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'कमरा नं. 7' (कहानी)



बहुत आग्रह-मनुहार के बाद नीरव ने मेरी इच्छा पूरी करने के लिए पुष्कर जी जाने का कार्यक्रम बनाया। मनुहार कराने में उनकी भी ग़लती नहीं थी, उनका जॉब ही ऐसा था कि छुट्टियाँ बहुत मुश्किल से मिलती थीं। आज भी वह ऑफिस की ड्यूटी कर के आये थे। तीन दिन के सफर की पूरी तैयारी मैंने दिन में ही कर ली थी। एक सूटकेस और एक बैग में सारा सामान समा गया था। रात सवा आठ बजे की बस थी, सो हम साढ़े सात बजे घर से रवाना हो गये। विक्की तो घूमने जाने के नाम से कल से ही उछल रहा था।
   बस में बहुत भीड़ थी, लोग ठसाठस भरे हुए थे। बस में ही पता चला कि ख्वाजा साहब का उर्स है, इसीलिए भीड़ ज़्यादा है। हमें तो इसका ध्यान ही नहीं रहा था। शुक्र है कि हमने अजमेर तक का रिज़र्वेशन करवा लिया था सो सीट तो मिल ही गई। इस रूट पर अभी निगम की कोई ए.सी. बस नहीं थी, अतः सामान्य बस का टिकट लेना हमारी मजबूरी थी। रात का वक्त था फिर भी गर्मी लग रही थी। गर्मी से हम तो परेशान थे ही, किन्तु विक्की का हाल बुरा था। मैं बार-बार उसे पानी का घूँट पिला रही थी। मोबाइल में डूबे नीरव कभी-कभी हमारी ओर देख लेते थे।
  
 बस अपनी रफ़्तार से चलती चली जा रही थी। बस की खिड़की से आ रही हवा में अभी भी गर्माहट थी। खिड़की बंद करना भी संभव नहीं था क्योंकि बाहर से कुछ गरम ही सही, हवा के झौंके तो आ रहे थे। चाँदनी रात थी, किन्तु खिड़की से बाहर देखने की इच्छा ही नहीं हो रही थी। वर्षा में खिल उठने वाले सड़क किनारे के वृक्ष चाँद की मद्धम रोशनी में गर्मी की तपन के कारण उदास नज़र आ रहे थे। मैंने बाहर से नज़र हटा कर विक्की की ओर देखा, वह ऊँघने लगा था। नीरव मोबाइल में कोई वीडियो देखने में व्यस्त थे। मैंने विक्की को उसका सिर अपनी गोद में टिका कर सुला दिया और खुद सीट पर पीछे की ओर सिर टिका कर आराम करने लगी।
   नसीराबाद आने पर नीरव कुछ नाश्ता लाने बस से उतरे। कुछ चबैना लेकर तो चले थे, किन्तु वहाँ का कचोरा मशहूर है सो वह एक कचोरा ले कर आ गए। अभी अजमेर आने में लगभग पौन घंटा शेष था। बस फिर चल पड़ी। कचोरा काफी बड़ा था अतः हमारे थोड़ा बहुत खा लेने के बाद बचा हुआ भाग मैंने थैले में रख लिया। विक्की को थोड़ा तीखा लगा अतः उसे दो घूँट पानी पिलाया और पर्स से एक टॉफी निकाल कर दी।
  
 अजमेर पहुँचे तो रात के पौने ग्यारह हो रहे थे। हमने एक ऑटोरिक्शा किया और उसे किसी अच्छे होटल पर ले चलने को कहा। ऑटो वाले ने बताया कि आज तो किसी भी होटल में कमरा मिलने की संभावना नहीं के बराबर है, क्योंकि उर्स के कारण लगभग सभी होटल्स की बुकिंग फुल हो चुकी है।
  "अब क्या करेंगे रजनी? यह तो मुश्किल हो गई। हमें किसी होटल में पहले से ही कमरा बुक करा लेना चाहिए था।" -नीरव ने मुझसे कहा, फिर ऑटो वाले से कुछ प्रयास करने को कहा और उसके ऑटो में बैठ कर तीन-चार होटल हमने टटोले, लेकिन कहीं जगह नहीं मिली। बड़ी मुश्किल से एक धर्मशाला में कमरा मिला। कोई और चारा नहीं होने से हम वहीं ठहरे।
   धर्मशाला के मैनेजर ने एक कर्मचारी, जिसकी शर्ट की जेब पर ‘मदनलाल’ नाम अंकित था, को साथ भेज कर कमरा नं 7 खोल कर दिखवाया। कमरे में एक टेबल व दो पलंग रखे हुए थे। कमरे की छत पर एक पुराना पंखा लगा हुआ था, जिसे उसने स्विच ऑन कर चला दिया। हमारी स्वीकृति मिलने पर उसने पलंगों पर बिस्तर लगा दिये। नीरव ने सूटकेस दीवार के पास नीचे फर्श पर रख कर पानी की बोतल व बैग टेबल पर रख दिये।
    मैंने कमरे में सब तरफ नज़र डाली। कमरे में पीछे की ओर एक और दरवाज़ा भी था जो शायद दूसरे कमरे में खुलता होगा, लेकिन उस पर एक बड़ा ताला लगा हुआ था।
   नीरव उस कर्मचारी के साथ मैनेजर के ऑफिस में कमरे से सम्बन्धित फॉर्मेलिटीज पूरी करने को कह कर चले गए। मैं और विक्की पलंग पर बैठ गए। अब मैं कुछ सुकून महसूस कर रही थी। विक्की ने पीने के लिए पानी माँगा तो उसे पानी पिला कर थोड़ा पानी मैंने भी पीया और फिर हम दोनों बिस्तर पर लेट गए।
    वैसे तो सोते समय विक्की कोई कहानी सुनाने की ज़िद करता था पर आज सफर की थकान के चलते दो मिनट में ही उसे नींद आ गई। मुझे कुछ भूख का अहसास हो रहा था पर अब रात के बारह बजे कुछ खाने का कोई मतलब नहीं है, यह सोच कर मैं बिस्तर पर यथावत पड़ी रही।
   बिस्तर पर पड़े-पड़े ही कई विचार आते रहे। 'सुबह ही पुष्कर जी के लिए निकलना है, पता नहीं वहाँ भी कोई होटल मिलेगी या नहीं। पर नहीं, अजमेर में तो उर्स के कारण भीड़ है, पुष्कर जी में तो कोई समस्या नहीं ही होनी चाहिए।... नीरव को मैनेजर के पास गये पन्द्रह-बीस मिनट होने को आये हैं,अभी तक लौटे क्यों नहीं, इतना समय क्यों लग गया!' एक ओर तो मेरा दिमाग़ विचारों से जूझ रहा था, तो दूसरी ओर नींद के झौंके भी आ रहे थे।
   ... अनायास ही मुझे लगा जैसे पिछले दरवाज़े से कोई धीरे-धीरे मेरे नज़दीक आ रहा है, लेकिन शायद यह मेरा भ्रम था क्योंकि उस दरवाज़े पर तो ताला लगा था। फिर भी डर के मारे मैंने उधर देखा ही नहीं और जिस तरह बिल्ली को देख कर कबूतर अपनी आँखें बन्द कर लेता है, मैंने भी अपनी आँखें बन्द कर लीं।
   कुछ ही क्षणों में मैंने अपनी गर्दन पर दबाव महसूस किया, जैसे कोई मेरा गला दबा रहा है। मैं समझ गई कि यह भ्रम नहीं है। मैंने चिल्लाना चाहा पर मुँह से आवाज़ नहीं निकल सकी। मैंने अधखुली आँखों से देखा, उसका चेहरा भावशून्य था।... और उसी समय कमरे में अँधेरा हो गया। मैंने अपनी आँखें पूरी तरह से खोल दीं, लेकिन अब मुझे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। उसकी साँसों की तेज़ आवाज़ से मेरे कान के पर्दे फट रहे थे। मेरा पूरा बदन पसीने से नहा गया। मैंने पलंग से उठने की कोशिश की लेकिन उठ नहीं सकी।  
   कमरा अचनाक फिर से रोशन हो गया और नज़र आया फफोलों से भरा एक सफ़ेद चेहरा! फफोलों से मवाद-सा कुछ गाढ़ा-गाढ़ा तरल रिस रहा था। उसकी आँखों में अंगारे दहक रहे थे, भौंहें कानों को छू रही थीं और सिर के बाल गले से नीचे तक लटक रहे थे। उसके लम्बे बाल छोटे-बड़े गुच्छों में पेड़ की टहनियों के मानिन्द थे और उनसे पत्तियों जैसी कई शाखाएँ निकल रही थीं। उसके हाथों के बड़े-बड़े नाखून चाकू की तरह नुकीले थे। मैं भीतर तक सिहर उठी और अपनी आँखें फिर से बन्द कर लीं । अब वह अपना चेहरा मेरे चेहरे के इतना करीब ले आया था कि मैं उसकी साँसें अपने चेहरे पर महसूस कर रही थी। मेरे दिल की धड़कनें बेतहाशा बढ़ गई थीं, किन्तु आँखें खोलने का साहस मुझमें नहीं रहा था।
   मैं सोच रही थी कि वह दरिन्दा अब क्या करने जा रहा है कि उसने मेरी बाँह पकड़ कर मेरे पेट में अपने नाखून गड़ा दिये।
    मेरे मुँह से घुटी-घुटी सी चीख निकल पड़ी। मैंने महसूस किया, मेरे पेट से गरम-गरम खून निकल कर बाहर फैल रहा है। अब तो मरने ही वाली हूँ, यही सोचते मैंने अपनी आँखें खोलीं। मैंने देखा, नीरव पास वाले पलंग पर सो रहे थे और विक्की भी मेरी बगल में सो रहा था। सिर की तरफ देखा, तो वह खौफनाक इंसान अभी भी पलंग के पीछे खड़ा था। मैं तेज़ी से उठ खड़ी हुई व नीरव के पलंग के पास जा कर उसे झकझोरते हुए चिल्लाई- “नीरव...नीरव! मुझे इस राक्षस से बचाओ नीरव! यह मुझे मार डालेगा।"
   नीरव ने आँखें खोलीं और पलंग से उतर कर उस राक्षस की तरफ तेजी से लपके, लेकिन पता नहीं वह कहाँ गायब हो गया।
    “मुझे ऐसा लगा था जैसे कोई डरावना आदमी यहाँ खड़ा है, लेकिन यहाँ तो कोई नहीं हैं। शायद तुम्हारी तरह मुझे भी कुछ भ्रम हो गया था।”- नीरव बोले। 
  “वह अभी यहीं था नीरव! देखो, उसने मेरे पेट में अपने नाखून गड़ाये हैं, मेरे पेट से खून निकल रहा है।”- बोलते हुए मैं काँप रही थी।
  मेरे शरीर से निकल रहे खून को देख नीरव "ओ माय गॉड! तुम सही कह रही हो।" -कहते हुए मेरे पास आये। उन्होंने मुझे अपने पलंग पर लिटाया और सूटकेस से फर्स्ट ऐड बॉक्स निकाल कर मरहम-पट्टी की। दर्द के कारण मेरी आँखें बंद हो रही थीं। नीरव ने मुझे थपथपा कर सांत्वना दी।
"आखिर यह माज़रा क्या है? मैं मैनेजर को यह सब बता कर पाँच मिनट में आता हूँ। तुम अभी लेटी रहना।" -कह कर नीरव दरवाज़ा बाहर से बंद कर चले गये।
   मैं बुरी तरह से घबरा रही थी। मैनेजर क्या अभी ऑफिस में मिलेगा, क्या अभी वह कोई मदद कर सकेगा, सोच-सोच कर मैं परेशान थी।
  दस ही मिनट में कमरे का दरवाज़ा खुला और नीरव अन्दर आते हुए बोले- “कई बार आवाज़ लगाई, पर मैनेजर या तो ऑफिस में है ही नहीं या तो घोड़े बेच कर सो रहा है। अब सुबह ही…”
  नीरव बात पूरी नहीं कर सके, क्योंकि दरवाज़ा खुलने की आवाज़ सुन कर मेरी नज़र दरवाज़े की और गई और साथ ही विक्की के पलंग पर भी नज़र पड़ी तो मेरे होश उड़ गये, विक्की पलंग पर नहीं था। बदहवास-सी पलंग से उतर कर नीरव की बात काटते हुए मैं पागलों की तरह चीखी थी- “विक्की पलंग पर नहीं है नीरव, कहाँ गया वह?”
  नीरव ने भी घबरा कर विक्की के पलंग की ओर देखा व बोले- “अरे… ! अभी जब मैं बाहर निकला तो यहीं पर तो सो रहा था। कहाँ जा सकता है वह?”
  अब तो खामोश रह कर यहाँ रुकना संभव ही नहीं था। हम दरवाज़ा बंद कर, ताला लगा कर मैनेजर के ऑफिस की तरफ दौड़ पड़े। नीरव ने कई बार मैनेजर के कमरे की घंटी बजाई, ज़ोरों से दरवाजे को खटखटाया भी, लेकिन कोई बाहर नहीं आया। इतनी रात को इस अन्जान शहर में पुलिस-थाने में जाकर रिपोर्ट लिखाना भी आसान नहीं था। हार कर हम लोग वापस कमरे में लौटे कि सुबह थाने पर जायेंगे।
  कमरे में आकर हम दोनों एक ही पलंग पर सो गये। नीरव को तो नींद आ गई, किन्तु मुझे नींद कैसे आती, मेरा विक्की जो गायब था। कुछ देर ही हुई थी कि सरसराहट की आवाज़ सुनाई दी और मैंने उठ कर देखा, वही दरिन्दा फिर मेरे सिर की तरफ खड़ा था। इस बार मैं डरी नहीं, विक्की के बिछोह ने मुझमें कमजोरी के बजाय ताकत भर दी थी। मैं पलंग से उतर कर उस दैत्य की ओर बढ़ी तो उसने मेरी बांह पकड़ ली। उसका बीभत्स चेहरा देख कर मुझे डर लगा सो अपनी आँखें तो बंद कर ली, लेकिन उसका गला पकड़ कर चिल्ला कर बोली- “मेरा विक्की कहाँ है? बोल, मेरा विक्की कहाँ है?”
  अब तक खामोश रहा वह दैत्य घबरा कर घुटी-घुटी आवाज़ में बोला- "अरे मेरा गला छोड़ो। आँखें खोलो!... आँखें खोलो अपनी।"
  उसकी घबराई हुई आवाज़ से उत्साहित हो कर मैंने अपनी आँखें खोलीं तो देखा, मेरे पलंग के पास मेरी बाँह थामे, मुझ पर झुके, नीरव खड़े थे। मैंने दोनों हाथों से उनका गला पकड़ रखा था और वह गला छोड़ने की गुहार लगा कर मुझसे आँखें खोलने को कह रहे थे।
  नीरव का गला छोड़ कर भय से काँपते हुए मैं फौरन पलंग पर उठ बैठी और पुनः आँखें बन्द कर नीरव के हाथ से लिपट गई- “मुझे और विक्की को इस राक्षस से बचा लो नीरव! उसने मेरे पेट को अपने नाखूनों से फाड़ डाला है और विक्की को गायब कर दिया है। हमें थाने में रिपोर्ट दर्ज़ करानी है।”
"हो क्या गया है रजनी तुम्हें? क्या-क्या बोले जा रही हो? विक्की तो यहीं तुम्हारे पास सोया हुआ है। यहाँ कोई राक्षस-वाक्षस नहीं है। कितनी देर से तुम्हें आवाज़ लगाए जा रहा हूँ। शायद कोई बुरा सपना देख रही थीं तुम!” -नीरव ने मेरी पीठ सहलाते हुए कहा।
  मैंने आँखे खोल कर बगल में देखा, सच में ही विक्की मेरे पास सो रहा था। मैंने एक सुकून भरी लम्बी साँस ले कर अपना सिर नीरव के बदन पर टिका दिया।
  नीरव ने अपनी बात जारी रखी- “रजनी, एक हाथ से मैं तुम्हें जगाने की कोशिश कर रहा था और दूसरे हाथ में दूध का गिलास था। तुम दो-तीन बार हिली तो थोड़ा दूध तुम्हारे बदन पर छलक पड़ा। मैंने तुरंत दूध का गिलास टेबल पर रखा। इतनी गहरी नींद थी तुम्हारी कि तुम्हें जगाने की सारी कोशिश बेकार हो रही थी। पास ही बैठ कर कुछ देर तक तुम्हें देखता रहा। तुम्हारे चेहरे पर कई तरह के भाव आ-जा रहे थे। तुम निश्चित ही कोई सपना देख रही थीं। तुम्हारी बाँह पकड़ कर मैंने फिर तुम्हें जगाने की कोशिश की तो तुमने मेरा गला ही पकड़ लिया। मुझे तो तुमने डरा ही दिया था रजनी! अब आँखें खोलो और प्रकृतिस्थ हो जाओ। बताओ मुझे, क्या सपना देख लिया तुमने?" -एक साथ बोलते चले गये नीरव।
  मैंने अपने पेट पर हाथ रखा और ध्यान से देखा भी। पेट पर चिपचिपेपन का अहसास हुआ, किन्तु वहाँ खून नहीं था। शायद नीरव सही कह रहे हैं, यह दूध का ही चिपचिपापन था। तो क्या मैंने सपना देखा था? लेकिन मैंने तो जागते हुए सब कुछ देखा है, यह सपना कैसे हो सकता है? कैसे मान लूँ कि वह भयंकर दरिन्दा, जिसे मैंने देखा था, जिसने मेरा गला दबाया था, मेरे पेट में नाखून गड़ाए थे, वास्तव में ऐसा कुछ नहीं था? मैं डर के उसी अहसास से फिर सिहर उठी और पलंग से उतर कर नीरव से लिपट गई। नीरव ने मुझे कस कर अपनी बाँहों में जकड़ लिया।
"मुझे अपनी बाँहों में यूँ ही थामे रहो नीरव! मुझे एक पल के लिए भी अपने से अलग मत करना। मैं सच कह रही हूँ, वह मुझे मार डालेगा।"
  दो-तीन मिनट तक नीरव यूँ ही मुझे अपने आलिंगन में लिये खड़े रहे, फिर धीरे से मुझे अलग कर मेरी आँखों में देख कर कहा- "रजनी, यहाँ कोई भी नहीं है। तुमने सच ही में कोई बुरा सपना देखा है। चलो, थोड़ी देर लेट जाओ, फिर बात करते हैं। मैंने अब हिम्मत कर के कमरे में चारों ओर देखा। अब मैं कुछ सन्तुष्ट हुई, कमरे में हम तीनों के अलावा और कोई नहीं था। विक्की गहरी नींद सो रहा था।
  नीरव ने मुझे पलंग पर बिठाया और एक हाथ का सहारा दे कर लिटा दिया और खुद भी मेरे पास लेट गए। मैंने अपनी आँखें बन्द कर लीं। कुछ ही क्षणों में मैंने फिर अपने चेहरे पर गर्म श्वांस आती महसूस की। भयभीत होकर मैंने अपनी आँखें खोलीं, पर यह तो नीरव मुझ पर झुके हुए थे। मैंने आश्वस्त हो कर आँखें पुनः बन्द कर लीं। नीरव ने मेरे होठों को अपने होठों की गिरफ्त में ले लिया। पिछले आधे-पौन घंटे के डरावने लम्हों को जीने के बाद यह मादक स्पर्श दे कर नीरव मुझे सुकून भरी जन्नत में ले आये थे। मैं करवट लेकर बेतहाशा नीरव से लिपट गई तो नीरव ने मुझ पर अपनी पकड़ और मज़बूत कर ली। मदहोशी के इन स्वर्गिक पलों से मैं बाहर आना नहीं चाहती थी, लेकिन उसी समय विक्की ने कुछ बुदबुदा कर करवट बदली और हड़बड़ा कर मैंने स्वयं को नीरव की पकड़ से मुक्त कर लिया।
   नीरज कुछ असहज-से हुए, पर फिर पलंग से नीचे उतर कर टेबल पर रखा दूध का गिलास ला कर मुझे दिया और बोले- "विक्की तो सो रहा है, यह दूध अभी भी कुछ-कुछ गर्म है, पी लो इसे।"
   "नहीं, मेरा मन नहीं कर रहा नीरव, तुम ही पी लो।"- मैंने अपनी अनिच्छा जाहिर की। 
  "पी लो रजनी! तुम बहुत थकी-थकी लग रही हो, इसे पीने से कुछ ताज़गी महसूस करोगी।"
  मैंने बेमन से वह दूध जल्दी से गटक लिया। खाली गिलास मेरे हाथ से ले कर नीरव टेबल पर रखने लगे तो अनायास ही गिलास टेढ़ा रखने में आने से लुढ़कता हुआ ज़मीन पर आ गिरा और टूट गया। नीरव गिलास के टुकड़े फर्श से उठाने को झुके तो मैंने यह कह कर उन्हें रोक दिया कि सुबह किसी कर्मचारी को बुला कर हटवा लेंगे।
    नीरव वापस पलंग पर मेरे पास आकर बैठ गए और मेरे सिर पर बालों में उंगलियाँ घुमाते हुए स्नेहसिक्त स्वर में बोले- "हाँ रजनी, अब बताओ। तुमने क्या सपना देखा?
   मैं अब तक प्रकृतिस्थ हो गई थी। जो कुछ भी मैंने देखा था, महसूसा था, सब ज्यों का त्यों नीरव को एक कहानी की माफिक सुना दिया।
   नीरव शांति से सब सुनते रहे और अंत में कुछ क्षण खामोश रहने के बाद बोले- "अजीब था तुम्हारा सपना और डरावना भी। पर रजनी, अचानक तुम्हें ऐसा सपना आया कैसे? मैं जब मैनेजर के ऑफिस पहुँचा तो वह वॉशरूम में था। बाद में रजिस्टर में अपने यहाँ ठहरने के विवरण का दाखिला करने के बाद मेरी रिक्वेस्ट पर उसने दूध गरम करवाया। इस सब में मुझे आने में इतनी देर हो गई और तुम्हें ऐसे हालत से गुज़रना पड़ गया। चलो, जो भी हुआ, अब थोड़ी देर सो लेते हैं।"
   मैं डर रही थी कि फिर कहीं कोई ख़राब सपना न आ जाये, लेकिन अभी डेढ़ बज रहा है तो सोना तो पड़ेगा ही, यही सोच कर लाइट जलती रख कर विक्की के पास उसके पलंग पर सो गई। नीरव ने मेरे पास आ कर मुस्करा कर मेरे होठों और ललाट को चूमा और फिर अपने पलंग पर चले गए।
  
 सुबह छः बजे मेरी नींद खुल गई, शुक्र है कि इस बार कोई सपना नहीं आया। पलंग से नीचे उतर कर मैं टेबल से पानी की बोतल लेने के लिए आगे बढ़ी तो टूटे गिलास का एक बड़ा टुकड़ा पाँव में चुभा। मैंने फौरन उस पर से पाँव हटाया। यह तो ठीक था कि कांच का टुकड़ा अधिक पैना नहीं था सो खून नहीं निकला। मैंने पानी पीकर बोतल वापस टेबल पर रखी। नीरव या विक्की के पाँव में काँच का कोई टुकड़ा न धँस जाय, इस ख़याल से कांच के टुकड़ों को एक तरफ करने के लिए टेबल हटाई तो टेबल के पीछे कुछ इबारत लिखी देखी। पढ़ कर काँपते हुए  मैं दो कदम पीछे को हट गई। एक बार फिर पढ़ा, लिखा था - 'इस कमरे में भूत रहता है, यहाँ नहीं ठहरें।'
    मैंने नीरव को कुछ झिंझोड़ते हुए उठाया। नीरव हड़बड़ा कर उठ बैठे- "अब और क्या हो गया रजनी?"
 मैंने दीवार पर लिखी उस इबारत की ओर इशारा किया।
  इस बार चौंकने की बारी नीरव की थी। नीरव ने तुरन्त  कमरे के बाहर जाकर देखा, धर्मशाला का वही रात वाला कर्मचारी, मदन लाल बरामदे में सफाई कर रहा था। उन्होंने उसे फौरन मैनेजर को बुलाने को कहा।
    कुछ पाँच मिनट ही हुए होंगे कि मैनेजर हमारे कमरे में पहुँच गया। नीरव ने उसे मेरे स्वप्न का सारा वाक़या बताया और दिवार पर लिखी इबारत भी दिखाई तो उसने दृढ़ता से कहा- “ऐसी कोई भी बात मेरी जानकारी में आज तक नहीं आई है। यदि ऐसा कुछ भी होता तो हम यात्रियों को यह कमरा कभी देते ही नहीं। यह तो यूँ ही किसी खुराफाती व्यक्ति ने लिख दिया होगा और फिर सपनों का क्या है, वह तो उटपटांग आते रहते हैं। दरअसल...।”
  मैनेजर की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि अचानक विक्की के चीखने की आवाज़ आई। मैँ दौड़ कर विक्की के पास गई, वह काँपता हुआ अस्पष्ट आवाज़ में कुछ बड़बड़ा रहा था। मैंने सुनने-समझने की कोशिश की पर कुछ भी समझ नहीं सकी। उसको पलंग से खींच कर मैंने अपनी गोद में ले लिया। नीरव और मैनेजर भी हतप्रभ से हमारी ओर देख रहे थे।
  मैं धीरे-धीरे विक्की का सिर सहला रही थी। विक्की ने आँखें खोली और बुदबुदाता हुआ बोला- "मम्मी, वो बोत गन्दा आदमी था... बड़े-बड़े दाँतों वाला! वो आप को ऊपर उठा के नीचे फेंकने वाला था।" यह कह कर विक्की फिर मुझसे चिपक गया। मैंने नीरव की ओर देखा और नीरव ने अर्थपूर्ण दृष्टि से मैनेजर की ओर। मैनेजर समझ नहीं पा रहा था कि क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करे।
 नीरव ने कहा- "देख लिया मैनेजर साहब! आगे से किसी और को मत देना यह कमरा और हम भी अब यहाँ नहीं रह सकते।”
   किंकर्तव्यविमूढ़ मैनेजर कमरे से बाहर निकला, किन्तु तुरंत वापस आकर बोला- "नीरव साहब, मैं यह सब-कुछ पहली बार देख रहा हूँ, मुझे क्षमा करें। और कोई दूसरा कमरा खाली नहीं है, इसलिए आप लोग मेरे ऑफिस में आ जाइये।  प्रातःकर्म के बाद धर्मशाला छोड़ने तक आप लोग वहाँ रहिये। मैं आप लोगों के लिए चाय-नाश्ते की व्यवस्था करवाता हूँ।"

  मैनेजर के जाने के बाद जब हम लोग अपना सामान ले कर उसके ऑफिस की ओर जाने के लिए कमरे से बाहर निकले ही थे कि धर्मशाला का एक अन्य कर्मचारी, जिसकी शर्ट पर ‘चन्द्रवीर’ नाम अंकित था, हमारी तरफ आया और निकट आकर नीरव से बोला- "साहब, आप लोगों को कोई तकलीफ तो नहीं हुई? नींद तो अच्छे से आई न?”
  “हाँ-हाँ भाई, बहुत ही ज़्यादा अच्छी नींद आई।" -नीरव ने कुछ तल्खी भरी आवाज़ में कहा।
  "आप किस्मत वाले लोग हो साहब!" -इतना कहने के बाद अपने स्वर को धीमा करते हुए उसने अपनी बात आगे बढ़ाई- "एक राज़ की बात बताऊँ आपको? लगभग एक साल पहले की बात है, एक नया-नया शादीशुदा जोड़ा इस कमरे में ठहरा था। पत्नी का किसी और के साथ चक्कर था और यह बात उसका पति भी जानता था, लेकिन वह गम खा कर बैठा था। पत्नी को यह जबरदस्ती की शादी रास नहीं आ रही थी। यहाँ आये, उसी दिन रात को पत्नी ने अपने सोये हुए पति के गले में दुपट्टा डाल कर उसकी हत्या कर दी। दूसरे दिन उसका प्रेमी उसके पास आया और दोनों कहीं चले गये। उस दिन के बाद ..."
 "लेकिन तुम यह सब-कुछ कैसे जानते हो?" -नीरव ने उसकी बात काट कर पूछा।
 उसने नीरव के प्रश्न को नज़रअंदाज़ कर अपनी बात जारी रखी- "उस दिन के बाद से उस आदमी की आत्मा दिन भर तो इधर-उधर घूमती रहती है और रात को इस कमरे में आ जाती है। जो भी लोग इस कमरे में ठहरते हैं उनमें से औरत को वह आत्मा परेशान करती है क्योंकि औरत जात से उसे नफ़रत है।"
  "पर यह बताओ भाई कि जब तुम्हें यह सारी बात मालूम है तो तुम्हारे मैनेजर को भी मालूम होगी ही, फिर उन्होंने हमें इस कमरे में क्यों ठहराया?" -नीरव ने उससे दुबारा पूछा। 
 "यह तो पता नहीं साहब।" -कह कर वह गेलेरी के दूसरी ओर चला गया।


  हम लोग उसे जाते हुए देखते रहे और फिर मैनेजर के ऑफिस की ओर चल दिये। ऑफिस पहुँच कर नीरव ने मैनेजर को सारी बात बताई तो उसने कहा- "मैं यहाँ दो माह से ही नौकरी कर रहा हूँ, मुझे यह सब नहीं मालूम। मैं आया हूँ तब से तो ऐसी कोई घटना नहीं घटी यहाँ।"
   कर्मचारी, मदन लाल पास ही खड़ा यह सब बातें सुन रहा था। उसने नीरव से पूछा- "जिस आदमी ने आपको यह बातें बताई, उसका कुछ नाम बताया था अभी आपने। क्या नाम बताया था उसने अपना?"
"मैंने उसका नाम नहीं पूछा, पर उसकी शर्ट पर 'चंद्रवीर' लिखा था।"- नीरव ने बताया।
  मदन लाल के चेहरे पर भयमिश्रित आश्चर्य उभर आया। ठंडी आवाज़ में वह बोला- "ओह! इस नाम का कोई आदमी यहाँ काम नहीं करता। मैं यहाँ पिछले पाँच वर्षों से हूँ। हाँ, पिछले साल जिस आदमी की हत्या उस कमरे में हुई थी, उसका नाम चंद्रवीर ज़रूर था। उस घटना के बाद इस कमरे में कम ही लोग ठहरे हैं और जो भी ठहरे, एक दिन से ज़्यादा कोई भी उसमें नहीं रुका। पता नहीं क्यों, किसी ने कभी कोई शिकायत भी नहीं की। हे ईश्वर! यह क्या हो रहा है इस धर्मशाला में।" -सिर थाम कर वह नीचे फर्श पर बैठ गया।
  रात को जो कुछ मेरे साथ हुआ था, अब हमारी समझ में आ गया था। हमने चन्द्रवीर की आत्मा की शान्ति के लिए ईश्वर से प्रार्थना की। 

 लगभग एक घंटे में तैयार हो कर हम बीती रात की कड़वी यादों को भुलाने की नाकाम कोशिश करते हुए धर्मशाला से निकल गये अपने गंतव्य पुष्कर जी के लिए।


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                                   “Mother’s day” के नाम से मनाये जा रहे इस पुनीत पर्व पर मेरी यह अति-लघु लघुकथा समर्पित है समस्त माताओं को और विशेष रूप से उन बालिकाओं को जो क्रूर हैवानों की हवस का शिकार हो कर कभी माँ नहीं बन पाईं, असमय ही काल-कवलित हो गईं। ‘ऐसा क्यों’ आकाश में उड़ रही दो चीलों में से एक जो भूख से बिलबिला रही थी, धरती पर पड़े मानव-शरीर के कुछ लोथड़ों को देख कर नीचे लपकी। उन लोथड़ों के निकट पहुँचने पर उन्हें छुए बिना ही वह वापस अपनी मित्र चील के पास आकाश में लौट आई। मित्र चील ने पूछा- “क्या हुआ,  तुमने कुछ खाया क्यों नहीं ?” “वह खाने योग्य नहीं था।”- पहली चील ने जवाब दिया। “ऐसा क्यों?” “मांस के वह लोथड़े किसी बलात्कारी के शरीर के थे।” -उस चील की आँखों में घृणा थी।              **********

व्यामोह (कहानी)

                                          (1) पहाड़ियों से घिरे हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में एक छोटा सा, खूबसूरत और मशहूर गांव है ' मलाणा ' । कहा जाता है कि दुनिया को सबसे पहला लोकतंत्र वहीं से मिला था। उस गाँव में दो बहनें, माया और विभा रहती थीं। अपने पिता को अपने बचपन में ही खो चुकी दोनों बहनों को माँ सुनीता ने बहुत लाड़-प्यार से पाला था। आर्थिक रूप से सक्षम परिवार की सदस्य होने के कारण दोनों बहनों को अभी तक किसी भी प्रकार के अभाव से रूबरू नहीं होना पड़ा था। । गाँव में दोनों बहनें सबके आकर्षण का केंद्र थीं। शान्त स्वभाव की अठारह वर्षीया माया अपनी अद्भुत सुंदरता और दीप्तिमान मुस्कान के लिए जानी जाती थी, जबकि माया से दो वर्ष छोटी, किसी भी चुनौती से पीछे नहीं हटने वाली विभा चंचलता का पर्याय थी। रात और दिन की तरह दोनों भिन्न थीं, लेकिन उनका बंधन अटूट था। जीवन्तता से भरी-पूरी माया की हँसी गाँव वालों के कानों में संगीत की तरह गूंजती थी। गाँव में सबकी चहेती युवतियाँ थीं वह दोनों। उनकी सर्वप्रियता इसलिए भी थी कि पढ़ने-लिखने में भी वह अपने सहपाठियों से दो कदम आगे रहती थीं।  इस छोटे

पुरानी हवेली (कहानी)

   जहाँ तक मुझे स्मरण है, यह मेरी चौथी भुतहा (हॉरर) कहानी है। भुतहा विषय मेरी रुचि के अनुकूल नहीं है, किन्तु एक पाठक-वर्ग की पसंद मुझे कभी-कभार इस ओर प्रेरित करती है। अतः उस विशेष पाठक-वर्ग की पसंद का सम्मान करते हुए मैं अपनी यह कहानी 'पुरानी हवेली' प्रस्तुत कर रहा हूँ। पुरानी हवेली                                                     मान्या रात को सोने का प्रयास कर रही थी कि उसकी दीदी चन्द्रकला उसके कमरे में आ कर पलंग पर उसके पास बैठ गई। चन्द्रकला अपनी छोटी बहन को बहुत प्यार करती थी और अक्सर रात को उसके सिरहाने के पास आ कर बैठ जाती थी। वह मान्या से कुछ देर बात करती, उसका सिर सहलाती और फिर उसे नींद आ जाने के बाद उठ कर चली जाती थी।  मान्या दक्षिण दिशा वाली सड़क के अन्तिम छोर पर स्थित पुरानी हवेली को देखना चाहती थी। ऐसी अफवाह थी कि इसमें भूतों का साया है। रात के वक्त उस हवेली के अंदर से आती अजीब आवाज़ों, टिमटिमाती रोशनी और चलती हुई आकृतियों की कहानियाँ उसने अपनी सहेली के मुँह से सुनी थीं। आज उसने अपनी दीदी से इसी बारे में बात की- “जीजी, उस हवेली का क्या रहस्य है? कई दिनों से सुन रह