-वृद्धि और अन्य सुविधाओं के लिए हड़ताल कर सकते है, धरने दे सकते हैं। धर्मान्धता से प्रेरित हो कर जुलूस निकाल सकते हैं, प्रशासन का घेराव कर सकते हैं। एक राजनेता के इशारे पर सार्वजनिक संपत्ति की  तोड़फोड़ कर सकते हैं। कारण ढूंढ-ढूंढ कर सांप्रदायिक दंगे करके खून-खराबा कर सकते हैं।
    जब हम उचित-अनुचित उद्देश्यों के लिए वैधानिक-गैरवैधानिक हर  तरह की गतिविधियाँ कर सकते हैं तो पैशाचिक कृत्यों के लिए उत्तरदायी इन राक्षसों के लिए क्रूरतम दण्ड-विधान हेतु शासन को बाध्य क्यों नहीं कर सकते? ऐसी जघन्य वारदातों में कमी तभी आएगी जब तजवीज की जाय कि इन नराधमों को बांध कर बीच चौराहे पटक दिया जाय और उनकी मृत्यु होने तक जनता उन पर पत्थरों से प्रहार करे। आजीवन कैद या मृत्युदंड की सजा का वर्तमान कानूनी प्रावधान इनके लिए नाकाफ़ी है।

 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

तन्हाई (ग़ज़ल)

मेरी एक नई पेशकश दोस्तों --- मौसम बेरहम देखे, दरख्त फिर भी ज़िन्दा है, बदन इसका मगर कुछ खोखला हो गया है।   बहार  आएगी  कभी,  ये  भरोसा  नहीं  रहा, पतझड़ का आलम  बहुत लम्बा हो गया है।   रहनुमाई बागवां की, अब कुछ करे तो करे, सब्र  का  सिलसिला  बेइन्तहां  हो  गया  है।    या तो मैं हूँ, या फिर मेरी  ख़ामोशी  है यहाँ, सूना - सूना  सा  मेरा  जहां  हो  गया  है।  यूँ  तो उनकी  महफ़िल में  रौनक़ बहुत है, 'हृदयेश' लेकिन फिर भी तन्हा  हो गया है।                          *****  

बेटी (कहानी)

  “अरे राधिका, तुम अभी तक अपने घर नहीं गईं?” घर की बुज़ुर्ग महिला ने बरामदे में आ कर राधिका से पूछा। राधिका इस घर में झाड़ू-पौंछा व बर्तन मांजने का काम करती थी।  “जी माँजी, बस निकल ही रही हूँ। आज बर्तन कुछ ज़्यादा थे और सिर में दर्द भी हो रहा था, सो थोड़ी देर लग गई।” -राधिका ने अपने हाथ के आखिरी बर्तन को धो कर टोकरी में रखते हुए जवाब दिया।  “अरे, तो पहले क्यों नहीं बताया। मैं तुमसे कुछ ज़रूरी बर्तन ही मंजवा लेती। बाकी के बर्तन कल मंज जाते।” “कोई बात नहीं, अब तो काम हो ही गया है। जाती हूँ अब।”- राधिका खड़े हो कर अपने कपडे ठीक करते हुए बोली। अपने काम से राधिका ने इस परिवार के लोगों में अपनी अच्छी साख बना ली थी और बदले में उसे उनसे अच्छा बर्ताव मिल रहा था। इस घर में काम करने के अलावा वह प्राइमरी के कुछ बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाती थी। ट्यूशन पढ़ने बच्चे उसके घर आते थे और उनके आने का समय हो रहा था, अतः राधिका तेज़ क़दमों से घर की ओर चल दी। चार माह की गर्भवती राधिका असीमपुर की घनी बस्ती के एक मकान में छोटे-छोटे दो कमरों में किराये पर रहती थी। मकान-मालकिन श्यामा देवी एक धर्मप्राण, नेक महिल...

"ऐसा क्यों" (लघुकथा)

                                   “Mother’s day” के नाम से मनाये जा रहे इस पुनीत पर्व पर मेरी यह अति-लघु लघुकथा समर्पित है समस्त माताओं को और विशेष रूप से उन बालिकाओं को जो क्रूर हैवानों की हवस का शिकार हो कर कभी माँ नहीं बन पाईं, असमय ही काल-कवलित हो गईं। ‘ऐसा क्यों’ आकाश में उड़ रही दो चीलों में से एक जो भूख से बिलबिला रही थी, धरती पर पड़े मानव-शरीर के कुछ लोथड़ों को देख कर नीचे लपकी। उन लोथड़ों के निकट पहुँचने पर उन्हें छुए बिना ही वह वापस अपनी मित्र चील के पास आकाश में लौट आई। मित्र चील ने पूछा- “क्या हुआ,  तुमने कुछ खाया क्यों नहीं ?” “वह खाने योग्य नहीं था।”- पहली चील ने जवाब दिया। “ऐसा क्यों?” “मांस के वह लोथड़े किसी बलात्कारी के शरीर के थे।” -उस चील की आँखों में घृणा थी।              **********