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'और कोहरा छँट गया' (कहानी)

                                                                                                  


   "तुम खुद को समझती क्या हो वैभवी? क्या तुम्हें नहीं पता कि कितनी लड़कियाँ मुझ पर जान छिड़कती हैं? एहसान मानो कि तुम्हें मैंने इतनी तवज़्ज़ो दी और अपने प्यार के काबिल समझा। अरे, प्यार तो क्या, तुम तो मेरी दोस्ती के लायक भी नहीं हो।"
   "मैं तुम्हारे उस एहसान को कभी नहीं भूलूँगी श्रीकान्त! मैं वास्तव में तुम्हारी दोस्ती के लायक भी नहीं हूँ और इसीलिए आज से मैं तुम्हारी सारी रिलेशनशिप से स्वयं को मुक्त करती हूँ। भूल जाऊँगी मैं तुम्हें और तुम्हारी
दोस्ती को, एक बुरा ख्वाब मान कर।... गुड बाय!"- आहत वैभवी ने श्रीकान्त की आँखों में आँखें डाल कर गम्भीर स्वरों में उत्तर दिया व श्रीकांत की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा न कर अपनी क्लास की ओर चल दी।
"हाँ-हाँ, गुड बाय! 'हमारे बीच इतनी दूरी आ चुकी है वैभवी कि अब हम कभी नज़दीक आ ही नहीं सकते। मैं अब तुमसे कभी बात नहीं करूँगा।"-श्रीकान्त की तल्खी भरी आवाज़ जा रही वैभवी के कानों में पड़ी।
    श्रीकान्त और वैभवी किंग मेमोरियल कॉलेज में पढ़ते थे। श्रीकान्त फिज़िक्स में एम.एससी. फाइनल में था और वैभवी एम.एससी. (जियोलॉजी) प्रीवियस की स्टूडेंट थी। चार माह पूर्व जिस तरह एक संयोग से दोनों एक दूसरे के इतने करीब आ गये थे कि दो जिस्म, एक जान बन चुके थे, दो दिन पहले हुई कुछ ग़लतफ़हमी के चलते, आज इस कदर एक-दूसरे से विरक्त हो गये जैसे कि दोनों के बीच कभी कुछ था ही नहीं।
    श्रीकान्त के पास खड़े उसके दोस्त अभिनव को श्रीकान्त का वैभवी के साथ इस तरह बात करना ठीक नहीं लगा, बोला- "यार तू भी हद करता है! किसी लड़की से बात करने का यह तरीका होता है क्या और वह भी उस लड़की से, जो कल तक तेरी साँसों में बसी हुई थी। तुझे हो क्या गया है?"
   श्रीकान्त को भी अब अफ़सोस हो रहा था, किन्तु तीर कमान से निकल चुका था। उसने आसमान की
तरफ निगाह डाली और फिर सिर झुका कर एक लम्बी सांस ली।
    इस घटना के बाद कई बार श्रीकान्त ने चाहा कि वह आपसी ग़लतफहमी के खुलासे के लिए वैभवी से बात करे, किन्तु हर बार उसका अहम् आड़े आ जाता और वह अपने इरादे से पीछे हट जाता। उधर वैभवी भी इस रिलेशनशिप के खात्मे से मन ही मन बहुत दुःखी थी, पर वह जानती थी कि वह किसी भी प्रकार से दोषी नहीं है और जब श्रीकान्त को ही अपने व्यवहार के लिए पश्चाताप नहीं है तो वह ही क्यों पहल करे, उसका अपना भी तो स्वाभिमान है।
   समय को बीतते देर नहीं लगती। वार्षिक परीक्षाएँ सम्पन्न हुईं और श्रीकान्त की कॉलेज से विदाई हो गई। कॉलेज में तो वैभवी फिर भी कभी-कभी दिखाई दे जाती थी, लेकिन अब तो उसको देखना भी दूभर हो गया था। उसे अब वैभवी बहुत याद आती थी और उसे अपने उस दिन के व्यवहार के लिए बहुत पछतावा होता था। काश! वह दिन उसकी ज़िन्दगी में आया ही नहीं होता तो उसकी वैभवी उससे यूँ दूर नहीं हो जाती। उसने निश्चय किया कि वह एक दिन उसके कॉलेज जा कर उससे मिलेगा और अपने उस दिन के व्यवहार के लिए माफ़ी माँगेगा।
   उधर वैभवी भी श्रीकान्त की याद में उदास रहने लगी थी। उसे विचार आता कि क्या हो जाता अगर वह खुद आगे बढ़ कर उससे बात कर लेती, पर फिर श्रीकान्त के उस दिन के शब्द स्मृति में आकर उसे पुनः भीतर तक कुरेद देते।
   एक दिन जब वह कॉलेज की लाइब्रेरी में बैठी थी। समीप ही कोई आहट सुनी तो पुस्तक से नज़र हटा कर उसने बगल में देखा, श्रीकान्त पास वाली कुर्सी पर बैठा था। एकबारगी चौंकी वह, किन्तु पलट कर वापस अपनी नज़रें पुस्तक में गड़ा दी। उसे याद आया, पहली मुलाकात में भी वह इसी तरह उसके पास आकर बैठा था।
   "वैभवी! प्लीज़ मुझे माफ़ कर दो, मैं उस दिन के व्यवहार के लिए बहुत शर्मिंदा हूँ।"- साहस कर के श्रीकान्त बोला।
   वैभवी खामोश रही, उसने पलट कर भी उसकी तरफ नहीं देखा। निश्चय किया उसने कि वह सहजता से नहीं पिघलेगी। श्रीकान्त कुछ देर तक प्रतीक्षा करता रहा कि वैभवी कुछ तो बोलेगी, किन्तु जब देखा कि वह तो उसकी उपस्थिति से भी अन्जान बन रही है तो हताश होकर वहाँ से उठ कर चला आया। यद्यपि लाइब्रेरी में उस समय चार-पाँच स्टूडेंट्स ही थे और वह भी अपरिचित, किन्तु श्रीकान्त ने स्वयं को अपमानित महसूस किया और फिर कभी बात नहीं करने का निश्चय कर भारी कदमों से कॉलेज से निकल आया।
   श्रीकान्त के बाहर जाने के बाद वैभवी देर तक दरवाज़े की तरफ देखती रही। वह अब पछताने लगी कि श्रीकान्त से उसने बात क्यों नहीं की, क्यों यह मुआ अभिमान बीच में आ गया? वह पश्चाताप की अग्नि में जलने लगी और उठ कर लाइब्रेरी से बाहर निकल आई। रोकते-रोकते भी आँसू की दो बूँदें उसके गालों पर लुढ़क आईं। हाय! सुलह का इतना अच्छा मौका मैंने गवां दिया, सोच-सोच कर उसका मन उसको कोसने लगा।
   तीन-चार दिन तक वैभवी यही सब-कुछ सोचती रही।  किसी काम में उसका मन नहीं लग रहा था।
   समय बीतते हर दुःख स्वतः हल्का होने लगता है और मनुष्य धीरे-धीरे उसे भूलने भी लगता है। ऐसा नहीं होता तो मनुष्य शायद जी ही नहीं पाता, सो वैभवी की मनःस्थिति भी ठीक होती चली गई।
   इस बात को कुछ दो-तीन माह गुज़रे होंगे।
                                                    
   वैभवी सुबह के वक्त घर के पास के बस स्टैण्ड पर खड़ी बस का इंतज़ार कर रही थी। बस आई, लेकिन ठसाठस भरी होने से बिना रुके ही रवाना हो गई। वह झुंझला उठी, 'आज जियोलॉजी की एक्स्ट्रा क्लास है। वैसे ही देर हो चुकी है और यह बस रुकी ही नहीं, लगता है क्लास मिस हो जाएगी। अब आधा घंटा और इन्तज़ार करना होगा।'
   उसके चेहरे की परेशानी साफ देखी जा सकती थी। उसी समय कोई उसके पास आकर रुका। वैभवी ने पलट कर देखा, श्रीकान्त था। बरबस ही एक स्मित वैभवी के चेहरे पर तैर गई, किन्तु उसकी उपस्थिति को महत्त्व न देकर उसने अपनी नज़र सामने की ओर कर ली। उसके ज़ेहन में श्रीकान्त द्वारा पिछले साल कहे गये शब्द उभर आये, 'हमारे बीच इतनी दूरी हो चुकी है वैभवी कि अब हम कभी नज़दीक नहीं आ सकते।'
  श्रीकान्त उस दिन फिर कभी वैभवी से बात नहीं करने का निश्चय कर के गया था, किन्तु आज उसे देखते ही कार कुछ दूरी पर पार्क कर उसके पास चला आया। वैभवी के चेहरे की स्मित उसने भांप ली थी, मुस्कराते हुए बोला- "मेरे साथ चलोगी वैभवी? मैं तुम्हें कॉलेज ड्रॉप कर दूँगा।"
  "नहीं श्रीकान्त, तुम क्यों तकलीफ करोगे, अभी थोड़ी देर में बस आ जाएगी।"- वैभवी ने उदासीनता प्रदर्शित करते हुए संयत स्वरों में कहा।
  "वैभवी, प्लीज़ आओ मेरे साथ, मुझे कुछ ज़रूरी बात भी करनी है तुमसे। आज मैं 'ना' नहीं सुनूँगा। ... प्लीज़!"
   वैभवी भी श्रीकान्त को भूल नहीं सकी थी। अपने अहम् पर संयम लाते हुए उसने इस अवसर को व्यर्थ नहीं जाने दिया और मौन स्वीकृति के साथ श्रीकान्त के साथ उसकी कार की ओर बढ़ चली।
   सावन का महीना था। सूरज घने बादलों की ओट में था, आसमान में कोहरा छा रहा था और हलकी बूंदाबांदी भी शुरू हो गई थी। दोनों तेजी से चल कर कार तक पहुँचे। श्रीकान्त ने वैभवी के लिए कार का दरवाज़ा खोला और उसके बैठने के बाद स्वयं भी ड्राइविंग सीट पर आ गया। कॉलेज वहाँ से करीब सात-आठ किलोमीटर दूर था। कोहरे के कारण सड़क पर कार बहुत सावधानी से चलानी पड़ रही थी। आसमान से गिर रही बरसात की बूंदों की हल्की आवाज़ के अलावा कार में ख़ामोशी थी।
   'क्या कहना चाहता है श्रीकान्त? कभी साथ-साथ जीने-मरने की कसम खाने वाले श्रीकान्त ने थोड़ी-सी ग़लतफहमी के चलते कितनी दूरियाँ बना ली हैं मुझसे।', वैभवी के दिमाग़ में उथल-पुथल चल रही थी।
   दो-तीन मिनट की ऊहापोह के बाद श्रीकान्त ने ही चुप्पी तोड़ी- "मुझे क्षमा करो वैभवी, मैं ही तुम्हें ग़लत समझ बैठा था। तुम्हें नहीं मालूम, मैंने तुमसे जुदा हो कर कितनी पीड़ा सही है! मुझे तुमसे अब कोई कैफियत नहीं चाहिए। अभी कुछ दिन पहले ही काफी-कुछ बात पता लग चुकी है।... पर वैभवी, तुम भी तो मुझे स्वयं सब-कुछ साफ-साफ बता सकती थी। तुम खामोश क्यों रही?"
  "तुमने मुझे मौका ही कब दिया श्रीकान्त? तुमने तो मेरा पक्ष सुने बिना ही अपना फैसला सुना दिया था। तुम्हें अभी भी शायद पूरी बात मालूम नहीं है, आज सब-कुछ तुम्हें बताती हूँ।"
   वैभवी अपनी बात कहती रही और श्रीकान्त सुनता रहा। कॉलेज अब आने वाला ही था। वैभवी की बात पूरी होने पर श्रीकांत ने लम्बी साँस ली। उसके मुँह से केवल एक शब्द 'उफ्फ़' निकला और फिर एक लम्बी मुस्कराहट उसके चेहरे पर उभर आई। उसने देखा, वैभवी भी हौले-हौले मुस्करा रही थी।
   पीछे से आ रही एक अन्य कार का हॉर्न सुन श्रीकान्त ने साइड-मिरर में देखा। वह कार तो आगे निकल गई, किन्तु कुछ पल को उसकी नज़र साइड-मिरर पर लिखे चेतावनी-वाक्य पर केन्द्रित हो गई -
   'Objects in mirror are closer than they appear.'
  श्रीकान्त ने मुस्करा कर अर्थपूर्ण दृष्टि से पुनः वैभवी की और देखा।
  आकाश में सूरज बादलों की ओट से निकल आया था, कोहरा अब छँट गया था।

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