सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

क्योंकि मैं नेता नहीं हूँ..

 
     मुझे कोई शर्मिंदगी नहीं है और न ही कोई गर्व यह स्वीकारते हुए कि मैं धर्मनिरपेक्ष नहीं हूँ। मुझे यह कहने में भी कतई गुरेज नहीं है कि मेरी दृष्टि में धर्मनिरपेक्ष कोई भी नहीं होता सिवाय राजनीतिज्ञों और आडम्बर का लबादा ओढ़े कतिपय बुद्धिजीवियों के। धर्मनिरपेक्षता वह चोला है जिसे गाहे-बगाहे पहन कर मौकापरस्त कोई भी व्यक्ति स्वयं को एक विशेष जाति के मानव-समूह में खड़ा कर लेता है। घिनौना हो गया है धर्मनिरपेक्षता का आज का स्वरूप!
 
    मुझे गर्व है कि मैं एक हिन्दू हूँ और हिंदुत्व में गहन आस्था रखता हूँ, लेकिन किसी भी अन्य धर्म के प्रति हेय दृष्टि नहीं रखता। जैसे मेरे मन में अपने धर्म के प्रति श्रद्धा-भाव है, उसी तरह अपने-अपने  धर्म के प्रति श्रद्धा रखने का अधिकार हर धर्म के अनुयायी को है, ऐसी मेरी मान्यता है। मैं अपने हिन्दू -मन्दिर में अपने आराध्य देवी-देवता के सम्मुख शीश झुकाता हूँ, उन्हें  नमन करता हूँ।

     मैं किसी भी अन्य धर्मावलम्बी के आराध्य के सम्मुख भी नतमस्तक होता हूँ, क्योंकि मैं मानता हूँ कि ईश्वरीय सत्ता को इंसान ने नाम भले ही अलग-अलग दे दिए हैं पर है वह एक ही शक्ति। मैं अन्य धर्मों की इज्ज़त करता हूँ, लेकिन मेरे धर्म की ओर कोई भी शख्स बेअदब निगाह डाले, कभी गवारा नहीं कर सकता। 
   
    मैं अपने पूजा-स्थल पर पुष्प चढ़ाता हूँ, धूप-दीप जलाता हूँ, लेकिन किसी मजार पर चादर चढाने नहीं जाता, किसी गिरजाघर में प्रार्थना करने नहीं जाता, क्योंकि मैं एक सामान्य हिन्दू हूँ, राजनेता नहीं हूँ। 
   
    अखबार की एक ख़बर के अनुसार अभी दो-तीन दिन पहले किसी नेता ने कहा था कि उसकी एक आँख हिन्दू है और दूसरी मुस्लिम, लेकिन मेरी तो दोनों ही आँखें शुद्ध रूप से हिन्दू हैं क्योंकि मैं नेता नहीं हूँ।
 
    अपने धर्म में पूर्ण आस्था और निष्ठा अवश्य रखता हूँ लेकिन इतना धर्मान्ध भी नहीं हूँ कि विधर्मी को इंसान ही न समझूँ। मेरा धर्म मुझे इंसानियत के दायरे में रहने की सीख देता है। धर्म के प्रति मेरा दर्शन सभी इंसानों के प्रति समभाव रखता है। 
 
    मेरा यह कथन, मेरे यह विचार अपरिवर्तनशील हैं, क्योंकि मैं नेता नहीं हूँ,.. मैं नेता नहीं हूँ।

                                                               *********

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

"ऐसा क्यों" (लघुकथा)

                                   “Mother’s day” के नाम से मनाये जा रहे इस पुनीत पर्व पर मेरी यह अति-लघु लघुकथा समर्पित है समस्त माताओं को और विशेष रूप से उन बालिकाओं को जो क्रूर हैवानों की हवस का शिकार हो कर कभी माँ नहीं बन पाईं, असमय ही काल-कवलित हो गईं। ‘ऐसा क्यों’ आकाश में उड़ रही दो चीलों में से एक जो भूख से बिलबिला रही थी, धरती पर पड़े मानव-शरीर के कुछ लोथड़ों को देख कर नीचे लपकी। उन लोथड़ों के निकट पहुँचने पर उन्हें छुए बिना ही वह वापस अपनी मित्र चील के पास आकाश में लौट आई। मित्र चील ने पूछा- “क्या हुआ,  तुमने कुछ खाया क्यों नहीं ?” “वह खाने योग्य नहीं था।”- पहली चील ने जवाब दिया। “ऐसा क्यों?” “मांस के वह लोथड़े किसी बलात्कारी के शरीर के थे।” -उस चील की आँखों में घृणा थी।              **********

व्यामोह (कहानी)

                                          (1) पहाड़ियों से घिरे हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में एक छोटा सा, खूबसूरत और मशहूर गांव है ' मलाणा ' । कहा जाता है कि दुनिया को सबसे पहला लोकतंत्र वहीं से मिला था। उस गाँव में दो बहनें, माया और विभा रहती थीं। अपने पिता को अपने बचपन में ही खो चुकी दोनों बहनों को माँ सुनीता ने बहुत लाड़-प्यार से पाला था। आर्थिक रूप से सक्षम परिवार की सदस्य होने के कारण दोनों बहनों को अभी तक किसी भी प्रकार के अभाव से रूबरू नहीं होना पड़ा था। । गाँव में दोनों बहनें सबके आकर्षण का केंद्र थीं। शान्त स्वभाव की अठारह वर्षीया माया अपनी अद्भुत सुंदरता और दीप्तिमान मुस्कान के लिए जानी जाती थी, जबकि माया से दो वर्ष छोटी, किसी भी चुनौती से पीछे नहीं हटने वाली विभा चंचलता का पर्याय थी। रात और दिन की तरह दोनों भिन्न थीं, लेकिन उनका बंधन अटूट था। जीवन्तता से भरी-पूरी माया की हँसी गाँव वालों के कानों में संगीत की तरह गूंजती थी। गाँव में सबकी चहेती युवतियाँ थीं वह दोनों। उनकी सर्वप्रियता इसलिए भी थी कि पढ़ने-लिखने में भी वह अपने सहपाठियों से दो कदम आगे रहती थीं।  इस छोटे

पुरानी हवेली (कहानी)

   जहाँ तक मुझे स्मरण है, यह मेरी चौथी भुतहा (हॉरर) कहानी है। भुतहा विषय मेरी रुचि के अनुकूल नहीं है, किन्तु एक पाठक-वर्ग की पसंद मुझे कभी-कभार इस ओर प्रेरित करती है। अतः उस विशेष पाठक-वर्ग की पसंद का सम्मान करते हुए मैं अपनी यह कहानी 'पुरानी हवेली' प्रस्तुत कर रहा हूँ। पुरानी हवेली                                                     मान्या रात को सोने का प्रयास कर रही थी कि उसकी दीदी चन्द्रकला उसके कमरे में आ कर पलंग पर उसके पास बैठ गई। चन्द्रकला अपनी छोटी बहन को बहुत प्यार करती थी और अक्सर रात को उसके सिरहाने के पास आ कर बैठ जाती थी। वह मान्या से कुछ देर बात करती, उसका सिर सहलाती और फिर उसे नींद आ जाने के बाद उठ कर चली जाती थी।  मान्या दक्षिण दिशा वाली सड़क के अन्तिम छोर पर स्थित पुरानी हवेली को देखना चाहती थी। ऐसी अफवाह थी कि इसमें भूतों का साया है। रात के वक्त उस हवेली के अंदर से आती अजीब आवाज़ों, टिमटिमाती रोशनी और चलती हुई आकृतियों की कहानियाँ उसने अपनी सहेली के मुँह से सुनी थीं। आज उसने अपनी दीदी से इसी बारे में बात की- “जीजी, उस हवेली का क्या रहस्य है? कई दिनों से सुन रह