Skip to main content

उनको समझना होगा...


    मेरा देश धनवान देशों में से नहीं है। यहाँ कई ऐसे गरीब लोग हैं जिन्हें रात को भूखे पेट सोना पड़ता है और उनमें से कुछ ऐसे भी होते हैं जो सोने के बाद कभी उठते ही नहीं। इस तथ्य को केवल उनके निकट सम्बन्धी ही नहीं जानते, हम सभी जानते हैं, देश का शासन भी जानता है। हम लोगों के पास उनके लिए
सहानुभूति के चंद शब्द ही होते हैं, उनकी भूख का समाधान नहीं होता। कुछ बुद्धिजीवी मानवतावादी उनके लिए कुछ समय के लिए द्रवित भी हो लेते हैं, लेकिन सिर के एक झटके के साथ उन गरीबों की त्रासदी को उनकी नियति और प्रारब्ध से जोड़कर चिंता-मुक्त हो जाते हैं, क्योंकि समाधान उनके पास भी नहीं है।
     तो जब जनता के एक तबके को जीने के लिए दो रोटी भी नसीब नहीं है, हमारे देश के कर्णधारों के लिए यह कहाँ तक उचित है कि प्रधानमंत्री के भाषण-मात्र के लिए एक सभा के आयोजन में 15 करोड़ रुपये फूँक दें! यह सभा झुन्झनूं में 8, मार्च को होने जा रही है।
     धन की यह अन्धी बर्बादी रोकी जा सकती है।आज लगभग प्रत्येक घर में टीवी उपलब्ध है। एक सार्वजनिक घोषणा के द्वारा जनता को पूर्व-सूचना दी जा सकती है कि किस समय किस नेता की अमृत-वाणी प्रसारित की जानी है। मेरी समझ से बस इतना करना यथेष्ट होगा।
     यह अवश्य है कि मेरे समझने से कुछ नहीं होगा, समझना उनको होगा जिन्हें समझना चाहिए।

   
   
         

Comments

Popular posts from this blog

बेटी (कहानी)

  “अरे राधिका, तुम अभी तक अपने घर नहीं गईं?” घर की बुज़ुर्ग महिला ने बरामदे में आ कर राधिका से पूछा। राधिका इस घर में झाड़ू-पौंछा व बर्तन मांजने का काम करती थी।  “जी माँजी, बस निकल ही रही हूँ। आज बर्तन कुछ ज़्यादा थे और सिर में दर्द भी हो रहा था, सो थोड़ी देर लग गई।” -राधिका ने अपने हाथ के आखिरी बर्तन को धो कर टोकरी में रखते हुए जवाब दिया।  “अरे, तो पहले क्यों नहीं बताया। मैं तुमसे कुछ ज़रूरी बर्तन ही मंजवा लेती। बाकी के बर्तन कल मंज जाते।” “कोई बात नहीं, अब तो काम हो ही गया है। जाती हूँ अब।”- राधिका खड़े हो कर अपने कपडे ठीक करते हुए बोली। अपने काम से राधिका ने इस परिवार के लोगों में अपनी अच्छी साख बना ली थी और बदले में उसे उनसे अच्छा बर्ताव मिल रहा था। इस घर में काम करने के अलावा वह प्राइमरी के कुछ बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाती थी। ट्यूशन पढ़ने बच्चे उसके घर आते थे और उनके आने का समय हो रहा था, अतः राधिका तेज़ क़दमों से घर की ओर चल दी। चार माह की गर्भवती राधिका असीमपुर की घनी बस्ती के एक मकान में छोटे-छोटे दो कमरों में किराये पर रहती थी। मकान-मालकिन श्यामा देवी एक धर्मप्राण, नेक महिल...

तन्हाई (ग़ज़ल)

मेरी एक नई पेशकश दोस्तों --- तन्हाई मौसम बेरहम देखे, दरख़्त फिर भी ज़िन्दा है, बदन इसका मगर कुछ खोखला हो गया है।   बहार आएगी कभी,  ये  भरोसा  नहीं  रहा, पतझड़ का आलम  बहुत लम्बा हो गया है।   रहनुमाई बागवां की, अब कुछ करे तो करे, सब्र  का  सिलसिला  बेइन्तहां  हो  गया  है।    या तो मैं हूँ, या फिर मेरी  ख़ामोशी  है यहाँ, सूना - सूना  सा   मेरा   जहां  हो  गया  है।  यूँ  तो उनकी  महफ़िल में  रौनक़ बहुत है, 'हृदयेश' लेकिन  फिर भी तन्हा  हो गया है।                          *****  

"ऐसा क्यों" (लघुकथा)

                                   “Mother’s day” के नाम से मनाये जा रहे इस पुनीत पर्व पर मेरी यह अति-लघु लघुकथा समर्पित है समस्त माताओं को और विशेष रूप से उन बालिकाओं को जो क्रूर हैवानों की हवस का शिकार हो कर कभी माँ नहीं बन पाईं, असमय ही काल-कवलित हो गईं। ‘ऐसा क्यों’ आकाश में उड़ रही दो चीलों में से एक जो भूख से बिलबिला रही थी, धरती पर पड़े मानव-शरीर के कुछ लोथड़ों को देख कर नीचे लपकी। उन लोथड़ों के निकट पहुँचने पर उन्हें छुए बिना ही वह वापस अपनी मित्र चील के पास आकाश में लौट आई। मित्र चील ने पूछा- “क्या हुआ,  तुमने कुछ खाया क्यों नहीं ?” “वह खाने योग्य नहीं था।”- पहली चील ने जवाब दिया। “ऐसा क्यों?” “मांस के वह लोथड़े किसी बलात्कारी के शरीर के थे।” -उस चील की आँखों में घृणा थी।              **********