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पुरानी हवेली (कहानी)

   जहाँ तक मुझे स्मरण है, यह मेरी चौथी भुतहा (हॉरर) कहानी है। भुतहा विषय मेरी रुचि के अनुकूल नहीं है, किन्तु एक पाठक-वर्ग की पसंद मुझे कभी-कभार इस ओर प्रेरित करती है। अतः उस विशेष पाठक-वर्ग की पसंद का सम्मान करते हुए मैं अपनी यह कहानी 'पुरानी हवेली' प्रस्तुत कर रहा हूँ। पुरानी हवेली                                                     मान्या रात को सोने का प्रयास कर रही थी कि उसकी दीदी चन्द्रकला उसके कमरे में आ कर पलंग पर उसके पास बैठ गई। चन्द्रकला अपनी छोटी बहन को बहुत प्यार करती थी और अक्सर रात को उसके सिरहाने के पास आ कर बैठ जाती थी। वह मान्या से कुछ देर बात करती, उसका सिर सहलाती और फिर उसे नींद आ जाने के बाद उठ कर चली जाती थी।  मान्या दक्षिण दिशा वाली सड़क के अन्तिम छोर पर स्थित पुरानी हवेली को देखना चाहती थी। ऐसी अफवाह थी कि इसमें भूतों का साया है। रात के वक्त उस हवेली के अंदर से आती अजीब आवाज़ों, टिमटिमाती रोशनी और चलती हुई आकृतियों की कहानियाँ उसने अपनी सहेली के मुँह से सुनी थीं। आज उसने अपनी दीदी से इसी बारे में बात की- “जीजी, उस हवेली का क्या रहस्य है? कई दिनों से सुन रह

भुतहा सड़क का रहस्य (कहानी)

                                                                                                                      अगस्त माह का प्रथम सप्ताह था। शहर में लॉक डाउन खत्म होने के बाद अचानक मिले एक प्राइवेट केस से निवृत होने के बाद प्राइवेट डिटेक्टिव रमेश रंजन शर्मा ने चैन की साँस ली थी। वह बुरी तरह उलझे हुए उस केस को सुलझाने के बाद तफ़री से अपना मूड ठीक करने के उद्देश्य से अपने मित्र आशुतोष खन्ना के यहाँ आया हुआ था। आशुतोष दूसरे शहर इंटोला में रहता था जो रमेश के अपने शहर विवेकपुर से क़रीब 205 कि.मी. की दूरी पर था। इंटोला प्रकृति की गोद में बसा एक खूबसूरत क़स्बा था। इंटोला के आस-पास की वादियों में भ्रमण और फिर अपने इस करीबी दोस्त का साथ पा कर तथा भाभी (मित्र की पत्नी) के हाथ की लज़्ज़तदार डिशेज़ खा कर रमेश का मन प्रफुल्लित हो गया था। यहाँ आये तीन दिन हो गए थे, सो आज वापस लौटने का उसका मन हो गया।   "अभी रात को क्यों निकल रहे हो यार, कल सुबह चले जाना।" -मित्र ने सलाह दी।  "नहीं दोस्त, अब मूड बन गया है तो निकल ही जाने दो।" -मुस्करा कर रमेश बोला।    वहाँ से विदा

'कमरा नं. 7' (कहानी)

बहुत आग्रह-मनुहार के बाद नीरव ने मेरी इच्छा पूरी करने के लिए पुष्कर जी जाने का कार्यक्रम बनाया। मनुहार कराने में उनकी भी ग़लती नहीं थी, उनका जॉब ही ऐसा था कि छुट्टियाँ बहुत मुश्किल से मिलती थीं। आज भी वह ऑफिस की ड्यूटी कर के आये थे। तीन दिन के सफर की पूरी तैयारी मैंने दिन में ही कर ली थी। एक सूटकेस और एक बैग में सारा सामान समा गया था। रात सवा आठ बजे की बस थी, सो हम साढ़े सात बजे घर से रवाना हो गये। विक्की तो घूमने जाने के नाम से कल से ही उछल रहा था।    बस में बहुत भीड़ थी, लोग ठसाठस भरे हुए थे। बस में ही पता चला कि ख्वाजा साहब का उर्स है, इसीलिए भीड़ ज़्यादा है। हमें तो इसका ध्यान ही नहीं रहा था। शुक्र है कि हमने अजमेर तक का रिज़र्वेशन करवा लिया था सो सीट तो मिल ही गई। इस रूट पर अभी निगम की कोई ए.सी. बस नहीं थी, अतः सामान्य बस का टिकट लेना हमारी मजबूरी थी। रात का वक्त था फिर भी गर्मी लग रही थी। गर्मी से हम तो परेशान थे ही, किन्तु विक्की का हाल बुरा था। मैं बार-बार उसे पानी का घूँट पिला रही थी। मोबाइल में डूबे नीरव कभी-कभी हमारी ओर देख लेते थे।     बस अपनी रफ़्तार से चलती चली जा