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'प्रायश्चित' (लघुकथा)

 नमन करता हूँ मैं मेरी इस कहानी के वन्दनीय पात्र को और इसके जैसे सभी महामनाओं को!    

   



 पेंशनर चपरासी छगन लाल का उन्नीस वर्षीय बेटा मोहन आज फिर बैंक में बैंक-कर्मी शर्मा जी के सामने था। वह रो रहा था और आक्रोश में भी था- " एक्सीडेंट हो जाने से मेरे बापू जीवित प्रमाण-पत्र देने के लिए यहाँ आ नहीं सकते थे। 'बैंक में आ कर हस्ताक्षर करने पड़ते हैं' , यह कह कर कल आपने मेरे बापू के हस्ताक्षर हॉस्पिटल में करवाने के लिए जीवित प्रमाण-पत्र का फॉर्म नहीं दिया। उनकी पेंशन नहीं मिलने से हम दवाइयाँ नहीं ला सके। मेरे बापू दवा नहीं मिलने से आज सुबह मर गये बाबूजी! नेता,अफसर, व्यापारी, सब के सब कानून जेब में रखते हैं और आप हम गरीबों पर नियम-कानून लगाते हो। बापू तो गये ही, हम बेसहारा हो गए, पैसे-पैसे को मोहताज़ हो गए। अगर आपने बापू से अंगूठा लगवाने के लिए कल मुझे फॉर्म दे दिया होता तो वह बच जाते और नहीं भी बचते तो कम से कम हमारी एक साल की आमद का जुगाड़ तो हो जाता।"


शर्मा जी हतप्रभ थे। अपने मन का गुबार निकालने आया मोहन रोता-रोता धीमे कदमों से बैंक से निकल गया।     

मोहन घर पहुँचा, तो पास-पड़ोस के कुछ लोग इकठ्ठा होना शुरु हो गए थे। वह अपने रिश्तेदारों को फोन से पिता की मौत की सूचना देने में व्यस्त हो गया। कुछ ही देर में दरवाज़े पर किसी ने पुकारा- "मोहन बेटा!"

मोहन ने दरवाज़े की तरफ देखा, वही बैंक वाले शर्मा जी थे। मोहन ने वितृष्णा से मुँह फेर लिया। शर्मा जी ने पास आ कर भरे गले से पूछा- "छगन जी की बॉडी कहाँ है, मैं उनसे माफ़ी मांगने आया हूँ।"

मोहन ने कोई जवाब नहीं दिया, किन्तु पास ही बैठे एक व्यक्ति ने  भीतरी बरामदे की ओर इशारा किया। शर्मा जी भीतर गए और छगन लाल की लाश के पास बैठी दो महिलाओं से दो मिनट के लिए बाहर जाने की प्रार्थना की। महिलाएँ विस्मय से उन्हें देखती हुई बाहर निकल गईं।

एक पल को मोहन के मन में विचार आया कि वह शर्मा जी को बाहर निकलने को कह दे, लेकिन घर आये व्यक्ति का अपमान न करने के ख़याल से उसने स्वयं को रोक लिया।  


... शर्मा जी बाहर आये तो उनकी आँखों में आंसू थे, रुँधे स्वर में मोहन से बोले- "बेटा, कल बैंक के नियम के कारण तुम्हारी मदद नहीं कर सका था। अब तुम बैंक में आकर बापू की पेंशन ले लेना।"


बाहर निकल रहे शर्मा जी जान रहे थे कि क़ानून की नज़रों में उन्होंने गुनाह किया है, किन्तु उन्हें इस बात का संतोष था कि एक गरीब परिवार को इससे कुछ राहत मिल गई है। इधर मोहन मन ही मन सोच रहा था कि शर्मा जी ने यह फिज़ूल का नाटक किसको बताने के लिए किया है। 


कुछ ही देर में कुछ करीबी रिश्तेदार आ गये। मोहन को छगन लाल की बॉडी को परम्परा के अनुसार नहलाने के लिए कहा गया। उसने अपने बापू को नहलाते समय देखा, उनके बायें हाथ के अंगूठे पर स्याही लगी हुई थी।

                                                 

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